वैश्वीकरण और उच्च शिक्षा : वर्तमान सन्दर्भ

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Dr Manu Pratap

वर्तमान सहस्राब्दि की अनेक विशेषताओं में शामिल वैश्वीकरण ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें बचना किसी भी राष्ट्र के लिए कठिन है. वस्तुतः वर्तमान समय का वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण भारतीय 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की एकात्मवादी धारणा पर आधारित नहीं है, वरन् अमेरिका व यूरोप से चलकर आई ऐसी अवधारणा पर आधारित है, जिसका आधार सूचना प्रौद्योगिकी है. ई-गति पर आधारित त्वरित संचार व्यवस्था ने विश्व को औद्योगिक समाज के स्थान पर सूचना आधारित समाज का स्वरूप देकर राष्ट्रों के बीच की दीवारें तोड़कर 'वैश्विक गांव' की संकल्पना को साकार कर दिया है. फलस्वरूप सामाजिक अन्तःक्रिया में समय व स्थान की सीमाएं समाप्त हो गई हैं.

किसी देश का सम्पूर्ण विश्व की विचारधारा की दिशा में ढलना ही वैश्वीकरण है. विकसित शब्दों की दृष्टि से वैश्वीकरण की परिभाषा इस प्रकार है - "वैश्वीकरण से तात्पर्य उन सीमाओं को समाप्त करने से है, जो देश के आर्थिक विकास में बाधक हैं... इसके द्वारा प्रत्येक देश दूसरे देशों में अपनी पहुंच बना सकेगा, जिसके द्वारा निर्धन राष्ट्र धनी राष्ट्रों के बाज़ार तक पहुंच सकेंगे... अतः वैश्वीकरण का अर्थ पूरे विश्व को एक वैश्विक वित्तीय गांव बनाना है..."

ब्लैकवेल डिक्शनरी ऑफ़ सोशियोलॉजी (1965) के अनुसार, "भूमण्डलीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत विभिन्न समाजों का सामाजिक जीवन, राजनीति एवं व्यापारिक क्षेत्रों से लेकर संगीत, वेशभूषा एवं जन-मीडिया के क्षेत्रों तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अत्यन्त द्रुत गति से प्रभावित हुआ है..."

अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक योजना संस्थान, यूनेस्को के निदेशक डॉ गुडमंड हर्नेस ने वैश्वीकरण को मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है. उनके अनुसार, सामान्य रूप से भूमण्डलीकरण मानव समाज और संस्कृति के विस्तार की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करता है. प्रोफ़ेसर जे.जे. ब्रनर के अनुसार, सामान्य तौर पर वैश्वीकरण से अभिप्राय विश्वव्यापी अंतर्सबंधों की स्थापना है. इस परिघटना को किसी ने त्वरित अन्तर्निर्भरता, किसी ने निरुद्देश्य परिणाम और दिक्-काल संकुचन, तो किसी ने नक्षत्र विश्रान्त की वास्तविक समय इकाई के अनुसार पर्यावरण परिवर्तन की प्रक्रिया कहा है.

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राजनीतिक संदर्भों में यह अंतरराष्ट्रीय और स्वदेशी सीमांकन के बीच की दीवार को कमज़ोर कराने की प्रक्रिया नज़र आता है. इससे संप्रभुता का एक नया रूप और राष्ट्र-राज्य की नई अवधारणा विकसित होती है. अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भूमण्डलीकरण राज्य और बाज़ार के बीच के संबंधों का रूपान्तरण, विश्व-व्यापार का प्रसार और अधिमान्यता, राष्ट्रों के बीच तुलनात्मक प्रतिस्पर्धा में वृद्धि और पर्यावरण विनाश और आंतरिक संकट, विशेषकर वित्तीय संकट को इंगित करता है. सांस्कृतिक दृष्टि से भूमण्डलीकरण बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक समाज का द्योतक है. यह सामाजिक बहुलता, भूमण्डलीकरण सम्प्रेषण उद्योग, अंतरराष्ट्रीय अस्मिता और प्रतीकों के प्रवाह, सभ्यताओं एवं समुदायों के बीच संघर्षों के परिणाम, विभिन्न आस्थाओं, मूल्यों और परम्पराओं के अन्तर्गत निर्मित होगी.

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उपर्युक्त विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि भूमण्डलीकरण बहुआयामी प्रक्रिया है. इसमें शिक्षा व संस्कृति महत्वपूर्ण आयाम है. भूमण्डलीकरण या वैश्वीकरण के फलस्वरूप बहुसंस्कृतिवाद का जन्म हो रहा है. विश्व के सभी राष्ट्रों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व शैक्षणिक पक्षों को एक ही व्यवस्था से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है.

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शिक्षा के क्षेत्र में यह समय मौलिक परिवर्तनों के दौर का है. प्रोफ़ेसर जे.जे. ब्रनर के अनुसार, मौलिक परिवर्तनों के माध्यम से ही शिक्षा के क्षेत्र में पहली बार विद्यालय की अवधारणा अस्तित्व में आई, उसके बाद सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का जन्म हुआ और अभी हाल में जन शिक्षा एक अभियान बनी. मेरी परिकल्पना है कि शिक्षा में चौथी क्रान्ति समान प्रभाव से आ रही है. यह शैक्षिक क्रान्ति वैश्वीकरण का परिणाम है.

आज हम वैश्वीकरण के परिवेश में हैं. उसमें विद्यालय के संदर्भ और उद्देश्यों में शैक्षिक सामग्री और बौद्धिक दबाव के साथ तीव्र गति से रूपान्तरण हो रहा है. आज विश्व स्तर पर सूचना समाज के निर्माण की दिशा में शिक्षा के सम्मुख अप्रत्याशित परिवर्तन और समायोजन की चुनौती है. वैश्वीकरण की प्रक्रिया व्यापकता, तीव्रता, गति, दिशा और प्रवाह और परस्पर अनुक्रिया ने सभी देशों को शिक्षा और राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति, सूचना और दूरसंचार संप्रेषण तकनीक के आधार पर प्रौद्योगिकी की स्थापना, जो शिक्षा के लिए नया परिवेश निर्मित कर रही है, के बीच सह-संबंध की पुनः समीक्षा करने को विवश किया है.

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सूचना तकनीकी में हो रहे विकास ने ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन किया है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से शिक्षा लोगों के घरों तक पहुंच चुकी है. विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों में हो रहे नवीनतम परिवर्तनों को सम्मिलित करने के लिए सूचना तकनीक का प्रयोग अपरिहार्य हो गया है. वर्तमान पाठ्यक्रमों में अप्रासंगिक और पुराने हो चुके विवरणों की कटाई-छंटाई अत्यावश्यक है, जिसमें वर्तमान पाठ्यचर्चा को नवीनतम बनाया जा सके.

राष्ट्र के आर्थिक विकास और निर्धनता उन्मूलन हेतु भारत में 1991 से आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाकर वैश्वीकरण की प्रक्रिया का समर्थन किया गया है. वैश्वीकरण के फलस्वरूप अन्य राष्ट्रों सहित भारत ने भी इस वास्तविकता को स्वीकार कर लिया है कि शिक्षा-व्यवस्था, विशेषतः उच्च शिक्षा को बाज़ार की आवश्यकताओं के अनुसार चलना चाहिए, क्योंकि अर्थव्यवस्था तथा शिक्षा का सम्बन्ध कभी इतना सशक्त व प्रत्यक्ष नहीं था, जितना वैश्वीकरण के प्रभाव से दृष्टिगोचर हो रहा है. शिक्षा के संबंध में वैश्वीकरण का महत्वपूर्ण घटक एक ऐसी मानव शक्ति का सृजन भी है, जो विश्व बाज़ार में प्रतियोगिता का सामना कर सके. इसका सीधा अर्थ यह है कि सबसे अधिक क्षमता वाले व्यक्तियों को ही उच्च शिक्षा उपलब्ध कराई जाए.

वैश्वीकरण की ज़रूरत के मुताबिक शिक्षा के विकास हेतु अत्यधिक धन की आवश्यकता होगी, जबकि भारत सहित विकासशील देश संसाधनों की कमी की समस्या से पहले ही जूझ रहे हैं. भारत सरकार शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 4.5 प्रतिशत खर्च करती है, जो विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है. जर्मनी शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 8.85 प्रतिशत, ब्रिटेन 4.2 प्रतिशत, फ्रांस 5.8 प्रतिशत और स्वीडन 13.5 प्रतिशत तक खर्च करता है. भारत सरकार ने भी शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च करने का वादा किया था, जिसे पूर्ण करने में वह असफल रही है, इसीलिए लगातार उच्च शिक्षा को प्राथमिकता की सूची से बाहर रखने के सुझाव दिए जा रहे हैं.

उद्योग और व्यापार जगत की बेहतरी के लिए बनाई गई समिति के सदस्यों मुकेश अंबानी तथा कुमारमंगलम बिरला ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सरकार को प्राथमिक तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा मुफ़्त प्रदान करनी चाहिए, किन्तु उसके बाद भी सरकार को उसमें पूंजी लगाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उच्च शिक्षा का लाभ व्यक्ति स्वयं उठाता है, अतः उसके लिए उसे खुद भुगतान करना चाहिए. यद्यपि उच्च शिक्षा में कटौती का यह प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि उच्च शिक्षा का वित्तपोषण कम करने पर उसका विस्तार और गुणवत्ता प्रभावित होगी, जिससे योग्य अध्यापकों की आपूर्ति भी बाधक होगी. वस्तुतः शिक्षा एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. इसके विभिन्न क्षेत्र और चरण एक दूसरे के पूरक हैं. इसका वर्गीकण कर किसी क्षेत्र या चरण के वित्तपोषण में कटौती करना शिक्षा की प्रगति और दूरगामी विकास को अवरुद्ध करना होगा.

भारत में उच्च शिक्षा के स्तर के दो किनारे दिखलाई पड़ते हैं - एक ओर तो IIM और IIT जैसी विश्वस्तरीय संस्थाएं हैं, जहां शिक्षा गुणवत्ता के पैमाने पर कहीं से भी कम नहीं है. वहीं दूसरी ओर ढेरों ऐसे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय भी हैं, जहां न अधोसंरचना के नाम पर कुछ है, न स्तरीय पुस्तकालय हैं, न सुयोग्य अध्यापक हैं, यदि हैं, तो विद्यार्थियों की संख्या और उनकी संख्या में अनुपात का कोई मानक नहीं है. भारत के अधिकांश शिक्षण संस्थानों की यही स्थिति है.

एक ओर जहां देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश की संख्या सीमित है और प्रवेश हेतु राष्ट्रीय स्तर पर परीक्षा का आयोजन किया जाता है, वहीं अधिकांश ऐसी संस्थाएं हैं, जहां न प्रवेश संख्या निश्चित है, न उनके लिए किसी प्रकार का मापदण्ड है. अध्यापकों की गुणवत्ता को तदर्थ अध्यापकों की नियुक्ति भी कम प्रभावित नहीं कर रही है. बहुसंख्यक संस्थानों में फीस बटोरने के नाम पर सबको घर से बुला-बुलाकर प्रवेश दिया जा रहा है. विद्यार्थियों की संख्या अधोसंरचना व शिक्षकों के अनुपात में कहीं अधिक होने से गुणवत्ता का प्रभावित होना नितांत अपरिहार्य है. गुणवत्ता बनाए रखने के लिए शैक्षिक वातावरण का निर्माण करना होगा. न सिर्फ छात्रों की उपस्थिति, अपितु अध्यापकों की उपस्थिति सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है.

वस्तुतः सच्चाई तो यह है कि वैश्वीकरण से उचित समायोजन स्थापित करने के लिए गुणात्मक उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने की ज़रूरत है, और उसके लिए इस क्षेत्र में कुछ आवश्यक सुधार अपरिहार्य हैं...

  1. पाठ्यक्रम को प्रथम प्राथमिकता देनी होगी. भारत में 18 से 25 वर्ष की आयु के मात्र 6 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तथा इनमें से भी 89 प्रतिशत सामान्य शिक्षा में नामांकित हैं. अतः यहां उच्च शिक्षा की पुनः रचना कर एवं उनके अथाह मिल स्वरूप को परिवर्तित कर व्यावहारिक व रोज़गारपरक बनाने की आवश्यकता है.
  2. समस्त शैक्षणिक संस्थाओं को अधोरचना की पूर्णता देखकर ही मान्यता प्रदान की जाए एवं संस्थाओं में इस प्रकार की व्यवस्था हो कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ भूतपूर्व विद्यार्थियों, प्राध्यापकों एवं बुद्धिजीवी वर्ग की सहभागिता बनी रहे.
  3. संचार-प्रौद्योगिकी के विकास से शिक्षण व शोध की वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में जांच व तुलना आवश्यक है. इस दिशा में UGC ने NAAC (1994) के माध्यम से कदम उठाए हैं. अब प्रत्येक संस्था को उसके मूल्यांकन व प्रत्यापन के आधार पर ही सरकारी अनुदान प्राप्त होगा. इस प्रक्रिया को और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है.
  4. इस प्रक्रिया की नियुक्ति निष्पक्ष हो, चयन आयोग निष्पक्ष ढंग से काम करे. योग्यता के प्रश्न पर कोई समझौता न हो. यह व्यवस्था संघ लोक सेवा आयोग की तर्ज पर हो और चयन भी उसी तरीके से किया जाए.
  5. भारतीय शिक्षा संस्थाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार रणनीति बनाना आवश्यक है. उच्च शिक्षा में शुल्क में वृद्धि की गई है. इसके साथ ही यह न्यायसंगत होगा कि निजी क्षेत्र द्वारा उच्च शिक्षण संस्थाओं में निवेश किया जाए, क्योंकि उच्च शिक्षा की गुणात्मकता में वृद्धि होने का मुख्य लाभ निजी क्षेत्र को ही प्राप्त होगा.
  6. शिक्षण-संस्थाओं में छात्रों की प्रवेश संख्या सीमित की जाए, वर्ष में कार्यदिवस और प्रतिदिन निर्धारित काम के घंटे में अध्यापन सुनिश्चित कराया जाए. कार्य की गुणवत्ता की सतत निगरानी की जाए. इसके लिए आकस्मिक निरीक्षण सक्षम अधिकारी द्वारा कराया जाए.
  7. भारत के मुक्त विश्वविद्यालयों को संचार-तकनीकी का पूर्ण उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए. वे विदेशों में अपने पाठ्यक्रमों का प्रचार करें व virtual campuses की स्थापना कर विकसित राष्ट्रों से मुकाबला करें.
  8. उच्च शिक्षण संस्थाओं को रोज़गार मार्गदर्शन केन्द्र के रूप में विकसित किया जाए, क्योंकि वैश्वीकरण का बुनियादी लक्ष्य ऐसी मानव शक्ति का सृजन करना है, जो विश्व बाज़ार में उत्पादक सदस्य के रूप में कार्य करें.

वर्तमान वैश्विक समुदाय के युग में यदि भारत को आर्थिक शक्ति के रूप में उभरकर आना है, तो जापान की भांति अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं व आकांक्षाओं के अनुसार सीमित व नियंत्रित वैश्वीकरण को अपनाकर उच्च शिक्षा का स्वदेशी मॉडल तैयार करना होगा. वैश्वीकरण के इस दौर में यदि प्रत्येक अवसर का सर्वाधिक लाभ नहीं उठाया गया, तो हम पीछे छूट जाएंगे. आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में प्राथमिकता के आधार पर संसाधन आवंटन की नीति में बदलाव हो और राष्ट्रीय हितों को महत्व दिया जाए.

उपर्युक्त सुधारों को यदि यथार्थ के धरातल पर लाने में सफल रहे, तो उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के ज़रिये उच्च बौद्धिकता वाले नए भारत को विश्व के सामने लाने से कोई नहीं रोक सकता और तभी पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के शब्द सार्थक हो सकेंगे - सन् 2020 तक या इससे पूर्व विकसित भारत कोई स्वप्न नहीं है, न यह कोरी कल्पना है, बल्कि यह ऐसा ध्येय है, जिसे हम सब को अपनाना चाहिए, हम इसमें अवश्य सफल होंगे.

डॉ मनुप्रताप (डी.लिट.) उत्तर प्रदेश के बरेली में स्थित बरेली कॉलेज के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं... 14 वर्ष से अधिक का अध्यापन अनुभव रखने वाले डॉ मनुप्रताप कवि भी हैं, साहित्यकार भी... साहित्य से जुड़े अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित डॉ मनुप्रताप को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में उत्कृष्ट योगदान के लिए भी सम्मानित किया जा चुका है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.