Opinion: बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले से हर किसी को विचलित होना चाहिए

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Saiyed Zegham Murtaza

बांग्लादेश में इन दिनों जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर भारत समेत दुनियाभर में बेचैनी है. बेचैनी होनी भी चाहिए. जिस भी व्यक्ति का मानवाधिकारों, मानवीय मूल्यों और मानवीय बराबरी के सिद्धांतों में जरा सा भी यकीन है उनको बांग्लादेश की घटनाएं जरूर विचलित करेंगी. हालांकि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने की बात कर रही है लेकिन सवाल ये है कि हालात यहां तक पहुंचे ही क्यों?

बांग्लादेश में अराजकता

बांग्लादेश से लगातार विरोधाभासी खबरें आ रही हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे कई चित्र और वीडियो तैर रहे हैं जिनमें बांग्लादेश के बहुसंख्यक समुदाय के लोग धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हुए दिख रहे हैं. मंदिर और चर्च के बाहर पहरा देते मुसलमानों के चित्र वाकई राहत देने वाले हैं. लेकिन ये तस्वीर का एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि बांग्लादेश अराजकता में डूबा है. इसकी कीमत धार्मिक अल्पसंख्यक चुका रहे हैं. जिस तरह वहां हिंदू, ईसाई और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया गया वह सच में निराश करने वाला और निंदनीय है.

बांग्लादेश में हुई हिंसा के दौरान ढाका में जलाया गया एक भारतीय रेस्टोरेंट.
Photo Credit: PTI

बांग्लादेश की घटनाओं को लेकर दुनिया भर में बेचैनी साफ महसूस की जा सकती है. भारत सरकार ने इसे लेकर अपनी चिंता जताई है.सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस को शुभकामनाएं देते हुए उम्मीद जताई है कि वो जल्द से जल्द धार्मिक अल्पसंख्यों को सुरक्षा मुहैया कराएंगे. विपक्ष की तरफ से भी इसी तरह के बयान आए हैं.कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने आशा जताई है कि बांग्लादेश में जल्द हालात सामान्य होंगे और वहां की नवनिर्वाचित सरकार हिंदू, ईसाई और बौद्ध धर्म को मानने वालों की सुरक्षा और सम्मान को सुनिश्चित करेगी.

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मानवीयता और मानव के नैसर्गिक अधिकार

नेताओं के अलावा तमाम सामाजिक संगठन, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और यहां कि धार्मिक समूह भी बांग्लादेश की घटनाओं से चिंतित हैं.मगर यहां पर सवाल जेहन में आने लाजिमी हैं, जैसे कि जो कुछ बांग्लादेश में हो रहा है, उसे लेकर हम विचलित क्यों हैं? क्या यह बांग्लादेश का आंतरिक मामला नहीं है? क्यों ये घटनाएं हमें परेशान कर रही हैं? इन सवालों के जवाब सिर्फ एक शब्द में छिपे हैं, वो है मानवीयता और मानव होने के नाते हमारे मूल नैसर्गिक अधिकार. इन अधिकारों पर प्रतिक्रिया के लिए हम अपनी सहूलियत, अपनी धार्मिक निष्ठा या सियासी चश्मों का चयन नहीं कर सकते हैं. अगर हम ऐसा करते हैं तो यकीनन हम मानवीयता से परे निकल गए हैं.

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बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हुई हिंसा के खिलाफ राजधानी ढाका में प्रदर्शन करते हिंदू.

बांग्लादेश में सियासी आंदोलन की आड़ में जो कुछ घटित हुआ या हो रहा है, वो किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है. सरकारों से असंतुष्ट होना, सरकारों के खिलाफ आंदोलन करना और सरकारों से अपनी बातें मनवाना किसी भी नागरिक समाज का लोकतांत्रिक अधिकार है. लेकिन इस सबमें हिंसा को दाखिल होने का रास्ता नहीं देना चाहिए. इससे भी बढ़कर इस अराजकता का इस्तेमाल अपने निजी हिसाब-किताब बराबर करने या अपनी नफरतों को हवा देने के लिए बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए.यह बात सिर्फ बांग्लादेश पर लागू नहीं होती बल्कि हर उस देश और समाज पर लागू होती है जो खुद को सभ्य, संस्कारवान और मानवीय मूल्यों पर आधारित मानता है.

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बहुसंख्यक समुदाय की जिम्मेदारी

इसी तरह अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, बराबरी और आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध कराना हर सरकार, हर देश और बहुसंख्यक समुदायों की जिम्मेदारी है. ऐसा करना कोई एहसान करना या भीख देने जैसा नहीं है बल्कि यह सत्ता, संसाधन और निर्णय लेने में बहुसंख्यकों को मिलने वाली बढ़त के बदले दिया जाने वाला बहुत छोटा सा अधिकार है. लेकिन दक्षिण एशिया, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप औपनिवेशिक शासन खत्म होने के 75 साल से ज्यादा हो जाने के बाद भी यह छोटी सी बात समझ पाने में नाकाम रहा है.यही इस क्षेत्र में आए दिन होने वाली धार्मिक हिंसा, दंगों और नफरत से जुड़ी घटनाओं में होने वाली हत्याओं की बड़ी वजह भी है.

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बांग्लादेश में हुई हिंसा के दौरान एक बंद पड़े हिंदू मंदिर के बाहर प्रार्थना करते हिंदू.

इन घटनाओं पर हमारा या किसी का भी आंदोलित होना स्वाभाविक बात है. इसमें अस्वाभाविक यह है कि हमारा विचलन धार्मिक या जातीय पहचान के आधार पर है, मानवीय आधार पर नहीं. हमने शायद कभी अपने मन से यह सवाल पूछने की कोशिश ही नहीं की है कि जहां पर हम बहुसंख्यक हैं, वहां हम अपने अल्पसंख्यक के साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं? लेकिन जब भी हम ऐसी किसी हिंसक घटना का समर्थन करते हुए उसे जातीय या धार्मिक चश्मे से देखते हैं. ऐसा करते हुए हम इस तथ्य की अनदेखी कर रहे होते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसका असर सिर्फ यहीं तक नहीं रहने वाला है. खासकर दक्षिण एशिया की कोई घटना ऐसा नहीं होती जिसका असर सीमा के पार तक न जाए.

बंटवारे की त्रासदी

दरअसल हम अभी तक भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि 1947 का बंटवारा अप्राकृतिक था और उससे भी बड़ी त्रासदी मानव जनसंख्या का स्थानांतरण था. 1947 की त्रासदी हमारे लिए सबक बन जानी चाहिए थी लेकिन 75 साल बाद भी हम वही गलतियां दोहरा रहे हैं. धर्म के अलावा बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का बंटवारा 1947 के विभाजन के पीछे एक प्रमुख मुद्दा था. लोगों ने देश तो बांट लिया लेकिन अधिकारों के बंटवारे का सवाल वहीं का वहीं खड़ा रहा. बांग्लादेश ही नहीं, श्रीलंका, म्यांमार, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान और खुद भारत के लोगों को अभी सभ्यता का वो स्तर छूना बाकी है जिसमें अपने से कमजोर, अपने से संख्या में कम या अपने से भिन्न विचार रखने वालों के मूलभूत अधिकारों का ख्याल रखना आता हो.

राजधानी ढाका के ढाकेश्वरी मंदिर में हिंदू समाज के लोगों से मिलते बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस.

हालांकि कानून, संवैधानिक प्रावधान और सामाजिक रिश्तों की बुनियाद पर हम कह सकते हैं कि भारतीय बाकी पड़ोसी देशों से बेहतर हैं. लेकिन बात इतने पर ही खत्म नहीं हो जाती. हमें मानना पड़ेगा कि जिस तरह पड़ोस की घटनाएं हमें विचलित कर रही हैं, धर्म या जाति के आधार पर घटने वाले अपराध सीमाओं के परे रहने वालों को भी विचलित करते होंगे. हमें चीजों को धर्म, राजनीति और सीमाओं से परे रखकर देखना सीखना होगा. लेकिन इतने भर से हमारी जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती. हमें हर उस घटना के विरोध में उठ खड़ा होना सीखना होगा जो मानवीय मूल्यों के खिलाफ है. वह घटना चाहे बांग्लादेश में घटित हो या पाकिस्तान या ईरान या तूरान में.आजादी के 78वें वर्ष में दाखिल होते समय हम इतना तो कर ही सकते हैं.

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