'Joker' से 'Joker: Folie à Deux' : विध्वंसक-सृजनशीलता की पुनर्प्रस्तुति

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Keyoor Pathak

'जोकर' (Joker) (2019) के बाद अब इसका सीक्वेल 'जोकर - फ़ॉली अ डा' (Joker: Folie à Deux) रिलीज़ हो रहा है. निस्संदेह यह एक शानदार सिनेमा था, जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दर्शकों और समीक्षकों ने पसंद किया, और यह ऑस्कर तक पहुंचने में सफल रहा. कोई दो राय नहीं कि इसके सीक्वेल के भी इतिहास दोहराने की प्रबल सम्भावना है, लेकिन साथ ही यह समझा जाना चाहिए कि 'जोकर' की सफलता उस समाज और सत्ता की विफलता है, जिसे आधुनिक पूंजीवाद ने जकड रखा है, क्योंकि सिनेमा की विषयवस्तु समाज के गंभीर विषय को प्रस्तुत कर रही है, जिसमें समाज और व्यक्ति दोनों ही मनोवैज्ञानिक रूप से असंगठित या असंतुलित दिख रहे हैं. इसका पसंद किया जाना इसकी व्यापकता और मौजूदगी की स्वीकृति है.

समाज और व्यक्ति दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी की तरह आमने-सामने खड़े हैं, और एक दूसरे से अलग होते जा रहे हैं - दोनों की दिशा विपरीत है. समाज की व्यक्ति के प्रति क्या ज़िम्मेदारी है, यह उसे नहीं पता, यह बस नियंत्रण करने की कठोर संस्था के रूप में रह गया है. इसी तरह व्यक्ति के जीवन में समाज की भूमिका नगण्य रह गई है, वह उसके प्रति बेपरवाह होता जा रहा है. दोनों का एक दूसरे से अलगाव दोनों को ही एक सनकीपन की तरफ धकेलता जा रहा है, दोनों ही मानसिक रोगी बनते जा रहे हैं. यह बीमारी वैश्विक भी है और गंभीर भी.

फिल्म के पहले पार्ट के लिए अभिनेता आदि को ऑस्कर और अन्य अनगिनत पुरस्कार मिले, तो समाज और सत्ता के नियंताओं को कठघरे में लाया जाना चाहिए था, वे सज़ा के हक़दार माने जा सकते हैं, क्योंकि सिनेमा मात्र मनोरंजन नहीं है, यह दर्पण है, जिसमें समाज और सत्ता के चेहरे पर पड़ती हुई झुर्रियों और रिसते हुए घावों को पढ़ा जा सकता है, और जिसके इलाज की ज़िम्मेदारी जिनकी थी, उन्होंने शायद ईमानदारी से वह किया नहीं.

निस्संदेह 'जोकर' हमारे बीच की ही एक बड़ी आबादी है, या शायद हम सब 'जोकर' हैं, जिसके जीवन की त्रासदी ने जीवन को देखने का उसका नज़रिया ही बदल दिया है. हिंसा, हत्या, क्रूरता उसके लिए हास्य और व्यंग्य बन चुका है. व्यक्ति के इस भयंकर रूपांतरण या पतन के लिए समाज और सत्ता को कैसे बाइज़्ज़त बरी किया जा सकता है...?

यह एक प्रतिशोध की तरह है, जब नायक अपनी क्रूरता पर आनंदित होता है, झूमता है, नाचता और गाता है. जब 'जोकर' कहता है - "I used to think that my life was a tragedy, but now I realize, it's a fu****g comedy..." यह उसके जीवन के संताप से उपजी दृष्टि को दिखाता है कि कैसे उसने जीवन की क्रूरता को स्वीकार लिया है और खुद भी उसी क्रूरता की तरफ कदम बढ़ा रहा है. यह मानवीय समाज के लगातार अमानवीय बनने के संकेत हैं. एक तरह से देखा जाए, तो मनुष्य द्वारा मनुष्यता का त्याग आज के पूंजीवादी दौर में जीने की प्रथम शर्त है, जहां मानवीय मूल्यों के साथ जीना कठिन होता जा रहा है. जिसे जर्मन दार्शनिक नीत्से के शब्दों में कहें, तो यह 'कन्वर्शन ऑफ़ द वैल्यूज़' है, जिसमें दया, करुणा, क्षमा, अहिंसा के बलबूते जीवन जीना दुष्कर है. इसे कमज़ोरों का दर्शन माना जाने लगा है, और फिर एक ऐसे मूल्य की स्वीकार्यता बढ़ती जाती है, जो दूसरे के दमन और उत्पीड़न पर टिका है.

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एक संवाद में 'जोकर' (2019) अपने जीवन से शिकायत करता है और कहता है - "I have not been happy one minute of my entire fu****g life..."

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जोकर अपने जीवन से तंग है. वह समाज की उपेक्षा से खिन्न है. वह हंसना और हंसाना चाहता था, लेकिन जैसे दुनिया ने हास्य को प्रतिबंधित कर दिया हो, उसने हंसी के अर्थ और उद्देश्य को बदल दिया. आज की भयंकर पूंजीवादी दुनिया गंभीरता की ऐसी चादर में लिपटी है, जिसे फ्रायडमैन के शब्दों में कहें, तो यह 'गोल्डन-स्ट्रेट-जैकेट' है, जिसका देखा जाना तो रुचिकर है, लेकिन पहना जाना जानलेवा.

आधुनिक पूंजीवाद की उपलब्धियां भी कुछ ऐसी ही हैं. वैश्विक पूंजीवाद अपनी सफलता की घोषणा स्वयं नहीं करना चाहता, वह हमसे और आपसे अपनी विजय की घोषणा करवा रहा. जय पराजय कुछ भी हमारे जीवन मूल्यों के साथ सामंजस्य बनाता नहीं दीखता. यह हमसे वह करवाना चाहती है, जो हमारी मौलिकता नहीं, और जो हमारी ज़रूरत भी नहीं. यह हमें भूख लगने पर पिज़्ज़ा खिलाना चाहती है, और प्यास लगने पर कोल्ड-ड्रिंक पिलाना चाहती है. यह पूंजीवादी 'जनरलाइज़ेशन' है, जिसमें विचार, ज़रूरतें सब 'कॉमोडीफ़ाइड' और 'जनरलाइज़्ड' हैं.

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दुनिया वास्तविकता से अधिक अभिनय से चलती है, और इस अभिनय के कारण अक्सर सामान्य व्यक्ति असामान्य घोषित कर दिया जाता है, जैसा 'जोकर' की शिकायत है - "The worst part of having a mental illness is people expect you to behave as if you don't..." यह खिन्नता और आक्रोश अंततः व्यक्ति को उस स्तर तक हिंसक बना देती है, जहां उसका सौन्दर्यबोध भी बदल जाता है. वह भयानक हिंसा में अपना सौन्दर्यबोध ढूंढता है. जब समाज में दंगे और फसाद होने लगते हैं, लोग मरते हैं, तो 'जोकर' मज़ाकिया लहजे में कहता है - "Isn't it beautiful...?" यह त्रासदी की चरम स्थिति है - वैश्विक पूंजीवाद ने हमारा सौन्दर्यबोध बदल डाला है. हमने एक ऐसी दुनिया बनाई, जिसमें बेतहाशा बेचैनी है - हिंसा उसके लिए उत्सव है, क्रूरता उसका मुक्ति-मार्ग और सनकीपन उसके जीने का सहारा.

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सामाजिक और व्यक्तिगत मानसिक बेचैनी को बताने के लिए 'जोकर' फिर सामाजिक जीवन की त्रासदी की पुनर्गाथा 'Joker: Folie à Deux' के माध्यम से करने जा रहा है. Folie à Deux का मतलब ही होता है, सनकीपन को साझा करना.

यह याद रखा जाना चाहिए कि समाज, सत्ता और व्यक्ति की ये तमाम बीमारियां निरंतर एक साझे कार्यक्रम और परियोजनाओं की तरह फैल रही हैं, और दुर्भाग्य से इन बीमारियों के लिए हमारी नीतियां विदेशी दवाओं के कारोबार, क़ानूनी प्रक्रियाओं, या फिर बाबाओं के आश्रमों के इर्द-गिर्द घूम रही हैं. जबकि इस बीमारी के मूल में राजनीतिक-अर्थव्यवस्था भी है और जिसे समाज-विज्ञानी विमर्शों की स्वीकार्यता से ही समाधान की दिशा में ले जाया जा सकता है. जब रचनात्मकता प्रतिबंधित हो जाती है, तो वहां फिर विध्वंस को सृजनशीलता की श्रेणी में रख दिया जाता है. 'Joker: Folie à Deux' उसी विध्वंसक-सृजनशीलता की पुनर्प्रस्तुति होगी.

केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं... अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं... इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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