सेक्युलर दलों से नाराज क्यों हैं मुसलमान?

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Saiyed Zegham Murtaza

हाल के दिनों में घटी कुछ घटनाएं इशारा कर रही हैं कि अल्पसंख्यकों,खासकर मुसलमानों का सेक्युलर राजनीति करने वाले दलों से फिर मोहभंग हो रहा है.इस नाराजगी का अभी किसी जमात या संगठन ने खुलकर ऐलान नहीं किया है. भारतीय मुसलमान अपने घटते राजनीतिक प्रतिनिधित्व,पहचान से जुड़े मुद्दों की अनदेखी और उनके खिलाफ जारी हिंसा पर चुप्पी से नाराज हैं.सोशल मीडिया और सामाजिक कार्यक्रमों आदि में इसको लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं. लेकिन इस नाराजगी को दूर करने की कोशिश करता कोई दल नजर नहीं आ रहा है. 

बीजेपी के पक्ष में माहौल और विपक्ष

अभी कुछ महीने पहले ही जब देश में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आंधी जैसा माहौल था. सत्ता ही नहीं विपक्षी दलों के समर्थक भी मानकर चल रहे थे कि लोकसभा चुनाव-2024 में बीजेपी का नारा 'अबकी बार चार सौ पार' सच होने जा रहा है.लेकिन चुनाव आते-आते माहौल बदल गया.बीजेपी अकेले बहुमत नहीं हासिल कर पाई. उसे एनडीए की सरकार बनानी पड़ी.वहीं दूसरी तरफ इस चुनाव में विपक्ष सशक्त होकर उभरा.लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस सौ सीटों के आंकड़े के पास पहुंच गई.कांग्रेस नेता राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष बन गए.उत्तर प्रदेश में  हाशिए पर पड़ी समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीतकर लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई.विपक्ष की इस सफलता में मुसलमान मतदाताओं की अहम भूमिका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है.उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बिहार,पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पंजाब और महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन को मिली सफलता में उसे मुसलमान वोटरों का साथ मिला.

कांग्रेस समेत समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दलों का समर्थन करने के पीछे मुसलमानों के पास तीन वजहें थीं.पहली सुरक्षा, दूसरी मुख्यधारा में वापसी और तीसरी सामुदायिक विकास.सवाल यह उठ रहा है कि क्या मुसलमान इन तीनों लक्ष्यों को हासिल कर पाए हैं? इस बात से इनकार नहीं है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष की बढ़ी ताकत का फायदा दलित और दूसरे वंचित तबकों के साथ-साथ कुछ हद तक मुसलमानों को भी हुआ है.अब से कुछ महीना पहले तक यह सोच पाना भी असंभव था कि लोकसभा में पेश कोई विधेयक विचार-विमर्श के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जाएगा.लेकिन बहुमत के अभाव में सरकार को झुकना पड़ा.सरकार ने वक्फ संशोधन बिल को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा.इसी तरह सरकार ने एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू न करने का आश्वासन दिया और सिंधुदुर्ग में शिवाजी की 35 फीट ऊंची प्रतिमा गिरने पर प्रधानमंत्री ने माफी मांग ली है.लेकिन इससे भला मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक समूहों का क्या लाभ?

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मुसलमानों के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

अल्पसंख्यकों खासकर ईसाई,सिख और मुसलमानों के सामने बराबरी, सुरक्षा और न्याय सबसे बड़े मुद्दे रहे हैं. इनमें भी मुसलमान लगातार निशाने पर हैं तो उनकी चिंताएं अधिक हैं.देश में मॉब लिंचिंग के मामले थम नहीं रहे हैं. हाल ही में ट्रेन में बीफ ले जाने के संदेह में एक बुजुर्ग की पिटाई और हरियाणा में कचरा बीनने वाले एक युवक की पीट-पीटकर हत्या हुई है. अपनी धार्मिक पहचान के साथ यात्रा करना,बहुसंख्यक बहुल बस्तियों से गुजरना और अपनी धार्मिक जिम्मेदारियों को पूरा कर पाना आम मुसलमान के लिए दूभर होता जा रहा है. हिजाब, दाढ़ी, टोपी, कुर्ता-पायजामा, बुर्का कब किसको आहत कर दें या कब किसे हमले के लिए उकसा दें, कोई नहीं जानता. हालांकि अपने नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराना और संवैधानिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है.लेकिन अगर तंत्र कमजोर पड़ रहा है तो इन मुद्दों को उठाना, सरकार को जागरूक करना और लोगों के बीच सुरक्षा का वातावरण तैयार करने की जिम्मेदारी से विपक्षी दल भी बच नहीं सकते है.आखिर उन्हें इसीलिए वोट मिला है.

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मुसलमानों की नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यही है. मुसलमान संगठनों और समाज के जिम्मेदार लोगों का दावा है कि कांग्रेस समेत कोई भी दल उनके मुद्दों पर जबान खोलने को तैयार नहीं है.कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे तक अपने बयान में मुसलमान शब्द इस्तेमाल करने से डरते हैं.इसके बदले वह अक्सर अल्पसंख्यक शब्द लिखते हैं, भले ही मामला केवल मुसलमानों को प्रभावित करने वाला हो. इसी तरह मुसलमानों से जुड़े सवालों पर तमाम दल चुप्पी साध जाते हैं.मुसलमान संसद-विधानसभाओं में अपने घटते प्रतिनिधित्व के अलावा इस बात से भी चिंतित हैं कि राजनीतिक दलों के संगठनों और नामित पदों में भी उनकी अनदेखी की जा रही है.चुनाव में टिकट के मसले पर यह सोचकर सब्र किया जा सकता है कि इससे ध्रुवीकरण होगा,लेकिन पार्टी संगठन,नामित पदों,नगर निकाय,प्राधिकरण,विधान परिषद, राज्य सभा के अलावा तमाम राज्यों में सलाहकार समितियां नामित होती हैं, उनमें से मुसलमान धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं.यह माना जा सकता है कि यह बीजेपी की नीति में शामिल है,लेकिन बाकी दलों में भी मुसलमान अछूत हो जाएंगे तो फिर उनके पास क्या ही चारा बचेगा?

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मुसलमानों ने किसे दी तरजीह

मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन के समर्थन में एमआईएम समेत हर दूसरी पार्टी के उम्मीदवारों की अनदेखी की. कुछ जगह छोड़कर मुसलमानों ने मुसलमान उम्मीदवारों पर गैर-मुस्लिम सेक्युलर उम्मीदवारों को तरजीह दी. इसका फर्क पड़ा और कई नजदीकी मुकाबले वाली सीटें विपक्षी गठबंधन के हिस्से में आईं.इसका एक दूसरा पहलू भी है. लगातार अनदेखी, अपने मुद्दों पर विमुखता और राजनीतिक अछूत बना दिए जाने से नाराज मुसलमानों के एक तबके ने समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरजेडी के उम्मीदवारों की अनदेखी की.वो या तो वोट डालने ही नहीं गए या फिर बीएसपी, आरएलडी, जेडीयू, टीआरएस, टीडीपी और वाईएसआरसीपी को वोट डाल आए. इसका सीधा असर मेरठ, अमरोहा, बिजनौर, अलीगढ़, फूलपुर, चंडीगढ़, जयपुर ग्रामीण, महबूबनगर, शिवहर, अररिया, सारण समेत करीब दो दर्जन सीटों पर पड़ा.इन सीटों पर मुसलमान अपनी वोटिंग दो फीसदी भी बढ़ा देते या वोटों का बिखराव रोक लेते तो शायद केंद्र में सरकार ही बदल जाती.

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इन तमाम अगर-मगर के बीच सबसे बड़ी बात यह है कि सेक्युलर दलों का नाकामी उन दलों के लिए मुफीद है जो धर्म या जाति आधारित राजनीति कर रहे हैं.मुसलमानों के साथ दिक्कत है कि बीजेपी में उनके लिए कुछ है नहीं.टिकट, बराबरी, संगठन में जगह या संसद-विधानसभाओं में हिस्सेदारी के मसले पर बीजेपी की रीति-नीति को लेकर मुसलमान सशंकित रहते हैं. हालांकि बीजेपी पसमांदा मुसलमानों को साथ लाने, समय-समय पर उनको टिकट देकर नए समीकरणों की संभावनाएं तलाश रही है,लेकिन उसकी ये कोशिशें आधी-अधूरी हैं.बिना सुरक्षा,बराबरी और सम्मान के प्रतिनिधित्व की कोई अहमियत नहीं है.मुसलमान कम से कम दो मौकों पर आरएसएस समर्थित दलों की तरफ आए.पहली बार जेपी आंदोलन के बाद 1977 के चुनाव में.दूसरी बार वीपी सिंह की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के बाद के साथ 1989 के आम चुनाव में.दोनों ही बार उनके साथ धोखा हुआ.दो से 88 सांसदों की पार्टी बनते ही बीजेपी ने मुसलमान विरोधी मुहिम शुरू कर दी. लेकिन इस दौरान सेक्युलर दलों को समर्थन करके मुसलमानों को क्या हासिल हुआ,यह सवालों के घेरे में है.

संसज में घटता मुसलमानों का प्रतिनिधित्व

मौजूदा लोकसभा में केवल 24 मुसलमान सांसद हैं. ये सभी विपक्षी गठबंधन से हैं.संसदों में मुसलमानों की कम नुमाइंदगी की वजह केवल चुनाव हार जाना ही नहीं है. इसका एक कारण यह भी है कि तमाम दल मुसलमानों को टिकट देने से बच रहे हैं. देश में 1952 में हुए पहले संसदीय चुनाव में मुसलमानों की सहभागिता पांच फीसद से कम थी.आजादी के सात दशक बाद 2024 में वो लौटकर फिर वहीं पहुंच गए हैं.हालांकि मुसलमान अभी तक सेक्युलर दलों पर भरोसा करते रहे हैं, लेकिन अब वो थोड़ा-थोड़ा कर दूसरी तरफ जा रहे हैं.इसका खमियाजा जाहिर है सेक्युलर राजनीति करने वालो को ही भुगतना पड़ रहा है.बूथों पर मुसलमान की घटती वोटिंग और उसके वोटों का बिखराव राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता से दूर कर चुका है. वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में आरजेडी इसी कारण सत्ता से दूर रह गए.लेकिन इनमें से कोई भी दल समस्या की जड़ पकड़ने को तैयार नहीं है.जब तक समस्या का निदान नहीं होगा,देश में कोई बड़ा सियासी बदलाव नहीं आएगा.

(अस्वीकरण: यह लेखक के निजी विचार हैं. इसमें दिए गए तथ्यों और विचारों से एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. )

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