ये सत्य है कि केंद्र सरकार द्वारा अपने सहयोगियों को बिना विश्वास में लिए सेना में भर्ती के 'अग्निपथ' योजना (Agnipath Scheme) के बाद जिन-जिन राज्यों में इसका विरोध हुआ, उसमें बिहार में सबसे ज्यादा हिंसा हुई. इसमें सरकारी संपत्ति खासकर रेलवे को सबसे अधिक या कहें कि आजादी के बाद सर्वाधिक नुकसान आगजनी में उठाना पड़ा. ये भी तथ्य सही है कि किसी सत्तारूढ़ दल के एक साथ इतने नेताओं, जिसमें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल से लेकर उप मुख्यमंत्री रेणु देवी शामिल हैं, उनके आवास पर ना सिर्फ हमला हुआ, बल्कि इस बात के प्रमाण वीडियो हैं कि जब भाजपा दफ्तर पर हमला हो रहा था तो पुलिस जिसके मुखिया नीतीश कुमार (Nitish Kumar) हैं, वो मूकदर्शक बनी हुई थी. इन घटनाओं से दो बात साफ है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास इस हिंसा को रोकने की इच्छाशक्ति की कमी थी, या उनकी मौन सहमति से जो हुआ, सब हुआ और वो 'सुशासन बाबू' कहलाने के लायक अब किसी भी ढंग से नहीं रहे.
नीतीश को सुशासन बाबू अब विरोधी तो क्या, सरकार में उनके सहयोगी भाजपा भी मानने से रही और खुद भाजपा के राज्य अध्यक्ष डॉक्टर संजय जायसवाल ने उनके ऊपर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया कि जो हुआ वो प्रशासनिक चूक नहीं मिलीभगत का परिणाम था. नीतीश के समर्थकों जैसे पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह ने जवाब में भाषा की मर्यादा लांघते हुए उन्हें मानसिक रूप से परेशान तो बताया, लेकिन उनके पास इसका जवाब नहीं था कि आखिर बिहार में प्रदर्शनकारियों को तांडव करने की खुली छूट कैसे मिल गयी.
प्रदर्शन तो उतर प्रदेश में भी हो रहा था, लेकिन वहां सरकारी संपत्ति खासकर रेलवे को दिन में ट्रेन ना चलाने का फैसला क्यों नहीं लेना पड़ा जो बिहार की हिंसा से तंग आकर उन्होंने लिया. भले नीतीश हमेशा पूर्व रेल मंत्री के रूप में अपने को विशेषज्ञ होने का दावा करते हों, लेकिन सत्य है कि आज भारतीय रेल से सफर करने वाले हर यात्री और हर कर्मचारी के लिए उनसे बड़ा खलनायक नहीं है, जिसने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर अपने अकर्मण्यता से इतना नुकसान उस राज्य में होने दिया, जहां वो आज भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कृपा से कुर्सी पर बैठे हैं.
सबसे पहले अग्निपथ योजना से नीतीश कुमार के विरोध से किसी को कोई ऐतराज नहीं हो सकता, क्योंकि वो गाहे बगाहे कई स्कीम या नीति पर सरकार में सहयोगी होने के बाद भी विरोध करते रहे हैं. नीतीश को मालूम है कि ये जल्दबाज़ी में उठाया गया फैसला है, जो किसी छात्र के गले नहीं उतर रहा और देर सबेर व्यापक विरोध के कारण इसे केंद्र को वापस लेना होगा. यहां तक उनके ऊपर कोई सवाल नहीं उठा सकता. लेकिन अगर विरोध होगा तो नीतीश ने उसके मद्देनजर ना तो एक बार अधिकारियों को अलर्ट किया, ना कोई दिशा निर्देश दिये और सरकार हरकत में शुक्रवार शाम में आयी जब उसने भारी बवाल वाले जिलों में इंटरनेट डाउन किया और शनिवार से पुलिस सब जगह मुस्तैद दिखी. उसका एक कारण उनके उप मुख्यमंत्री के उपर हमला और हर टीवी चैनल पर धू-धूकर जलती ट्रेन के डिब्बों की तस्वीर थी. हालांकि नीतीश जो खुद बिहार और खासकर पटना की मीडिया से दूरी बनाये रखते हैं और उसी सवाल का जवाब सोमवार को देते हैं जो उन्हें लिखित रूप में एक दिन पूर्व दिया जाता है, इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों की उनके अंदर कमी निरंतर जारी हैं.
लेकिन बुधवार से शुक्रवार तक नीतीश जैसे मूकदर्शक बने रहे, उससे उनका नया चेहरा सामने आया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर उन्हें सरकारी संपति हो या अपने सहयोगी, अगर बात अपने मन की ना हो तो उनके खिलाफ़ हिंसा उन्हें क़बूल है. जानकारों का कहना है कि नीतीश पिछले विधानसभा में अपनी दुर्गति के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेवार मानते हैं और वो उस बदले की आग और राजनीतिक प्रतिशोध से मौन और मूकदर्शक दोनों बने रहे, भले इस चक्कर में अपनी सारी राजनीतिक पूंजी ही क्यों ना गंवानी पड़े. नीतीश ने पिछले हफ़्ते अपना सुशासन बाबू का तमगा हमेशा के लिए खोया है और राजनीति में ये एक ऐसी पूंजी है जो वापस सत्ता में नहीं मिलती. भले आप 'येन केन प्रकारेण' कुछ और वर्षों तक कुर्सी पर टिक जाएं. नीतीश ने भाजपा से बदला लेने में अपना नुकसान अधिक कर लिया. पहले से ही उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता कम थी और इस प्रकरण के बाद वो एक नाकाबिल मुख्यमंत्री हैं, उसका प्रमाण आने वाले कई सालों तक हिंसा के विडियो फुटेज देते रहेंगे.
नीतीश समर्थक अब ये तर्क दे रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों पर बल का प्रयोग या गोली का इस्तेमाल पूरे राज्य में हिंसा का एक नये दौर को निमंत्रण देने के समान था. लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता कि आखिर जब विरोध उतने ही आक्रामक तरीके से अन्य राज्यों में भी हो रहा था तो वहां बिना गोली चलाये उसे कैसे नियंत्रण में रखा गया. फिर उसके बाद इस सवाल पर भी निरुत्तर हो जाते हैं कि प्रदर्शनकारी हिंसा से दूर रहें ये अपील करने से आखिर किस शक्ति ने नीतीश को रोका हुआ था. नीतीश की बातों का और भी असर होता, क्योंकि वो तो उनकी मांगों के समर्थन में इस योजना का विरोध पहले दिन से कर रहे थे.
कई लोगों का मानना है कि नीतीश कुमार अब जिन लोगों से घिरे हैं, वो सब अपने स्वार्थ सिद्धि के चक्कर में उनको भाजपा के खिलाफ उकसाते हैं, या उनके मनमुताबिक बात कर ऐसे गलत आत्मघाती फैसलों में समर्थन देते हैं. लेकिन भाजपा के नेताओं के अनुसार जब-जब भाजपा मुश्किल में होती हैं नीतीश को उसे देखकर मजा आता है. उनके अनुसार नीतीश कुमार में अब राजनीतिक शिष्टाचार का इतना अभाव हो गया है कि जब उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी और भाजपा नेता नितिन नवीन पर रांची में हमला हुआ तो ना तो उन्होंने खुद, और ना किसी अधिकारी ने उनसे हालचाल पूछने की जरूरत समझी. बल्कि खुद नितिन नवीन ने एक कार्यक्रम के लिए जब नीतीश को फोन किया तो तब वो कहने लगे कि डीजीपी को उन्होंने जांच करने के लिए कहा था. जबकि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ना केवल तुरंत फोन किया, बल्कि उनकी सुरक्षा भी जब तक रांची में रहे बढ़ा दी थी.
लेकिन भाजपा नेताओं के अनुसार नीतीश कितनी भी शिष्टाचार की बात कर लें, लेकिन उनमें इतना दंभ भरा है कि वो अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते. इन नेताओं के अनुसार जब अक्टूबर 2013 में पटना के गांधी मैदान में अब के प्रधानमंत्री और तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार में पहली सभा में सीरियल बम धमाके हुए थे, तब नीतीश कुमार ने उनसे बातचीत ना कर राजनाथ सिंह से बात की थी. लेकिन उनका कहना है कि फिलहाल नीतीश को साथ रखना इन अपमानजनक घटनाओं के बाद भी भाजपा की मजबूरी है और इस कड़वे सत्य के सामने सब चुप हो जाते हैं. नीतीश हमेशा तेजस्वी के साथ चला जाऊंगा का डर भाजपा को दिखाते हैं और बिहार भाजपा में ऐसा कोई नेता नहीं जो उन्हें राजनीतिक रूप से मात दे सके, क्योंकि सुशील मोदी जैसे कद्दावर नेता को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने हाशिये पर ला दिया और तारकिशोर प्रसाद हो या नित्यानंद राय इनकी अभी कोई ऐसी ना पहचान है, ना पकड़ कि वो 'एकला चलो' की राह पर कुछ खास कर पाएं.
फिलहाल अपने दोनों उप मुख्यमंत्रियों समेत दस नेताओं को केंद्र के अर्धसैनिक बलों की सुरक्षा देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कम से कम ये तो सार्वजनिक कर दिया है कि उन्हें नीतीश की पुलिस और उनकी विधि व्यवस्था के दावों पर कोई भरोसा नहीं है. ये देश में अपने आप का एकमात्र राजनीतिक तालमेल होगा, जहां सहयोगी एक दूसरे को नीचा दिखाने में सरकारी संपत्ति जलती है और खुद तमाशा देखते रहते हैं. बचा-खुचा कसर नीतीश कुमार के डीजीपी ने मीडिया के सामने अपने जवाबों से पूरा कर दिया. ये समझ में नहीं आता कि नीतीश ने आखिर ऐसे व्यक्ति को कैसे पुलिस महानिदेशक बना दिया.
खैर अग्निपथ का जो होगा, वो तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, लेकिन फिलहाल आंदोलन की इस आग में नीतीश कुमार की अपनी 'सुशासन बाबू' की छवि जरूर धुआं-धुआं हो गई है.
(मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.