This Article is From Jul 28, 2022

प्रियदर्शन का ब्लॉग : द्रौपदी मुर्मू का अपमान और हमारे अपने पूर्वाग्रह

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Priyadarshan

अधीर रंजन चौधरी लगातार कह रहे हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को असावधानी में राष्ट्रपत्नी कह दिया। वे अपने बांग्लाभाषी होने का हवाला भी दे रहे हैं। निश्चय ही अधीर रंजन की जो सार्वजनिक उपस्थिति है, कांग्रेस के भीतर उनका जो सम्मानित पद है, उसका तक़ाज़ा ये है कि वे ऐसी चूकों से बचें। असावधानियां भी राजनेताओं का उम्र भर पीछा करती हैं। 84 की सिख विरोधी हिंसा के बाद राजीव गांधी के एक लापरवाह बयान ने उनकी मौत के बाद भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। 

लेकिन अगर अधीर रंजन चौधरी ने यह चूक कर ही दी तो आप उन्हें कौन सी सज़ा देंगे? अधिकतम उनसे माफ़ी मांगने को कहेंगे जो वे मांग चुके हैं। मगर इसके बाद भी बीजेपी नेता जिस तरह स्त्री के सम्मान की दुहाई दे रहे हैं, वह कई मायनों में स्त्री की गरिमा को कम करने वाला ही है। स्त्री की गरिमा कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि वह एक शब्द से घायल हो जाए। स्त्री का सम्मान एक बड़ी चीज़ है जो आपके पूरे व्यवहार से आता है। उसे आप अपने राजनीतिक आक्रमण की रणनीति के तौर पर इस्तेमाल करते हैं तो दरअसल उसकी गरिमा कम करते हैं। 

लेकिन इस प्रसंग ने हमारी भाषिक चेतना के संदर्भ में गंभीरता से विचार करने लायक एक मुद्दा ज़रूर पैदा किया है- दुर्भाग्य से यह गंभीरता हमारे किसी विमर्श में नहीं बची है इसलिए ख़तरा यह है कि इसे भी किसी का बचाव या किसी पर वार न मान लिया जाए। जब प्रतिभा पाटील भारत की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं तभी यह सवाल उठा था कि उन्हें क्या कहा जाए। क्योंकि 'पति' शब्द तो पुल्लिंग में इस्तेमाल होता है। कहीं-कहीं यह सवाल तब भी उठा था कि क्या राष्ट्रपति को अब राष्ट्रपत्नी कहेंगे? इसके पहले महापुरुष शब्द के संदर्भ में यह बात चली कि हम अपनी महान नेत्रियों को क्या कहेंगे? इंदिरा गांधी को महापुरुष बोलना क्या स्त्रीत्व का अपमान नहीं है? क्या महानता शब्द बस पुरुषों के लिए सुरक्षित है और जब कोई स्त्री इस श्रेणी में आने की दावेदार बन जाए तो उसे अपना स्त्रीत्व छोड़ना पड़ेगा? 

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दरअसल इस तरह सोचें तो हमारी भाषा में वह काम हुआ ही नहीं जो स्त्री की किसी महती भूमिका के लिए कोई शब्द निर्धारित करे। दूसरी बात यह कि स्त्री-पुरुष की बराबरी और दांपत्य की साझेदारी के तमाम तर्क से सहमत होते हुए हमने अपनी चेतना में 'पति' और 'पत्नी' शब्द को अलग-अलग ढंग से बसा रखा है। 'राष्ट्रपति'- यानी राष्ट्र का मुखिया। कोई बददिमाग़ आदमी पूछ सकता है कि राष्ट्र कोई स्त्री तो है नहीं कि उसका कोई पति हो, फिर हम क्यों किसी को राष्ट्रपति कहते हैं। जाहिर है, पति शब्द के साथ जुड़ा सम्मान उसे यह सोचने की इजाज़त नहीं देता। लेकिन 'पत्नी' हमारी चेतना में पति की संपत्ति की तरह बसी हुई है, इसलिए राष्ट्रपत्नी अपमानजनक लगता है। जबकि पति और पत्नी अगर बराबर हैं तो राष्ट्रपति और राष्ट्रपत्नी में फ़र्क नहीं होना चाहिए। यह अधीर रंजन चौधरी या किसी नेता का बचाव नहीं है, बस इस तथ्य की ओर इशारा है कि स्त्री से जुड़ी पदवियों को जो जगह और इज़्ज़त हमने अपनी मानसिकता में नहीं दी है उसी का नतीजा है कि अधीर रंजन चौधरी की एक चूक सबके लिए स्त्री गरिमा की की राजनीति का मुद्दा बन गई है।

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वैसे यह सवाल पूछा जा सकता है कि अधीर रंजन चौधरी की यह बात क्यों मानें कि उनसे चूक हुई? बहुत संभव है कि उन्होंने जान-बूझ कर द्रौपदी मुर्मू का मज़ाक उड़ाने के लिए यह शब्द इस्तेमाल किया हो और जब उन्हें इसकी गुरुता-गंभीरता समझ में आई हो तो वे इसे चूक में बदलने की कोशिश कर रहे हों। आख़िर कांग्रेस हो या बीजेपी या इन दोनों से बाहर के राजनीतिक दल- भारतीय राजनीति महिलाओं के प्रति कभी उदार और सदय नहीं रही है। जब जिसको अवसर मिला है, उसने महिलाओं को अपमानित किया है। जो बीजेपी अभी महिला अपमान को लेकर छाती पीट रही है, उसके नेताओं ने दूसरों के बारे में क्या कुछ नहीं कहा है। मुख्यमंत्री रहते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने चुनाव सभा में '50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड' जैसा जुमला इस्तेमाल किया था और प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने सदन के भीतर रेणुका चौधरी की हंसी पर शूर्पनखा को याद किया था और उनके साथ पूरी लोकसभा जैसे ठठा कर हंस पड़ी थी। सोनिया गांधी को राजीव की विधवा कहने का अपमान भी इसी राजनीति ने देखा है। मायावती से लेकर राबड़ी देवी तक के बारे में अपमानजनक टिप्पणियां की गई हैं।  

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सच तो यह है कि भारतीय समाज अभी तक अपने चरित्र में पूरी तरह- बल्कि बुरी तरह- पुरुषसत्तात्मक है। यह एक तरह का स्त्री-द्वेष भारतीय समाज में हमेशा से सक्रिय रहा है। बल्कि स्त्री के साथ शालीन और समानता का व्यवहार करने में कभी-कभी हमारी तरह के वे लोग भी चूक जाते हैं जो मोटे तौर पर स्त्री समानता के हामी हैं। यह चीज़ बताती है कि हम सबको स्त्री के साथ अपने व्यवहार में बहुत कुछ सीखना और अपने-आप को बदलना बाक़ी है। 

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द्रौपदी मुर्मू ने बहुत लंबा स़फ़र तय किया है। मयूरभंज के एक गांव से निकल कर देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचने की उनकी कहानी में भारतीय लोकतंत्र की भी आभा झांकती है और स्त्री-शक्ति की भी। अधीर रंजन चौधरी की टिप्पणी ने अगर इस आभा पर एक दाग लगाया है तो दूसरा दाग़ इसके नाम पर की जाने वाली राजनीति लगा रही है।

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