रील और रियल के बीच फंसी जिंदगी

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Abhishek Sharma

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों के बीच एक बात कही, रील देखने बैठो तो पता ही नहीं लगता कि कितना वक्त निकल गया. बात बच्चों के लिए थी लेकिन इस पर चर्चा बड़ों के बीच होने लगी. चर्चा की दो बड़ी वजह थीं. पहली तो ये कि रील देखने वालों की जितनी भी तादाद है उसको ये बात सही लगी. आप किसी भी परिवार में चले जाएं, कम उम्र के नौजवान या तो आपको स्वैप करते दिखेंगे या फिर रील पर चर्चा करते हुये. बड़ों की भी जब बातें खत्म होने लगती हैं तो वो रील पर चले जाते हैं.

कई बार तो आलम ये होता है कि बीच बात में ही रील चलने लगती है. समाज का एक बड़ा तबका ऐसी जगह पहुंच रहा है जहां उसका जीवन रील के बिना अधूरा लगता है. ये रील यूजर्स हैं. 

रील से जुड़े लोग आपको दुनिया जहान में किसी भी जगह ये बनाते हुये दिख जाएंगे. मुंबई में किसी जगह आग लगी हो या दिल्ली में किसी ट्रैफिक लाइट पर कुछ अलबेला हो, रील वाले वहां मौजूद मिलेंगे. फटाफट शोहरत का ये सबसे सस्ता माध्यम यही है. रील टिकटा्ॅक की राह पर है. जो लोग रील बना रहे हैं वो कभी टिकटाॅक से फेमस होने की चाह रखते थे. इसमें कोई शक नहीं है रील ने नये लोगों को मौका दिया है . जो कल तक मनोरंजन नहीं माना जाता था रील ने उसकी परिभाषा भी बदली है. यहां सब चलता है. 

एक स्टडी बता रही है कि रील के सबसे बड़े उपभोक्ता तेजी से ग्रामीण इलाकों में बढ़ रहे हैं. दुनिया में अब सबसे ज्यादा रील के उपभोक्ता भारत में ही हैं. मेटा की आधिकारिक रिपोर्ट कह रही है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम पर हर दिन 200 बिलियन वीडियो चल रहे हैं. भारत में अब 24 करोड़ इंस्टाग्राम यूजर्स हैं. यानी दुनिया में सबसे ज्यादा. ये संख्या एक किस्म से डराने वाली भी है क्योंकि सस्ते इंटरनेट और वक्त ने ग्रामीण इलाकों में इस नये मनोरंजन की 'लत' बढ़ाई है.

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मनोरंजन की ये 'लत 'भी दो किस्म से काम कर रही है. एक वो लोग हैं जो जिन्हें ग्रामीण इलाकों में लगता है कि टिकटाॅक के इस नये अवतार से जल्द से जल्द मशहूर हुआ जा सकता है. वो तमाम लोग अब यहां किस्मत आजमा रहे हैं.

कटेंट में वो सब कुछ है जो कई बार कल्पनाओं के परे होता है. पारिवारिक विवादों की रील बन रही हैं, घर की लड़ाई अब रील पर है. घर के कलेश अब हर मोबाइल पर चल रहे हैं. इनके व्यूज़ अब लाखों- करोड़ों में है. दर्शकों की इस संख्या ने इस किस्म के कटेंट की मांग को बढ़ा दिया है. देश के कस्बों और गांवों में जिस टिकटाॅक की सबसे ज्यादा तूती बोलती थी अब रील वहां राज कर रही है. हर किस्म का मनोरंजन यहां स्वीकार्य है इसलिये फर्क नहीं पड़ता कि आप में हुनर कितना है. 

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एक स्टडी कह रही है कि ग्रामीण भारत में रील देखने वालों की संख्या सालाना 12 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है. लेकिन उससे भी बड़ी खबर ये है कि प्रति इंटरनेट यूजर अब रील को ज्यादा वक्त दे रहा है. रील की एल्गोरिदम अब ऐसी है कि अगर आपको घर की लड़ाई देखने का शौक लग गया है तो आपके मोबाइल पर इसी किस्म के कंटेट आते रहेंगे. ये कंटेट आपको कुछ इस किस्म से गिरफ्त में लेगा कि आपको पता ही नहीं लगेगा कि कितना वक्त छू मंतर हो गया. 

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रील अब आपकी जिंदगी को खतरे में भी डाल रही है. जो लोग रील खतरनाक जगहों पर बना रहे हैं उनकी कहानी को एक तरफ रख दें तो मुंबई में दो बड़ी खबरें सिर्फ रील से जुड़ी हुईं थी. मुंबई में एक ऑटो वाला रील देखते देखते ड्राइविंग कर रहा था जिससे 2 साल के बच्चे की जान चली गई. दूसरा केस भी इसी किस्म की दुर्घटना से जुड़ा हुआ है. मुंबई में सार्वजनिक वाहन चलाने वाले जो लोग 40-45 साल से कम के हैं वो अब ट्रैफिक लाइट पर भी रील देख रहे हैं.

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मेट्रो के अंदर रील बनाने वालों की तो कैटेगरी ही अलग है. रील बनाने के लिये मेट्रो के अंदर पहले से ही फिक्स लड़ाई तक की जा रही है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगो का मनोरंजन किया जा सके.

रील और इंटरनेट कंटेट में ऐसा बहुत कुछ है जो सामाजिक बुराईयों को सामान्य कर रहा है. महिलाओं या लड़कियों की पिटाई, फब्ती कसना या फिर धार्मिक उन्माद ऐसा बहुत कुछ है जिसका आप उपभोग किये जा रहे हैं, ये समझे बिना कि इसके दूरगामी परिणाम आपके जीवन पर भी हो सकते हैं. रील के लिये सड़कों पर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे हम अब सामान्य मानने लगे हैं. 

इंटरनेट अब एक बड़ी आबादी को 'रैबिट होल' में ले जा रहा है. जहां गैर जरूरी जानकारियों, वीडियो के वेब में कामकाजी जनता फंसती जा रही है. इंटरनेट के इस मायाजाल से समाज को आगाह करने वाला कोई सिस्टम ही नहीं है. स्कूल- कालेज में ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं दी जा रही है जहां ये बताया जा सके कि इस मायाजाल से समय की बर्बादी कैसे रोकें.

मोबाइल फोन में डिजिटल वेल वींग जरूर एक विकल्प है जो बताता रहता है कि आपने किस ऐप पर कितना वक्त बिताया. कई बार ये आंकडे आपको चौंका देंगे. रील देखने वालों की दुनिया में ऐसा कोई संदेश नहीं बढ़ाया जा रहा है जिससे ये समझाया जा सके कि वक्त आपका सबसे बड़ा संसाधन है. उसकी कीमत पर जो भी किया जाएगा उससे बड़े नुकसान होंगे. 

अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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