वह वाक्य जो फिसलकर गिर पड़ा... क्या सिर्फ हास्य था, या सदियों से चली आती किसी छिपी हुई सीढ़ी का चरमराना?

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अनुराग द्वारी

मध्यप्रदेश की विधानसभा का वह दिन, बाहर से बिल्कुल साधारण था, अंदर से नहीं. अंदर, भाषा से ज्यादा मानसिकता बोल रही थी. एक आदिवासी विधायक खड़ा था. अपने लोगों की पीड़ा लेकर, अपने क्षेत्र की बच्चियों के लिए कमरों की तंगी, भीड़भाड़, असुरक्षा की बात लेकर. वह साफ-सुथरी, भरोसेमंद हिंदी में सवाल पूछ रहे थे. वह हिंदी जो पुस्तकों से नहीं, अनुभव से आती है. जो गांव की आग, पगडंडी की धूल और संघर्ष की खामोशी में गढ़ी जाती है. उनकी आवाज में किसी आक्रोश का शोर नहीं था, बल्कि उस आदमी की सादगी थी जो अपनी समुदाय की बच्चियों के लिए जगह मांग रहा था. सिर्फ जगह, सिर टिकाने भर की जगह. लेकिन तभी याद आने लगा,  “लोकतंत्र का क्या है, एक दिन आएगा. जब हर आदमी को सिर्फ इतना ही पता होगा कि वह किसके खिलाफ है, और किसके साथ नहीं है.” उस दिन, सदन में यह तय हो गया कि शब्द किसके साथ थे और संरचना किसके खिलाफ.

मध्यप्रदेश विधानसभा का सत्र था. सवाल बालिकाओं के छात्रावास का था. भीड़भाड़, तंग कमरे, बच्चियों की सुरक्षा और उस दर्द की बात जिसे एक आदिवासी क्षेत्र का विधायक अपनी आवाज के भार और अपने अनुभव की धूल से उठाकर सदन के बीच रख रहा था. नारायण सिंह पट्टा, मंडला (बिछिया) सीट के विधायक, आदिवासी आरक्षित क्षेत्र से चुने हुए, सागर विश्वविद्यालय के स्नातक, साफ, रोशन, खनकती हुई हिंदी में सवाल पूछने वाले.

एक ऐसी भाषा, जो सदियों से सत्ता-समीकरणों के बीच अक्सर किनारों पर रखी जाती रही है, वह उस दिन सदन के बीच गूंज रही थी. कक्ष की हवा में एक अजीब-सी सच्चाई तैर रही थी, जब वंचित वर्ग का आदमी साफ बोलता है तो यह कई लोगों को चमत्कार जैसा लगता है. लेकिन फिर वह वाक्य आया, एक हल्की मुस्कान में लिपटी हुई सदियों की परत से सराबोर...

संसदीय कार्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय बोले, “नारायण सिंह पट्टा जी की मैं प्रशंसा करता हूं. वो जिस वर्ग से आते हैं, एक तो इतनी अच्छी हिंदी बोलते हैं और इतने अच्छे तरीके से प्रश्न पूछते हैं…” 

कहने वाले ने शायद गुड ह्यूमर में कहा होगा. हंसी में, हकारे में, या अभिभावक-भाव में, पर जिनके कान सुनते हैं, वे जानते हैं कि ये शब्द तारीफ नहीं होते, ये खूबसूरत पैकिंग में लिपटा अवचेतन अपमान होते हैं. भाषा में मिठास थी, स्वर में शिष्टता थी. लेकिन शब्द… शब्द अपने भीतर वही पुरानी खरोंच लेकर आए थे.

जिस वर्ग से आते हैं… यह वाक्य किसी रस्सी की तरह था. नरम, लेकिन गहरे में काट डालने वाला. जैसे सदियों की जमी धूल किसी के कंधे पर झटक दी गई हो. जैसे कहा जा रहा हो, “तुम जहां से आते हो, वहां से इस तरह बोलने की उम्मीद नहीं थी.”

अगर यह तारीफ थी, तो चुभन क्यों लगी? कम से कम मुझे. किसी भी आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग, या हाशिए पर पड़े समुदाय का आदमी जीवन भर मेहनत करके जब किसी मंच पर पहुंचता है, तो उसके लिए भाषा, ज्ञान और सार्वजनिक प्रस्तुति केवल कौशल नहीं होते, वे अस्तित्व का प्रमाण होते हैं.

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लेकिन जब कोई कहता है- “जिस वर्ग से आते हैं, आप इतनी अच्छी हिंदी बोलते हैं…” तो यह तारीफ के खोल में दिया गया वह तीर बन जाता है, जो कहता है... “हमने तुमसे इतने की अपेक्षा नहीं की थी.”

समस्या यह नहीं कि मंत्री ने तारीफ की, समस्या यह है कि हमें आज भी ऐसी तारीफ अच्छी लगती है. यह वही मानसिकता है, जिसे अक्सर समाज “स्वाभाविक” मान लेता है कि आदिवासी साफ हिंदी बोले तो आश्चर्य, दलित अधिकारी दक्षता दिखाए तो तारीफ, किसी वंचित वर्ग का व्यक्ति तार्किक सवाल पूछे तो यह "विशेष" बात लगे.

यह वही दृष्टि है, जिसमें बराबरी कागज पर तो है, लेकिन व्यवहार में एक अदृश्य सीढ़ी लगी रहती है. ऊपर-नीचे, ऊंच-नीच, “हम-तुम” की सीढ़ी. और इस सीढ़ी का चरमराना सिर्फ सदन में नहीं होता, यह चरमराहट स्कूलों में, अदालतों में, रिसेप्शन पर, इंटरव्यू में, हर जगह सुनाई देती है.

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असल बात यह है कि नारायण सिंह पट्टा ने उस दिन सिर्फ सवाल नहीं पूछा, उन्होंने अपने अस्तित्व का दावा भी रखा. वह सवाल,  भीड़भाड़ वाले छात्रावास का, बच्चियों की सुरक्षा का, प्रशासनिक लापरवाही का और न्याय का... उस दिन सदन में गूंजा. लेकिन उससे ज्यादा गूंजी, वह असहजता, जो सत्ता को अक्सर होती है. जब कोई उनसे प्रश्न पूछता है, और वह भी वह व्यक्ति जिसे वे सदियों से प्रश्नकर्ता नहीं, बल्कि “उत्तरदायी” समझते आए हैं.

क्या यह जातिगत मानसिकता थी? शायद हां... शायद नहीं. लेकिन यह इतना जरूर था कि शब्दों में छिपी परतों को महसूस करने वाला कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता. क्योंकि जब कोई कहता है, “आप जिस वर्ग से आते हैं…” तो उसके बाद आने वाले अच्छे शब्द, बात को मीठा जरूर कर देते हैं. पर उसकी मंशा में मौजूद खरोंच को मिटा नहीं पाते.

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यह वही जगह है, जहां हमारे समाज और राजनीति को आत्ममंथन की जरूरत है. सवाल यह नहीं कि विजयवर्गीय ने क्या कहा. सवाल यह है कि आज भी ऐसा कहना संभव क्यों है? क्यों आज भी किसी आदिवासी विधायक की अच्छी हिंदी “ध्यान देने योग्य घटना” है? क्यों उसके सवाल पूछने को “विशेष” बताया जाता है? क्यों हम उन वर्गों को आज भी यह जताते हैं कि वे यहां “सहज रूप से” नहीं आते, बल्कि “अपवाद” की तरह आते हैं? जब तक यह सवाल हमारे भीतर चुभता नहीं, तब तक भाषा कितनी भी साफ हो, सदन कितना भी लोकतांत्रिक हो, हमारी सोच में बराबरी नहीं आएगी.

हो सकता है मंत्री जी ने यह बात हंसी में कही हो, हो सकता है कोई बुरा इरादा न हो. पर बात इरादे की नहीं, उस मिट्टी की है जिससे ऐसे वाक्य उगते हैं. और जब ऐसे वाक्य सदन में बोल दिए जाते हैं, जहां कानून बनते हैं, बराबरी का वादा दोहराया जाता है, तो यह हमें याद दिलाते हैं कि हमें अभी बहुत दूर जाना है.

नारायण सिंह पट्टा की भाषा, उनके सवाल, उनकी दृढ़ता, उनका अस्तित्व... उस दूरी को कम करने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं. और शायद इसलिए ऐसे वाक्यों पर चर्चा जरूरी है ताकि भविष्य में कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ग से आकर अपनी मातृभाषा, अपने प्रश्न, अपनी गरिमा, बिना किसी “विशेष” चश्मे से देखे जाने के डर के सदन में रख सके.

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हर आदमी की दो मौतें होती हैं. एक जब वह सच को देखता है, और दूसरी जब सच उसे देख लेता है. आज सच ने सदन को देख लिया. तारीफ तब तक तारीफ नहीं होती, जब तक उसमें बराबरी का स्पर्श न हो. जो तारीफ बनकर आए, लेकिन “तुम जिस वर्ग से आते हो…” की सीढ़ी साथ लाए. वह तारीफ नहीं, तुम्हारे पांवों के नीचे बिछाई गई एक अदृश्य रेखा होती है.

लेखक परिचयः अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में स्‍थानीय संपादक (न्यूज़) हैं...

(अस्वीकरण: ये लेखक के निजी विचार है. इससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.)