यह ख़बर 14 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश की कलम से : चाचा

नई दिल्ली:

कितने दिन हो गए किसी को चाचा पुकारे। आज जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पर यह शब्द तमाम रिश्तेदारियों से बड़ा हो गया है। 125 साल का कोई चाचा होता है भला। ताऊ होकर तो वह दादा भी हो सकता है और चाचा तो है ही ताऊ में। हमारे लिए चाचा का क्या मतलब है। मैं नेहरू की बात नहीं कर रहा हूं। हमारे आस पास के सामाजिक सिस्टम में कोई चाचा होता है, तो उसकी स्मृतियां कैसी होती हैं। वह कैसा होता है।

जैसे कोई पति पत्नी के अलावा किसी सखी की तलाश करता रहता है, जैसे कोई पत्नी-पति के अलावा किसी दोस्त की तलाश में रहती है, शायद ऐसे ही हम पिता के अलावा पिता जैसे की तलाश में रहते हैं। चाचा होता है तो सब हो जाता है। पिता की ग़ैर मौजूदगी में पिता और जीवन में किसी के दोस्त बनने से पहले दोस्त।

चाचा का कंधा भी बाप जैसा ही लगता है। उसी हक से बचपन चढ़ जाना चाहता है और उनकी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोल लेता है। टॉफी या चवन्नी। साहित्य ने चाचा को कैसे बरता है मुझे नहीं मालूम। तो हम सब अपने अपने जीवन में मौजूद चाचाओं को याद क्यों नहीं कर सकते। क्या नेहरू वसीयत लिख गए थे कि मेरे जन्मदिन पर सिर्फ मुझे ही चाचा कहना। अपने चाचा को चाचा मत कहना।

चाचा या चाचू। कितना प्यार है। मां-बाप के अलावा। कुछ एक्सट्रा सा। सब कुछ ख़्वाब सा तो होता नहीं। सारे अच्छे रिश्ते ख़्वाब में होते हैं। फरिश्तों की कहानियों में होते हैं। अच्छे रिश्ते में भी खटास होती है और बुरे में भी कुछ अच्छाई। जीवन जैसा होता है रिश्ता। रिश्ता ही तो जीवन है। अगर हम चाचाओं को याद करें तो समाज की कैसी तस्वीर हमारे सामने बनने लगेगी। कहीं इसी डर से तो हम एक ही चाचा को याद नहीं करते। अपने आस-पास के चाचा को भूल जाते हैं।

किसी की मां की यादों में कोई चाचा कैसे रहे होंगे हमें नहीं मालूम। चाचा होने के लिए मां से बड़ा या छोटा होना होगा। पिता से बड़ा या छोटा होना होगा। पड़ोसी भी चाचा हो सकते हैं। चाचा के होने के साथ मां के साथ सामाजिक संबंधों की स्मृतियां कैसी बनती होंगी। कितने घरों में चाचाओं के हाथ उठाने की कहानियां दफ्न होंगी। कितने घरों में चाचा के अपने भाई को देवता समझने के किस्से अमर होंगे। कई चाचाओं ने भतीजे की माताओं को सामंतवादी ढांचे में जकड़ दिया होगा तो कई ने उन्हें निकालकर एक नई दुनिया में पहुंचा दिया होगा। चाचा से पहले वह या तो जेठ होता है या देवर। और जब जेठ और देवर होता है तो फिर रिश्तों की वैसी रूमानी व्याख्या की गुंजाइश भी नहीं रह जाती। बहुत सारी तल्ख़ियां और बहुत सारी मस्तियां एक साथ टकराने लगती हैं। फिर उसमें से कोई चाचा निकलता है।

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हम सबको अपने अपने चाचाओं से जुड़े संदर्भों को याद करना चाहिए। विश्वास-अविश्वास, ताने-सराहनाएं सब कुछ। बेवजह ईर्ष्या तो बेइंतहा प्यार। चाचा एक जटिल रिश्ता है। वह एक ही साथ सामाजिक सिस्टम से बाहर आज़ादी का प्रतीक है, जिसके साथ आप बराबरी से बात कर सकते हैं तो यह भी हो सकता है कि आपकी मां उसी चाचा के सामने ग़ैर बराबर हो जाया करती होगी। सर पर पल्लू खींच लेती होगी या देखते ही खुश हो जाती होगी।

स्मृतियों का समंदर हमारे सामाजिक जीवन में बाहर आने के लिए हिलोड़े मार रहा है और हम हैं कि सिर्फ एक ही चाचा को याद कर खुश हो जा रहे हैं। चाचा नेहरू तो हम सबके जीवन में होंगे। उन्हें याद करके देखते हैं। नेहरू जैसा कोई नायक निलकता है या कोई ऐसा ख़लनायक जो हर बार चाचा नेहरू के जन्मदिन के पीछे छिपा रह जाता है। तो आपके चाचा कैसे थे। सच बताइयेगा।