ओलम्पिक गेम्स के नतीजों में छुपे हैं सफल जीवन के कई सुनहरे सूत्र

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Amaresh Saurabh

पेरिस में आयोजित ओलम्पिक गेम्स ने देश-दुनिया का भरपूर मनोरंजन किया. हमारे हिस्से भी 6 मेडल आए, लेकिन इस तरह के खेल-आयोजनों को सिर्फ़ मेडल पाने या अवसर गंवाने के नज़रिये से देखना सही नहीं होगा. खेल और इनके नतीजे हर किसी के लिए कुछ बड़े सबक छोड़ जाते हैं, और यहां कुछ वैसे ही सुनहरे सूत्रों को समेटने की कोशिश की गई है.

100 ग्राम का सवाल

हम भारतीयों को लंबे अरसे तक इस बात का अफसोस रहेगा कि विनेश फोगाट गोल्ड या सिल्वर जीतते-जीतते रह गईं. इसके बावजूद, वह हमारी नज़रों में आज भी चैम्पियन हैं और हमेशा रहेंगी. जहां तक खेल के नतीजों का सवाल है, वे भावनाओं से तय नहीं होते. दूसरी कई स्पर्धाओं में भी ऐसा ही देखा जाता है.

क्रिकेट में कई बार बॉल विकेट को छूकर निकल जाती है, लेकिन गिल्ली गिर नहीं पाती. लॉलीपॉप सरीखे दिखने वाले कैच भी छूट जाते हैं. स्टम्प उखड़ जाते हैं, लेकिन सिर्फ़ एकाध इंच के फर्क से कोई बॉल 'नो बॉल' हो जाती है. क्या ऐसी स्थिति में गेंदबाज़ को सहानुभूति के आधार पर विकेट मिल जाता है? नहीं. रनआउट के ऐसे बेहद करीबी मामले अक्सर दिख जाते हैं, जिनसे पूरी बाज़ी पलट जाती है. इसी तरह, सब कुछ नियमों से बंधा है. कई परीक्षाओं में एक-एक अंक से हज़ारों प्रतियोगियों की किस्मत तय होती है. सिर्फ़ एक वोट के अंतर से चुनावी नतीजे बदल जाते हैं.

सूत्र यही है कि कोई प्रतियोगिता हो या दूसरी स्पर्धा, इसमें शामिल होकर हम इनकी शर्तों को स्वीकार करते हैं. इसके बाद नियम ही हमें बांधते हैं, हम नियमों को नहीं बांधते. नियम सर्वोच्च हो जाते हैं, भावनाएं गौण. इस बात को पेरिस की 100 मीटर फर्राटा रेस के नतीजे से भी समझा जा सकता है.

जो जीता, वही सिकंदर

पेरिस ओलम्पिक में पुरुषों की 100 मीटर की रेस बड़ी दिलचस्प रही. ऐसा पहली बार हुआ कि फाइनल में सभी 8 धावकों ने दौड़ पूरी करने में 10 सेकंड से कम वक्त लिया. दुनिया के सबसे तेज़ धावक का खिताब नोआ लायल्स को मिला, जिन्होंने 9.79 सेकंड का वक्त लिया. मज़ेदार बात यह कि फ़िनिश लाइन पर पैर सबसे पहले जमैका के किशेन थॉम्पसन (9.79 सेकंड) का पड़ता दिख रहा है, लेकिन उन्हें सिल्वर से ही संतोष करना पड़ा. क्यों?

सिर्फ़ इसलिए कि नियम कहता है कि विजेता का फैसला धावक के पैर देखकर नहीं, बल्कि धड़ पार करने के आधार पर होता है. फ़ोटो फ़िनिश के नतीजे से किशेन थॉम्पसन 0.005 सेकंड के बेहद मामूली अंतर से दूसरे स्थान पर खिसक गए. खास बात यह कि गोल्ड जीतने वाले लायल्स आधी दूरी तक 7वें नंबर पर चल रहे थे. यहां तक कि वे 90 मीटर तक थॉम्पसन से पीछे ही चल रहे थे.

सिल्वर विजेता थॉम्पसन 30 मीटर से लेकर 90 मीटर तक पहले स्थान पर बने रहे, लेकिन अंतिम परिणाम क्या हुआ, सबको मालूम है. हमारे यहां अब तक बच्चों को खरगोश और कछुए की दौड़ की कहानी सुनाई जाती रही है, लेकिन अब पेरिस वाली इस दौड़ को भी सिलेबस में शामिल करने का वक्त आ गया है. अब 8-8 धावकों के करीब-करीब साथ-साथ फ़िनिश लाइन क्रॉस करने की कहानी सुनाई जानी चाहिए.

सबक यही है कि चाहे खेल-कूद हो, पढ़ाई-लिखाई या बिज़नेस-व्यापार, एक खास रणनीति बनाकर आगे बढ़ना ज़रूरी होता है. शुरुआत में पूरी ताकत झोंक देने भर से सफलता तय नहीं हो जाती. इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि आधे सफर तक कौन आगे रहा. दूसरों को आगे देख निराश या हताश होने की जगह, अंत-अंत तक हौसला बनाए रखने का जज़्बा ही हमें मंज़िल तक पहुंचा सकता है.

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डर के आगे...

दुनिया के सबसे तेज़ धावक नोआ लायल्स की सेहत के बारे में क्या अनुमान लगाया जा सकता है? यही कि वह सेहत के हर पैमाने पर एकदम फिट होंगे. लेकिन लायल्स ने सोशल मीडिया पर खुद बता दिया कि वह अस्थमा, एलर्जी, डिसलेक्सिया, बेचैनी और डिप्रेशन के शिकार हैं. उन्होंने जो सुनहरा सूत्र दिया, वह गौर करने लायक है. वह कहते हैं, "आपके पास क्या है, इससे यह तय नहीं होता कि आप क्या बन सकते हैं... आप ऐसा क्यों नहीं कर सकते...!"

अमेरिकी जिमनास्ट सिमोन बाइल्स टोक्यो ओलम्पिक के दौरान मानसिक सेहत से जुड़ी समस्या से परेशान थीं, लेकिन पेरिस में दमदार वापसी करते हुए वह 3 गोल्ड और 1 सिल्वर जीतने में सफल रहीं. वह कहती हैं, "अगर आप नाकामी से डरते हैं, तो आप कामयाबी पाने के लायक नहीं हैं..."

इन सबका निचोड़ यही है कि अगर हम अपनी मंज़िल का पीछा करना न छोड़ें, तो कोई बाधा हमें बांध नहीं सकती. कई बार सुनहरा भविष्य हमारा इंतज़ार कर रहा होता है, पर हम ही अपने दरवाज़े कसकर बंद किए बैठे होते हैं.

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फेंक, जहां तक भाला जाए...!

जैवलिन थ्रो में इस बार कमाल हो गया. नीरज चोपड़ा भारत के ऐसे पहले एथलीट बन गए, जिन्होंने लगातार दो ओलम्पिक में इंडिविजुअल स्पर्धा में पहले गोल्ड, फिर सिल्वर मेडल जीता. उन्होंने टोक्यो ओलम्पिक में 87.58 मीटर तक भाला फेंककर गोल्ड जीता था, जबकि पेरिस में 89.45 मीटर पर सिल्वर जीता. उन्होंने सीज़न का अपना बेस्ट परफॉर्मेंस दिया. यह दिखाता है कि उन्होंने कड़ी मेहनत के बूते प्रदर्शन में सुधार किया.

इसी स्पर्धा में गोल्ड जीतने वाले पाकिस्तान के अरशद नदीम ने 92.97 मीटर तक भाला फेंककर ओलम्पिक का नया रिकॉर्ड बना डाला. यही नदीम टोक्यो ओलम्पिक में पांचवें नंबर पर रहे थे. खास बात यह कि टोक्यो ओलम्पिक में जिस दूरी पर नीरज ने गोल्ड मेडल पाया था, पेरिस में 4 खिलाड़ियों के कुल 8 थ्रो उससे ज़्यादा दूर गए.

इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि फ़ील्ड चाहे कोई भी हो, कॉम्पिटीशन बेहद बढ़ता जा रहा है. कई लोगों को तो NEET UG का हालिया रिज़ल्ट याद आ गया होगा, जहां परफेक्ट मार्क्स हासिल करने वालों की तादाद दो-चार से बढ़कर इस साल अचानक 17 तक पहुंच गई! खैर, फ़ॉर्मूला यह है कि अपने प्रतिद्वंद्वी को अच्छा प्रदर्शन करने से रोकना हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पूरा फ़ोकस केवल अपने बेहतर प्रदर्शन पर होना चाहिए. माने - फेंक, जहां तक भाला जाए...!

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खेल की सरहद

क्रिकेट के मैदान पर भारत-पाकिस्तान की भिड़ंत अक्सर युद्ध जैसा उन्माद पैदा करने वाली होती है. इस ओलम्पिक में भी दोनों देशों के दिग्गज जैवलिन थ्रो के फ़ाइनल में पहुंचे थे. इस प्रतियोगिता के बाद नीरज चोपड़ा की मां के बयान की खूब चर्चा हुई. उन्होंने कहा, "हम बहुत खुश हैं... हमारे लिए तो सिल्वर भी गोल्ड के ही बराबर है... गोल्ड जीतने वाला (नदीम) भी हमारा ही लड़का है... मेहनत करता है..."

इसके बाद नदीम की मां का भी गर्मजोशी भरा बयान आया. उन्होंने कहा, "नीरज भी हमारे बच्चे जैसा है... मैं दुआ करूंगी कि वह और पदक जीते... खेल में जीत-हार होती है, लेकिन ये दोनों भाई हैं..."

खैर, यह तो हुई दो दोस्तों के परिवार के बीच सद्भाव की बात. लेकिन हमारे पुराने ग्रंथ इससे भी आगे की सीख देते हैं. 'महाभारत' की एक सूक्ति है - शत्रोरपि गुणा ग्राह्या दोषा वाच्या गुरोरपि. मतलब, चाहे शत्रु भी हो, पर उसके गुणों को ग्रहण करना चाहिए. चाहे गुरु ही क्यों न हों, जहां ज़रूरी लगे, उनके दोषों को भी प्रकट करने में हिचकना नहीं चाहिए.

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'सरपंच जी' की नसीहत

हमारी हॉकी टीम ने पेरिस में भी टोक्यो वाली सफलता दोहराकर सबका दिल जीत लिया. इस कामयाबी के बाद ब्रॉन्ज़ मेडलिस्ट कैप्टन हरमनप्रीत सिंह ने युवा वर्ग को जो नसीहत दी, उस पर हर किसी को गौर करना चाहिए. उन्होंने कहा, "हॉकी स्टिक उठाओ और इसे प्यार करो... यह आपको दोगुना प्यार करेगी... लेकिन मेहनत, टीम वर्क और अपना टारगेट बनाकर रखें... ईमानदारी के साथ चलें, तो ज़िन्दगी में सफलता ज़रूर मिलती है..."

देखा जाए, तो सिर्फ़ हॉकी नहीं, हर फ़ील्ड में कामयाबी का सुनहरा सूत्र यही है. आप चाहें, तो 'हॉकी' की जगह बैट, बॉल, रैकेट, किताब, पेन, कैनवस... कोई भी चीज़ रखकर देख सकते हैं.

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.