सिर्फ चार महीने बचे हैं 2021 के. उसके बाद 2022 का वह साल आएगा जिसका इंतज़ार 5 साल से हो रहा है. 2016 में मोदी सरकार ने कहा था कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी. कहां तो सरकार और किसानों को चार महीने बाद दोगुनी होने वाली आमदनी के हिसाब लगाने में व्यस्त होना चाहिए, इंडिया गेट में एक घड़ी लगी होनी चाहिए जिस पर हर दिन की कमाई का काउंटर बताया जाता हो कि आज किसानों की आमदनी इतनी हो गई है. 31 दिसंबर 2021 की रात 12 बजते ही किसानों की कमाई इतनी हो जाएगी. लेकिन इसकी जगह किसानों पर लाठियां बरसने लगती हैं. उनके सर और पांव पर पुलिस की लाठी की गिनती होने लगती है.
नौ महीने हो गए किसान आंदोलन के. प्रधानमंत्री ने उचित ही कई खिलाड़ियों से फोन पर बात कर उनका हौसला बढ़ाया है लेकिन इन नौ महीनों में किसान आंदोलन के नेताओं से बात करने का उन्हें समय नहीं मिला जबकि प्रधानमंत्री ने किसानों से कहा था कि वे सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हैं. वो बात हेडलाइन बनकर तो छप गई लेकिन बात हुई हो इसकी कभी हेडलाइन नहीं छपी. सरकार के साथ आंदोलन की बातचीत के 11 दौर चले और आखिरी बातचीत 22 जनवरी को हुई थी. सुप्रीम कोर्ट ने अशोक गुलाटी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी जिसकी रिपोर्ट मार्च महीने में कोर्ट को सौंप दी गई है. इस आंदोलन के चलते हुए भी सरकार फैसला करती है कि लाखों टन अनाज क्षमता के गोदाम प्राइवेट सेक्टर को लीज़ पर दे दिए जाएंगे. जय जवान जय किसान के नारे पर किसानों ने अपना सब कुछ दे दिया लेकिन बाद में इसी नारे के नाम पर वे ठगे जाते रहे. उनके सर फोड़े जाते रहे.
करनाल के उप ज़िलाधिकारी आयुष सिन्हा का यह वीडियो बता रहा है कि प्रशासन की नज़र में अब किसानों की क्या हैसियत रह गई है और प्रशासन कैसे काम करता है. सर फोड़ने का आदेश अगर पहले ही दे दिया जाए तो क्या पता एक दिन गोली मारने का आदेश घटना होने से पहले ही दे दिया जाए. हर अफसर आईएएस बनने पर जनता की सेवा की बात करता है. कई अफसर जनता बनकर जनता की सेवा भी करते हैं लेकिन यह भी सच है कि कुछ अफसर सर फोड़ने और थप्पड़ मारने के काम आ जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट के बयान को दस दिन भी नहीं हुए हैं कि पुलिस के अधिकारी अपने पॉलिटिकल मास्टर को खुश करने में लगे हैं. सत्ता में पावर की पुड़िया सबको बंटती है. इसके लिए अफसर चाहें तो किसी बेकसूर को आतंकवादी बनाकर वर्षों जेल में डाल दें या किसी का सर फोड़ दें, उसके स्टेटस पर कोई आंच नहीं आती है. किसानों का सर अब एक नया टारगेट है. पहले पांव को टारगेट किया गया जब उनके चलने के रास्तों पर कांटे और कीलें गाड़ दी गईं.
जब पिछले साल नवंबर की ठंड में पंजाब से किसानों का जत्था दिल्ली की तरफ चला था तब भीषण ठंड में उन पर पानी की बौछारें की गईं थीं. पूरे रास्ते में सीमेंट के बड़े बड़े बोल्डर क्रेन की मदद से रख दिए गए. इन भारी भरकम बैरिकेड को हटाना आसान नहीं था. उसके बाद कंटेनर लगा दिए गए.बड़े-बड़े गड्ढे खोद दिए गए जिनमें कूदना और निकलना मुश्किल हो गया. इसके बाद भी किसान आगे बढ़े तो उन्हें लाठियों से घेर कर मारा गया. राज्यों के बार्डर सील कर दिए गए थे. किसान जब दिल्ली की सीमा पर पहुंच गए तब भी उनके लिए कोई दिन आसान नहीं रहा. वे दिल्ली न आ जाएं इसके लिए दिल्ली की सीमा पर कटीले तार लगा दिए गए और सड़कों पर कीलें लगा दी गईं. गोदी मीडिया जब इन किसानों को आतंकवादी खालिस्तानी कहने लगा और किसान सफाई देने लग कि वे किसान हैं उनका बेटा फौज में है. जब भी बंगाल में चुनाव आता है दिल्ली चलो का नारा देने वाले नेताजी का नाम लिया जाने लगता है लेकिन जब किसान दिल्ली चलो का नारा देते हैं तो कंटीले तार बिछा दिए जाते हैं.
करनाल प्रशासन ने इस बात को लेकर खेद प्रकट किया है कि एसडीएम आयुष सिन्हा ने सर फोड़ने की बात की है. इसके पहले प्रशासन ने एक वीडियो भी ट्वीट किया है जिसमें किसान पुलिस पर हमला करते दिखाए जा रहे हैं. किसानों को एक बात याद रखनी होगी कि हिंसा की कोई भी कार्रवाई उनके आंदोलन को नुकसान करेगी लेकिन क्या इसी तर्ज पर प्रशासन अपनी हिंसा को याद रखता है? डीसी निशान्त यादव और एसपी गंगा राम पूनिया ने कहा कि पुलिस पर भी पत्थर फेंके गए. 13 पुलिसकर्मी ज़ख्मी हुए हैं. उन्होंने कहा कि किसानों के खिलाफ मिनिमम बल प्रयोग हुआ है. एसडीएम का वीडियो तो काफी पहले का है जिसमें वे सर फोड़ने की बात कर रहे हैं. करनाल के उपायुक्त निशान्त यादव ने कहा कि एसडीएम के शब्दों पर खेद प्रकट करते हैं. प्रशासन की सफाई मामले को और उलझा रही है. सबूत बन जा रही है कि एसडीएम ने सर फोड़ने के आदेश दिए थे.
किसी विशेष नाके पर एसडीएम आयुष सिन्हा के निर्देश की ज़रूरत नहीं पड़ी लेकिन कहीं और किसानों पर लाठियां तो चली हीं. दोनों ही समय में प्रशासन तो एक ही था. क्या इस तरह के निर्देश दिए जाने चाहिए थे? इसका तो वीडियो है, हमें क्या पता किस किस तरह के निर्देश दिए जाते हैं.
दुष्यंत चौटाला सरकार में होते हुए भी कह रहे हैं कि किसान भी 365 दिनों से नहीं सोए हैं. मुख्यमंत्री एमएल खट्टर के बयान से ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि वे सख्त कार्रवाई की बात कर रहे हैं. बल्कि वे प्रशासन के साथ खड़े हैं और सर फोड़ देने की बात को अपवाद की तरह स्वीकार कर रहे हैं.
बीजेपी के नेता वरुण गांधी ने आयुष सिन्हा के खिलाफ कार्रवाई की बात की है. मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने हरियाणा के मुख्यमंत्री से इस घटना के लिए माफी की मांग की है. संयुक्त किसान मोर्चा के लीगल सेल के संयोजक और वकील वासु कुकरेजा ने ट्वीट किया है कि वे करनाल के ज़िलाधिकारी आयुष सिन्हा के खिलाफ मामले दायर करेंगे. योगेंद्र यादव ने आयुष सिन्हा को बर्खास्त किए जाने की मांग की है.
गोदी मीडिया और सरकार हर दिन किसान आंदोलन की ताकत को खारिज करता है. यही कुछ लोगों का आंदोलन बताता है लेकिन यह आंदोलन 9 महीनों से मौजूद है और चल रहा है. करनाल की घटना ने किसानों को और निडर बना दिया है. हरियाणा के मुख्यमंत्री ने आज भी कहा है कि किसानों को भ्रम हो गया है. एक सिम्पल सवाल है, अगर 9 महीने भ्रम के आधार पर किसान आंदोलन कर सकते हैं तो सरकार 9 महीनों में किसानों के भ्रम क्यों नहीं दूर कर सकी, इस बात पर कम से कम गोदी मीडिया का विज्ञापन तो बंद ही कर देना चाहिए कि वह न किसानों को आतंकवादी बता सका और न ही उनके भ्रम दूर कर सका. एक सवाल और है. आखिर किसान किसान करने वाली सरकारें अब किसानों के इस सबसे बड़े आंदोलन की परवाह क्यों नहीं करती हैं? इसका जवाब सरकार के पास नहीं, किसानों के बीच मौजूद है.अगर आप खुद को धोखे में नहीं रखना चाहते तो 2013-14 की ख़बरों को खोज कर पढ़िए. किसान नेताओं को भी अपने पुरान बयान देखने चाहिए.
जब पश्चिम यूपी में किसानों के मुद्दे पर होने वाली महापंचायतों की जगह धर्म के मसले पर महापंचायतें होने लगी थीं. इन मंचों पर सांप्रदायिक नारे लगाने वाले नेता आने लगे और चुनाव जीतने लगे सितंबर 2013 की महापंचायत के बाद पश्चिम यूपी में दंगे भड़क गए और 60 से अधिक लोग मारे गए. किसान अपनी पहचान छोड़ सांप्रदायिकता की पहचान में रम गए. उनके युवाओं को लगा कि एक नई ताकत मिली है जिसके दम पर किसी सब्ज़ी बेचने वाले को मार सकते हैं. उसका ठेला पलट सकते हैं. इसी ताकत का एक प्रदर्शन था दिसंबर 2018 का बुलंदशहर कांड. अफवाह के सहारे नौजवान हिंसक हो उठे और पुलिस पर ही हमला कर दिया. पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को घेरकर मार दिया. आज तक इस मामले में किसी को सज़ा नहीं मिली. सांप्रदायिकता ने किसान नाम की ताकत और पहचान को खत्म कर दिया.
यह भी बड़ी बात है कि जब किसान आंदोलन ज़ोर पकड़ा तो सबसे पहले ध्यान किसानों का ही गया कि वे क्यों कमज़ोर हुए हैं. इस साल हुई किसान महापंचायतों में सांप्रदायिकता को लेकर प्रायश्चित किया जाने लगा. डरपोक और कमज़ोर विपक्ष कभी सामने से जनता को नहीं कह सका कि सांप्रदायिकता आपके बच्चों को गुंडा और दंगाई बना रही है. लेकिन किसान आंदोलन इस गलती पर माफी मांगने लगा.
इस साल फरवरी में मथुरा की महापंचायत में जयंत चौधरी ने कहा कि अगर एकता नहीं बनी तो जाति और धर्म में बंटे किसानों की महापंचायतों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा. किसान हिन्दू और सिख के विभाजन का खेल समझ समझ गए. पंजाब के किसानों को खालिस्तानी कहे जाने का विरोध करने लगे. राकेश टिकैत ने हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आप में हैं भाई भाई का नारा लगाया. सिसौली महापंचायत में नरेश टिकैत ने 2013 के दंगों के लिए माफी मांगी. क्या किसान आंदोलन के कारण गांव देहातों में जाति और हिन्दू मुस्लिम डिबेट पीछे चला जाएगा, निश्चित रुप से कहा नहीं जा सकता. इसका जवाब किसान आंदोलन को देना है.
किसान आंदोलन ने 9 महीने की यात्रा में कई मुश्किलों का सामना किया. हाल के दौर में जब हर आंदोलन टूट गया, बंट गया और खत्म हो गया, किसानों का आंदोलन टिक गया. यह सामान्य घटना नहीं है. बेरोजगार युवाओं की तरह नहीं कि ट्विटर पर ट्रेंड कराया और ग़ायब हो गए. वैसे पुलिस की लाठी के शिकार आए दिन युवा भी होते ही रहते हैं. उनके साथ भी बहुत बुरा हो रहा है.
आज करनाल में किसानों की पिटाई के बाद वहां की अनाज मंडी में महापंचायत बुलाई गई. पांच सितंबर को लेकर महापंचायतें फिर से ज़ोर पकड़ने लगी हैं. फिर से इन महापंचायतों में महिलाएं भी बड़ी संख्या में आई थीं. 2019 में 969 महिला किसानों ने आत्महत्या की है. कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोरदोलोई और डीएमके की सांसद डॉ टी सुमति ने ससंद में सवाल पूछा कि महिला किसानों को कर्ज़ से बाहर लाने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं तो बजट सत्र में सरकार ने जवाब दिया कि खेती राज्य का विषय है. जब जवाब टालना होता है तो खेती राज्य का विषय हो जाता है. जब कानून बनाना होता है तब राज्यों से पूछा नहीं जाता है. पिछले 9 महीनों में पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली, केरल , पश्चिम बंगाल और अब तमिलनाडु विधानसभा ने भी कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास किए हैं. करनाल की महापंचायत में किसान नेता गुरनाम सिंह ने एक किसान की मौत पर आरोप लगाया कि शहीद किसान को पुलिस की लाठी से चोट आई थी. उसके बाद हार्ट अटैक हुआ. परिवार का भी यही कहना है. प्रशासन का कहना है कि जिस किसान की मौत हुई है उन्हें लाठी की चोट नहीं लगी थी. 9 महीनों के आंदोलन में किसान नेताओं पर सैंकड़ों की संख्या में मुकदमे दायर हुए हैं. आंदोलनकारी किसानों की एक वेबसाइट के अनुसार इस आंदोलन में भाग लेने वाले 560 से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है. यह मामूली शहादत नहीं है.
किसानों को किसान होने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ रही है और वे कर रहे हैं. एक व्हाट्सऐप मैसेज से नेहरु को मुसलमान बनाने और हिन्दू मुस्लिम करने की चपेट से निकलने के लिए मेहनत तो करनी पड़ेगी. सांप्रदायिक होकर आप नागरिक नहीं हो सकते हैं किसी का मोहरा होते हैं. 2022 का साल किसानों की आमदनी के दुगुना होने का साल है. सरकार के पास यह बताने के लिए कोई नया डेटा नहीं है कि किसानों की आमदनी इस वक्त कितनी है और 2022 में कितनी होने वाली है ताकि उसी हिसाब से लोग जश्न की तैयारी शुरू करें.
अप्रैल 2016 में मोदी सरकार ने एक कमेटी बनाई थी जिसका नाम है Doubling of Farmers' Income Committee (DFIC). इस कमेटी ने 14 खंडों की रिपोर्ट जारी की है. कोई नया सर्वे नहीं है इसलिए 2011-12 के नेशनल सैंपल सर्वे के डेटा के आधार पर किसानों की आय का अनुमान निकाला गया है. इसी जुलाई महीने में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में लिखित जवाब में कहा है कि कोई ताज़ा आंकड़े नहीं हैं. प्रधानमंत्री मोदी के ही कितने बयान मिल जाएंगे जिसमें वे डेटा के आधार पर सरकार चलाने की बात करते हैं लेकिन किसानों की आय का कोई ताज़ा आंकड़ा नहीं है. 20 जुलाई को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में जवाब दिया है कि 2015-16 की कीमतों के आधार पर किसान परिवार की सालाना आमदनी 96,703 रुपये हैं. इसमें खेती के अलावा व्यापार, यानी एक महीने में 8000. इस 8000 में खेती के अलावा डेयरी, व्यापार, अन्य गतिविधियों से होने वाली कमाई भी शामिल है. 2021 की महंगाई को जोड़ लें तो 8000 महीने की कमाई और भी कम हो जाएगी.
लोकसभा में जब कांग्रेस सांसद और सीपीएम सांसद ने पूछा कि 2016 के बाद से किसानों की आय कितनी बढ़ी है तो कृषि मंत्री का जवाब है कि किसानों की सालाना आय के बारे में कोई ताज़े आंकड़े नहीं हैं. मार्च 2020 में यह भी सवाल पूछा गया कि कितने किसान कर्ज़ में डूबे हैं तो इसके भी ताज़े आंकड़े नहीं हैं. 2013 के साल के नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर हैं. उस साल के सर्वे के हिसाब से 52 प्रतिशत से अधिक किसान कर्ज़ में डूबे हैं. यानी सरकार के पास कोई ताज़े आंकड़े नहीं हैं कि कितने किसान कर्ज में डूबे हैं.
किसानों का काफी कुछ दांव पर है.आर्थिक तरक्की के सारे दावे विज्ञापन में ही अच्छे लग रहे हैं. जिन अखबारों में पत्रकारिता का सत्यानाश हो चुका है उन अखबारों में खबरों के रूप में विज्ञापन ही बचे हुए हैं. लेकिन हकीकत में अस्सी करोड़ लोग मोदी झोला लेने के लिए लाइन में लगे हैं. मुफ्त अनाज के लिए. ग़रीबों का भला करने वाली इस योजना की ज़रूरत ही नहीं होती अगर ग़रीबी दूर करने की योजनाएं अपना काम करतीं. हमें यह मान लेना चाहिए कि हिन्दी प्रदेश के युवाओं और रिटायर्ड लोगों को सांप्रदायिकता में सुख मिलता है. उनके लिए सांप्रदायिकता अपराध नहीं, संस्कार है. उनके इस मानसिक और बौद्धिक सुख को आप आर्थिक दुख या सुख से नहीं बदल सकते. यकीन न हो तो रिटायर्ड अंकिलों और बेरोज़गार युवाओं के वहाट्सऐप चेक कर लीजिए.