This Article is From Nov 09, 2021

देश को महंगा न पड़े महंगाई का यह विमर्श

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Priyadarshan

दिवाली की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज़ कम करके लोगों को दिवाली की सौगात दे डाली. पेट्रोल पांच रुपये और डीज़ल दस रुपये सस्ता कर दिया. उसकी देखादेखी कुछ राज्यों ने भी वैट घटाया. लेकिन इस सौगात के बावजूद ज़्यादातर शहरों में पेट्रोल 100 रुपये के पार बिक रहा है. जिस शाम पेट्रोल-डीज़ल सस्ते होने की ख़बर आई, उस शाम एनडीटीवी इंडिया के हमारे सहयोगी सुनील सिंह एक पेट्रोल पंप पर जा पहुंचे. उन्होंने वहां पेट्रोल भरा रहे लोगों से पूछा कि उन्हें इस कटौती से कितनी राहत मिली है? लगभग सबने बताया कि पेट्रोल 115 रुपये लीटर है, अब 110 रुपये का हो जाएगा, लेकिन यह 100 रुपये लीटर हो जाता तो सचमुच राहत होती.

तो यह हिंदुस्तान में महंगाई का 'न्यू नॉर्मल' है. लोग अब सौ रुपये लीटर तक पेट्रोल के दाम पर संतोष करने को तैयार हो गए हैं. यह ‘न्यू नॉर्मल' उन लोगों ने बनाया है जो कल तक 35 रुपये लीटर पेट्रोल-डीज़ल बेचने का दावा करके सत्ता में आए थे. ये वही लोग हैं जो पहले पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दामों पर चुटकुले बनाया करते थे, इसे प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की उम्र से जोड़ने का लगभग अभद्र मज़ाक करते थे. लेकिन वही लोग अब महंगाई की शिकायत करने वालों पर चुटकुले बना रहे हैं. वे बता रहे हैं कि देश बुलेट ट्रेन के लिए पैसे जुटा रहा है और ये आलू-गोभी के दाम पूछ रहे हैं. बीजेपी अब अपने लोगों को यह समझा रही है कि पेट्रोल के दाम बढ़ाना विकास के लिए ज़रूरी है. सीधा और मोटा तर्क है- ज़्यादा टैक्स आएगा तो सरकार के पास ज़्यादा पैसा आएगा. ज़्यादा पैसा आएगा तो सरकार विकास के लिए ज़्यादा पैसे ख़र्च कर सकेगी.

सरकार के पास कितना पैसा आ रहा है, यह पता नहीं. लेकिन लोगों की जेब कटने की हालत है. और गरीबों को तो पेट काट कर रहना पड़ रहा है. पिछले दिनों गोभी 120 रुपये किलो तक बिकी है. टमाटर-प्याज़ का न्यू नॉर्मल साठ रुपये किलो के आसपास का है. जिनका काम नून-तेल से चल जाता था, वे अब पा रहे हैं कि सरसों तेल ढाई सौ रुपये लीटर तक पहुंच गया है.

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संकट यह है कि आप यह सब लिखें तो मोदी विरोधी मान लिए जाएंगे. यह आरोप लगेगा कि आपको ग़रीबों की फ़िक्र नहीं है, आप बस मोदी जी के विरोध के लिए ग़रीबों को याद कर रहे हैं.

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चलिए मान लिया. हम पाखंडी लोग हैं. आपके मुताबिक लुटियन्स गैंग या खान मार्केट गैंग के समर्थक हैं. लेकिन आप तो ग़रीबों की फ़िक्र कीजिए. किसी को तो उनकी फ़िक्र करनी होगी? यह देखना होगा कि उनकी थाली में कम से कम रोटी-दाल, सब्ज़ी पहुंचती रहे. उनके घर का चूल्हा जलता रहे. कोई तो इस बात की सुध लेगा कि लॉकडाउन के बाद दर-बदर भटकने वाले मज़दूरों के परिवारों के बच्चे अब स्कूल छोड़ कर सड़कों पर भटक रहे हैं और भीख मांगने की कला सीख रहे हैं.

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लेकिन सरकार के समर्थन में और महंगाई के पक्ष में बेशर्मी से चुटकुले गढ़ रहा भारत का उच्च मध्य वर्ग जैसे ख़ुद एक चुटकुला हो गया है. उसने एक विचारधारा के समर्थन से ख़ुद को इस तरह जोड़ लिया है कि उसे वास्तविक संकट भी नहीं चुभ रहे. उसे न बेरोज़गारी डरा रही है, न महंगाई सता रही है, न शिक्षा और स्वास्थ्य के बिल्कुल लचर हो चुके बुनियादी ढांचे की सच्चाई हिला रही है. सच तो यह है कि इन वर्षों में उसने पैसा भी मोटा कमा लिया है और खाल भी मोटी कर ली है. अब बहुत सारी चिंताएं करने की ज़रूरत उसे नहीं है. लेकिन यह बहुत छोटा सा भारत है. जो बड़ा भारत है, वह इसी अव्यवस्था और असुरक्षा में जीता है जिसे वह देखने को तैयार नहीं है. जब कोरोना की दूसरी लहर जैसी कोई मारक घड़ी आती है तो रोज़ ईमानदारी का जाप करने वाला यही छोटा सा तबका लाख रुपये ब्लैक में ऑक्सीजन सिलिंडर और रेमडिसिविर जुटाता है और बाक़ी को सड़क पर मरने के लिए छोड़ जाता है. इसी कोरोना काल में हमने ऐसी रेजिडेंट्स वेलफेयर सोसाइटी देखीं जो अपने लोगों के लिए बेड और ऑक्सीजन जुटा कर रख रही थीं और ऐसे अमीरों के बारे में भी सुना जो कोरोना के अंदेशे में पहले से अस्पतालों में बिस्तर बुक करा कर बैठे हुए थे. उस दूसरी लहर ने बताया कि हमारी सेहत का बुनियादी ढांचा कितना लचर है. लेकिन उसके बीतने के बाद सरकार स्वास्थ्य पर नहीं, दीए जलाने पर पैसे खर्च कर रही है. इस दौरान उसने सांप्रदायिकता की जो नई हवा बनाई है, उसने बहुत बड़ी आबादी को अपने नशे में ले लिया है और यह मार्क्स द्वारा बताई गई धर्म वाली अफीम से भी ज़्यादा ख़तरनाक है. इस सांप्रदायिकता को धार्मिकता से कोई मतलब नहीं है. उसके लिए धार्मिक पहचान का मतलब अपने लिए एक अवैध सत्ता और बल का निर्माण भर है जो तरह-तरह के संगठनों और कृत्यों में नज़र आ रहा है.

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बहरहाल, बीजेपी की इस मूल स्थापना पर लौटें कि सरकार ज्यादा टैक्स लेगी तो उसके पास विकास के लिए ज़्यादा पैसे आएंगे. यह विकास कहां हो रहा है? दिलचस्प यही है कि विकास के नाम पर ही पैसे जुटाने के लिए सरकारी संसाधन औने-पौने दामों पर बेचे जा रहे हैं. विकास अब बड़ी पूंजी की जेब में है. कोई हवाई अड्डे संवार रहा है, कोई रेलवे स्टेशन, कोई प्लैटफॉर्म देख रहा है, कोई रेलें चला रहा है, कोई सड़कों पर पुल बनवा रहा है और कोई बिजली बना-बांट रहा है. शिक्षा और स्वास्थ्य पहले ही इस बड़ी पूंजी के हवाले कर दिए गए हैं.

डीज़ल-पेट्रोल के बढ़ते दामों और विकास के बीच कोई संबंध होता तो यूपीए के समय देश को बहुत पीछे चले जाना चाहिए था. क्योंकि जब कच्चा तेल 112 डॉलर बैरक तक चला गया था तब भी भारत में डीज़ल-पेट्रोल अस्सी पार नहीं हुए थे. लेकिन हम पा रहे हैं कि विकास के लगभग सभी पैमानों पर यूपीए के दौर में जो रफ़्तार रही, एनडीए उसे हासिल करने में विफल रहा है. इसमें कोरोना काल को छोड़ दें तब भी विकास की रफ़्तार यही निकलती है. उल्टे हम पाते हैं कि सामाजिक-शासकीय मोर्चे पर मनमोहन सिंह के दस सालों में जैसे नीतिगत फ़ैसले हुए, उनकी अब आठ साल को छूने जा रहे इस दौर में बराबरी नहीं दिखती. मनरेगा- यानी रोज़गार गारंटी, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भूमि अधिग्रहण क़ानून दरअसल वे बड़े बदलाव थे जिन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए काफ़ी कुछ बदल दिया. मोदी सरकार की आयुष्मान योजना को इस कड़ी में बेशक एक माना जा सकता है, लेकिन इसके अलावा उसकी कोई ऐसी बड़ी पहल नहीं दिखती जिसे देर तक याद रखा जा सके. उल्टे उसने पांच साल जिस जीएसटी का विरोध किया, उसको रातों-रात लागू करने की हड़बडी ने एक ज़रूरी योजना को अरसे तक कारोबारियों का दु:स्वप्न बना डाला. इसी तरह नोटबंदी वह फैसला है जिसे बीजेपी खुद भूल जाना चाहती है.

महंगाई बढ़ने का विकास के बुनियादी ढांचे के विकास से कोई संबंध नहीं है. जो अर्थशास्त्री यह पाठ पढ़ा रहे हैं, उनसे पूछना चाहिए कि फिर वे अरसे तक महंगाई को समस्या क्यों मानते रहे. बीजेपी से भी पूछना चाहिए कि महंगाई को लेकर उसका नज़रिया अचानक क्यों बदल गया है. क्या पहले उसको विकास की समझ नहीं थी या अब राजनीति की ज़्यादा समझ आ गई है?

लेकिन यह सवाल पूछे कौन. सब यह समझाने में लगे हैं कि महंगाई अच्छी चीज़ है, सौ के ऊपर बिकता पेट्रोल आम लोगों का सौभाग्य है.

बहरहाल, एक ज़रूरी मुद्दे का यह बदनीयत भाष्य देश को बहुत महंगा न पड़े.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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