विद्या कसम पर लोग डाउट नहीं करते हैं, इसलिए विद्या कमस खा कर कहता हूं कि मुझे सचमुच नहीं पता था कि हमारे नेता साइकिल दिवस भी मना सकते हैं, जो साल भर हाइवे और हाइवे के बाद एक्सप्रेस-वे और एक्सप्रेस-वे के बाद सुपर एक्सप्रेस-वे का सपना दिखाते रहते हैं. इनकी योजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन करते रहते हैं.
ऐसा नहीं है कि साइकिल का संबंध राजनीति से नहीं है. विपक्ष में रहते हुए तेल की कीमतों के विरोध में साइकिल एक अनिवार्य तत्व है. तब साइकिल साइकिल की महानता के लिए नहीं लाई जाती है, बल्कि यह बताने के लिए लाई जाती है कि तेल इतना महंगा हो गया है कि कार छोड़कर गई-गुज़री साइकिल चला रहे हैं. इस तरह साइकिल चलाकर पेट्रोल की कीमतों का विरोध पूरा होता है और सत्ता में आने के बाद नेता एक्सप्रेस-वे के उदघाटन में व्यस्त हो जाते हैं.
प्राइम टाइम के ग्लोबल दर्शकों को यह नहीं लगना चाहिए कि उनका यह एंकर विश्व साइकिल दिवस टाइप दिवसों का नोटिस नहीं लेता है, खासकर तब जब यह विश्व पर्यावरण के दो दिन पहले आता है. यह दिवस नया-नया ही है, 2018 से मनाया जा रहा है. आप सभी जानते हैं कि केवल स्कूली निबंधों में साइकिल का संबंध पर्यावरण से होता है, बाकी विकास के निबंधों में साइकिल का संबंध किसी से नहीं होता है. तो मैं बात कर रहा था कि मुझे बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था, कि हमारे नेता साइकिल दिवस भी मना सकते हैं. पिछले साल प्रधानमंत्री का साइकिल दिवस पर कोई ट्विट नहीं मिला, लेकिन इस साल जब विश्व साइकिल दिवस मनाते देखा तो पिछले साल की एक घटना स्मृति-कॉर्नर से निकल कर सेंटर में आ गई. घटना 16 नवंबर 2021 के दिन घटी थी.
पूर्ववर्ती संयुक्त प्रांत, अद्यती उत्तर प्रदेश के पूर्वी प्रांत नामक भौगोलिक खंड मे पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन हुआ था. यह बताने के लिए कि एक्सप्रेस-वे विकास की हर गति का द्योतक है, रफाल नामक नवीन आयातित हमलावर विमान को उतार दिया गया. इसकी गर्जना से विकास गूंज उठा. संदेश प्रसारित हुआ कि यह सड़क केवल SUV कारों के लिए नहीं, लड़ाकू विमानों के भी योग्य है. उस दिन का सीधा-प्रसारण टेढ़ा होकर देख रहा था, तब भी भनक तक नहीं लगी कि प्रधानमंत्री मोदी के दिल में साइकिल दिवस के लिए जगह है. कैसे भनक लगती, साइकिल चलाने वाली जनता को गांव-गांव से बसों में लादकर यहां साइकिल नहीं, विमान दिखाने लाया गया था. प्रधानमंत्री जानते होंगे कि जनता सपने में साइकिल नहीं, जहाज़ और कारें देखती है. साइकिल तो बच्चों के सपने में आती है जब बर्थडे आता है. अत: प्रधानमंत्री ने एक्सप्रेस-वे की कल्पना से साइकिल को दूर रखा, वैसे ऐसे एक्सप्रेस-वे पर टोल ही इतना लगता है कि साइकिल वाले क्या ही दे पाएंगे और जब टू-व्हीलर की एंट्री बंद होती है तो साइकिल की बात ही मत पूछो, हे साधो. इसलिए गांवों से लाए गई ग्रामीण जनता के सपने में यह बात न आ जाए कि इस सड़क पर उनकी साइकिल जहाज़ बन कर उड़ेगी, उन्हें असली जहाज़ दिखाया गया और साइकिल उनके सपने के बैक-सीट पर चली गई.
प्रधानमंत्री मोदी का प्रसंग इसलिए आ गया क्योंकि आज उन्होंने ट्विटर पर विश्व साइकिल दिवस की शुभकामनाएं दी हैं और साइकिल चलाते हुए गांधी की तस्वीर साझा कर दी है. लिखा है कि साइकिल चलाते गांधी जी दुनिया को प्रेरित कर रहे हैं. तब से सोच रहा हूं कि गांधी जी, प्रेरणाओं के खनिज-भंडार हैं. वे इतनी प्रेरणा देते हैं कि प्रेरणा लेने वाले भी दो-चार प्रेरणाएं तो भूल ही जाते होंगे. जबकि ऐसा नहीं है कि गोलवलकर और सावरकर ने साइकिल नहीं चलाई होगी. चलाई ही होगी. जिस रफ्तार से दुनिया व्हाट्सऐप देख-देख कर अपनी आंखें ख़राब कर रही है, जल्दी ही बिना चश्मे वाली आंखों को ढूंढना असंभव हो जाएगा, तब कोई चश्मा दिवस घोषित होगा और गांधी को भुला चुके लोग एक बार फिर से चश्मा पहनने की प्रेरणा का लोड गांधी पर डाल देंगे. इस तरह ख़ुद को व्हाट्सऐप दोष से मुक्त कर लेंगे. और यह भी नोट करें. एक दिन ऐसा भी आएगा जब प्राइम टाइम के एपिसोड को समझने के लिए अक्षय कुमार से इतिहास में डिग्री लेनी पड़ेगी. बाकी आम कैसे खाना है, वो तो रवीश कुमार फ्री में सिखा ही रहा है.
साइकिल दिवस की बात इसलिए की, क्योंकि साइकिल का संबंध पलायन से जुड़ने जा रहा है और पलायन का संबंध कश्मीरी पंडितों से. कश्मीरी पंडितों का जीवन फिर से अनिश्चित होता जा रहा है. घाटी में लौट कर अपने पुरखों की ज़मीन में बसने के सपना चोट खा रहा है. लेकिन उनकी कहानी पर आने से पहले उन साइकिलों की व्यथा से दो-चार होना ही चाहिए जिन्हें पलायन करते मज़दूर देश के भीतर बन गई सीमाओं पर छोड़ गए थे.
पिछले साल प्रयागराज में गंगा के तट पर रेत के उड़ने से कब्रें प्रकट हो गई थीं, बताया गया कि कोविड से मरने वालों को यहां दफनाया गया है, लेकिन सरकार ने परंपरा का सहारा लेते हुए इस विवाद को प्रकट होने के बाद भी विलुप्त कर दिया. कुछ कहानियां आसानी से दबा दी जाती हैं तो दबा दी गईं कहानियां भी आसानी से बाहर आ जाती हैं जैसे किसी नर-कंकाल की तरह सड़-गल चुकीं ये साइकिलें विश्व साइकिल दिवस पर प्रकट हो गई हैं. पलायन की एक दबा दी गई कहानी लेकर जो तब आप नहीं जान सके थे. तब आप यही जान पाए थे कि 2020 की चिलचिलाती धूप में पैदल चलते मज़दूरों ने पलायन के लिए साइकिलें ढूंढनी शुरू कर दी. साइकिलों की बिक्री बढ़ गई. हम नहीं जानते कि यहां कबाड़ हो चुकी कितनी साइकिलें नईं-नईं ख़रीदी गईं थीं. इनमें से कितनी पुरानी थीं जिसे मज़दूर अपने साथ लेकर पलायन कर रहे थे. साइकिलों का यह कबाड़ख़ाना यूपी के सहारनपुर में है. इसे रिकॉर्ड करने वाले अशोक कश्यप ने बताया कि इस ज़िले से पंजाब, हिमाचल प्रदेश हरियाणा और उत्तराखंड में काम करने वाले मज़दूर अपनी साइकिलों से सहारपुर के रास्ते यूपी में प्रवेश कर रहे थे. तब सहारनपुर की सीमा पर अपनी साइकिलों के साथ ज़ब्त हो गए. ज़ब्त हुए मज़दूरों को पिलखनी के राधा सत्संग भवन में क्वारंटीन के लिए रखा गया और वहां से बस के ज़रिए सभी को घर भेज दिया गया. करीब 25 हजार मजदूर अपनी साइकिल छोड़ गए थे और एक टोकन लेकर गए थे. ज़िलाधिकारी अश्विनी सिंह का कहना है कि राधा स्वामी सत्संग भवन के पदाधिकारियों से सभी मजदूरों का नंबर लिया गया था. जो साइकिल लेने नहीं पहुंचे उनको फोन किया गया था. 5400 कामगार मजदूर अपनी साइकिल लेने नहीं पहुंचे. प्रशासन ने दो साल के इंतजार के बाद 21 लाख 20 हजार रुपये में नीलाम कर दिया. ये साइकिलें मज़दूरों के सपने में आती होंगी या आनी बंद हो गईं होंगी, अगली बार अक्षय कुमार जब कवि बनकर आएंगे तो उनसे पूछिएगा. इन साइकिलों का संबंध पलायन से है और पलायन का संबंध कश्मीरी पंडित से है. कश्मीरी पंडितों के पलायन की स्मृति में साइकिल तो होगी ही जब उन्होंने नई जगह पर ज़ीरो से शुरूआत की होगी, साइकिलों पर सामान बेचे होंगे. इस कहानी में एक बात अलग से नोट करें. पलायन करते मज़दूरों की साइकिल से सरकार ने पैसे कमाए. इससे पर्यावरण का कितना नुकसान हुआ, वह तो नहीं बता सकता मगर सरकार की जेब भर गई. कश्मीरी पंडित अगर इस कहानी को समझ जाएंगे तो उनकी कहानी भी यूपी बिहार के लोग समझ ही जाएंगे.
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में काम करने वाले मज़दूरों की 5400 साइकिलों की कहानी विश्व साइकिल दिवस पर अपने आप आ गई. अगर ये ज़ब्त न होतीं तो 5400 साइकिलों से मज़दूर यूपी के अलावा बिहार, बंगाल और मध्यप्रदेश तक जाते. इसी तरह अगर श्रीनगर और जम्मू कश्मीर के दूसरे हिस्सों में कश्मीरी पंडितों को रोका नहीं जाता तो आज 4000 पंडित अपने ही देश में पलायन कर चुके होते. 35000 धनिक लोग आठ सालों में भारत से पलायन कर गए, किसी ने नहीं रोका, 4000 कश्मीरी पंडितों को पलायन करने से रोका जा रहा है. सहारनपुर की साइकिल की कहानी यहीं पर कश्मीरी पंडितों के पलायन को रोके जाने की कहानी से जुड़ जाती है.
गुरुवार रात अपनी कार में बैठकर एक कश्मीरी पंडित का परिवार जम्मू के लिए निकल रहा था, दिन के वक्त भी ऐसी कारें देखी गई हैं. सरकार ने इन्हें सुरक्षा का आश्वास दिया है लेकिन असुरक्षा आश्वासन से कहीं ज़्यादा बड़ी हो चुकी है. एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने उन ख़बरों को अफवाह बताया है कि एयरपोर्ट पर कश्मीर पंडितों का हुजूम जमा हो गया है. ऐसा कुछ नहीं है. श्रीनगर एयरपोर्ट पर आम दिनों की तरह ही हज़ारों यात्री मौजूद थे. एयरपोर्ट अथॉरिटी का दावा है कि इस भीड़ को कश्मीरी पंडितों का बताना पूरी तरह गलत है. उधर ख़बरें आ रही हैं कि जहां कश्मीरी पंडित रहते हैं, उन जगहों को सील किया गया है ताकि पलायन न हो. उधर श्रीनगर में प्रदर्शन हो रहे हैं. रजनी बाला की हत्या के बाद हिन्दू समाज के लोग सुरक्षा मांग रहे हैं. इस बीच उपराज्यपाल मनोज सिन्हा दिल्ली में पहुंचे जहां गृहमंत्री के साथ हालात पर चर्चा हुई.
गोदी मीडिया के हिन्दी अख़बारों और चैनलों के ज़रिए हिन्दी प्रदेशों में इसे धर्म का मुद्दा बना दिया जाता है. इसे तो नहीं बदला जा सकता क्योंकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड अंकिलों और हाउसिंग सोसायटी के सदस्यों को धर्म के एंगल से ही कश्मीर समझ आता है. आप लाख कोशिश कर लें लेकिन यह पूरा मामला प्रशासनिक और नीतिगत नाकामी का है. इसे लेकर की जाने वाली धार्मिक राजनीति ने कश्मीर के लोगों का बहुत नुकसान किया है. यही बात कश्मीरी पंडित कई दिनों से कह रहे हैं कि इस राजनीति के लिए उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है. हमने प्राइम टाइम में कई बार कहा गया है कि कश्मीर का मसला कश्मीर के लिए नहीं, यूपी-बिहार की राजनीति के लिए है. हिन्दी प्रदेशों के युवाओं में कश्मीर को लेकर जिस तरह से फीड किया गया है अब उन्हें ख़ुद कश्मीरी पंडित भी नहीं समझा सकते कि कैसे कश्मीरी पंडितों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है. कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट की हत्या के बाद उनकी मां ने यह बात कही तो मगर किसने सुनी, किसे पता. कई कश्मीरी पंडितों ने कहा है कि अपनी राजनीति के लिए हमें बलि का बकरा मत बनाओ.
जब भी कश्मीर की बात होती है उसके इतिहास की बात होने लगती है और जब अक्षय कुमार इतिहासकार की तरह बात करने लग जाएं तो यह संकेत है कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इस देश में अपना इतिहासकार और इतिहासबोध तैयार कर लिया है. कश्मीर को लेकर हर बातचीत में वर्तमान बहुत कम होता है, अगर होता तो सवाल होता कि एक राज्य की विधानसभा को ख़त्म कर क्या मिला? एक राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदल कर क्या मिला? क्या मिला जब कश्मीर को एक साल से ज़्यादा तालाबंदी में रखा गया?
क्या मिला जब कश्मीर जा रहे विपक्ष के नेताओं को श्रीनगर हवाई अड्डे से लौटा दिया गया, जो विपक्ष अपना चुनाव नहीं जीत पाता है, वो कश्मीर जाकर क्या ही कर लेता, लेकिन विपक्ष को लौटा कर किसी रहस्य की तरह यूरोपीयन यूनियन के सांसदों को कश्मीर का दौरा करा कर क्या मिला? आपको याद है न जब अचानक इन काफियों में यूरोपियन यूनियन के सांसदों का दौरा कराया गया था, और एक महिला की भूमिका सामने आई थी, उस वक्त मीडिया ने दिल्ली में इनके दफ्तरों का दौरा भी किया था, लेकिन बाद में इस ख़बर को पलायन की कहानी की तरह दबा दिया गया.
कश्मीर में आतंकवाद का सामना सब कर रहे हैं. बीजेपी के नेता भी कर रहे हैं. अगस्त 2021 बीजेपी के प्रवक्ता अल्ताफ़ ठाकुर का बयान था कि दो साल के भीतर कश्मीर घाटी में बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता मिलाकर 12 लोग मारे गए थे और जम्मू में 11 लोग मारे गए. 9 अगस्त 2021 को जम्मू से बीजेपी नेता गुलाम रसूल डार और उनकी पत्नी की आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी. गुलाम रसूल डार बीजेपी के किसान मोर्चा के ज़िलाध्यक्ष थे. यह हत्या लाल चौक के इलाके में की गई थी.
कश्मीरी पंडितों को पलायन से रोका जा रहा है, इसके पहले तीन चार हफ्ते से चार हज़ार पंडित इसी बात के लिए प्रदर्शन कर रहे थे कि उन्हें सुरक्षित जगहों पर भेजा जाए. क्या ये कोई अनुचित मांग थी? क्या बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं को सुरक्षित जगहों पर नहीं भेजा था?
10 जुलाई 2020 के द हिन्दू की ख़बर में यही है कि बीजेपी ने सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षा की मांग की है. जम्मू कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष रविंद्र राना का बयान छपा है कि चाहे नेशनल कांफ्रेंस हो, पीडीपी हो, कांग्रेस हो या बीजेपी हो, इनके कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दी जाए, क्या कश्मीरी पंडित लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए हिस्सा नहीं ले रहे थे, उनकी भागीदारी किसी तरह से राजनीतिक कार्यकर्ताओं से कम नहीं मानी जा सकती. द वायर में अगस्त 2021 की एक ख़बर है कि आतंकी हमले को देखते हुए बीजेपी के सैंकड़ों कार्यकर्ताओं को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया. यह ख़बर भी पुलिस सूत्रों के हवाले से लिखी गई है,आधिकारिक बयान नहीं है. वायर के अलावा किसी मुख्य जगह पर यह ख़बर नहीं दिखी.
कश्मीरी पंडित केवल अपने समुदाय की हत्या से ही बेचैन नहीं थे. उन्हें रियाज अहदम की हत्या भी बेचैन कर रही थी और राजस्थान के विजय कुमार बनिवाल की हत्या ने तो उन्हें हिला ही दिया. हालांकि हिन्दी प्रदेश के नेता इस बात को नहीं समझेंगे और न समझने देंगे लेकिन बात यह है कि कश्मीर में अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित, हिन्दू और सिख हैं. बेशक मुसलमानों को आतंकवादी मार रहे हैं, उन्हें भी निशाना बना रहे हैं लेकिन अल्पसंख्यक का भय अलग होता है. उसके भय में यह भी शामिल होता है कि वह कम है या अकेला है. वह भरोसा केवल इससे नहीं बन जाता कि कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के साथ खड़े हैं. ऐसे लोग 90 में भी खड़े थे और मारे गए, आज भी खड़े हैं और मारे जा रहे हैं. पर आप यह बात हिन्दी प्रदेश के युवाओं को अब नहीं समझा सकते हैं. बेहतर है कि उनके भीतर की सांप्रदायिकता को आदर्श गुण घोषित कर दिया जाए. और इस सवाल पर लौटा जाए कि कितने दिनों से कश्मीरी पंडित सुरक्षित स्थानों पर भेजे जाने की बात कर रहे थे. क्यों नहीं पहल की गई, क्यों नहीं प्रशासन को संदेश भेजा गया कि कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है तो उसके मामले को तुरंत देखा जाए.
रजनी बाला के पति राजकुमार का बयान हैं कि उन्होंने कई बार शिक्षा अधिकारी से कहा कि पति-पत्नी का तबादला एक ही स्कूल में कर दिया जाए. रजनी बाला ने कहा था कि गोपालपोरा हाई स्कूल जाने में डर लगता है जहां वे पांच साल से पढ़ा रही थीं. लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. एक बार नहीं चार-चार बार इस बात की गुहार लगाई गई कि दोनों का तबादला किसी एक स्कूल में कर दिया जाए और रजनी बाला को गोपालपोरा स्कूल से हटा दिया जाए. तब मुख्य शिक्षा अधिकारी मोहम्मद अशरफ राथर ने उनकी अपील नहीं सुनी और ठुकरा दी. दोनों ने यही अपील कुलगाम के ज़िला उपायुक्त से भी की तब डा. बिलाल मोहिउद्दीन ने भरोसा दिलाया कि यह मसला विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं का है, आप लोग इतनी देर से यहां नौकरी कर रहे हो, आपको कोई कुछ नहीं बोलेगा.
राहुल भट्ट की भी हत्या हुई तो अमरीन भट्ट की भी हत्या हुई. रजनी बाला की हत्या हुई तो सैफुल्ला क़ादरी की भी हत्या हुई. पिछले साल आतंकवादियों ने जम्मू कश्मीर पुलिस के 21 जवानों की हत्या की है. प्रवासी मज़दूरों की भी हत्याओं का सिलसिला नहीं थम रहा है. 2014 में बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि वह घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी कराएगी, 2019 के घोषणा पत्र में इसे दोहराया गया था.
लेकिन आठ साल बाद ये तस्वीरें बता रही हैं कि घोषणापत्र का वादा पूरा नहीं हुआ है बल्कि उल्टा पलायन शुरू हो गया है. ऐसे तो घोषणापत्र पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से आए शरणार्थियों की समस्या के समाधान की बात कही गई है, लेकिन अब तो सबसे पहले यही देखना है कि पलायन कर रहे कश्मीरी पंडितों से मिलने में प्रधानमंत्री मोदी कितना वक्त लगाते हैं, जनवरी 2014 में गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने कश्मीरी पंडितों से मिलकर उनका दुख दर्द समझा था. क्या इस बार घाटी से लौट रहे कश्मीरी पंडितों से प्रधानमंत्री मोदी मुलाकात करेंगे? गृह मंत्री अमित शाह इन कश्मीरी पंडितों से मिलने कब जाते हैं, अब मीडिया में ऐसी बातों की आलोचना कम होती है कि जिस रात घाटी से कश्मीरी पंडित पलायन के लिए सामान बांध रहे थे, उस रात गृहमंत्री दिल्ली में सिनेमा देख रहे थे. अगर यही काम राहुल गांधी ने किया होता तो सारा कवरेज इसी पर होता. लेकिन हम यह भी बताना ज़रूरी समझते हैं कि गुरुवार के दिन अमित शाह ने केवल फिल्म नहीं देखी, सुरक्षा सलाहकार के साथ कश्मीर के मसले पर चर्चा भी की. लेकिन अब सवालों की व्यवस्था बदल गई है, अमित शाह का फिल्म देखना कोई बड़ी बात नहीं.
क्या आप जानते हैं कि कश्मीर को लेकर लोकसभा और राज्यसभा में कौन ज़्यादा सवाल करता है? राज्यसभा में शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी, कांग्रेस के दिग्विजय सिंह, छाया वर्मा, समाजवादी पार्टी के सुखराम यादव और लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस की माला रॉय ने कश्मीरी पंडितों को लेकर सवाल किए हैं. 2014 से 2019 के बीच लोकसभा में कश्मीरी पंडित को लेकर 7 सवाल पूछे गए थे लेकिन 2019 के बाद लोकसभा की साइट पर कश्मीरी पंडित सर्च करने पर दो ही सवाल आ रहे हैं. हमें यकीन नहीं हो रहा है कि 2019 से लोकसभा में कश्मीरी पंडित को लेकर दो ही सवाल किए गए होंगे. अगर हमसे कोई चूक नहीं हुई है तो एक सवाल फारुक अब्दुल्ला ने किया है और एक माला रॉय ने. राज्यसभा में कश्मीरी पंडित सर्च करने पर 2019 से 2022 के बीच 11 पूछे गए हैं.
समस्या यही है, कश्मीर की समस्या को भाषण की समस्या मान लिया गया है. भाषण में ही सब समाधान हो जाता है और ताली बज जाती है. उधर रजनीबाला, राहुल भट्ट या अमरीन भट्ट से लेकर सैफुल्ला कादरी पर गोली चल जाती है. सरकार ने संसद में जो आंकड़े दिए हैं उससे पता चलता है कि जम्मू कश्मीर में आतंकी हमलों में 2018 की तुलना में 2019 में भारी कमी आई थी लेकिन 2019 से आगे के आंकड़े बताते हैं कि आतंकी हमलों की संख्याबहुत ऊपर नीचे नहीं हो रही है.
आतंकवादी कहां से आ रहे हैं, बाहर से या भीतर से? इस पर सरकार को आफ रिकॉर्ड के रास्ते से नहीं, ऑन रिकार्ड के रास्ते बताना चाहिए. कश्मीर फिर से असुरक्षित हो रहा है. राज्य में विधानसभा बहाल नहीं हुई है. राज्य का दर्जा बहाल करने का भी वादा है, उसके बगैर जवाबदेही के जितने भी सवाल हैं, केंद्र सरकार की तरफ उठते हैं. बशर्ते की विस्तार से जवाब आए.