पहले चरण का मतदान हो चुका है. मतदान कम हुआ इसने सबकी चिंता बढ़ाई हुई है. बूथ मैनेजमेंट का कौशल जिन राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के पास है उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाना था, जो जहां से जीते हैं उन्हें वहां से अपनी जीत के आंकड़े को बढ़ाना है, ये टारगेट भी दिया गया था, फिर क्या हुआ? क्या हुआ, एक ऐसी पहेली है, जिसको सब अपने-अपने चश्मे से देख सकते हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे पोस्ट्स की बाढ़ आई है, जहां बताया जा रहा है कि कम मतदान का मतलब सत्ता को चुनौती है. कोई ऐसे आंकड़े लेकर आ रहा है कि उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में फलां सीट पर बेहद कम मतदान हुआ था, जिसमें सत्ताधारी की जीत हुई थी, जो सत्ता में हैं वो कह रहे हैं कि विपक्ष का मनोबल इतना टूटा हुआ है कि वो अपने चाहने वालों को बूथ पर नहीं ला पाया. बीजेपी तो एक तर्क ये भी दे रही है कि जातियों में बंटी भारतीय राजनीति में बूथ पर वो लोग आ रहे हैं, जो सरकार को दोहराना चाहते हैं क्योंकि उनका भला लाभार्थी योजनाओं से ही होगा। विपक्ष कह रहा है कि ऐसा नहीं है। कम मतदान में किसका भला है इस पहेली को समझने के लिए जरूरी है कि किस तरह से मतदाता पिछले 10 साल में बदला है.
कम मतदान की पहेली का एक मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि मतदाता को कोई उत्साह नहीं है, क्योंकि उसको ये लगता है कि उसके वोट से कोई फर्क नहीं पड़ता. एक वजह ये भी हो सकती है कि वो परिणाम को लेकर पहले से ही आश्वस्त है, लेकिन इन दोनों वजहों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का रोल है. ये मतदाता की पहचान से जुड़े मामले नहीं हैं.
विपक्ष इस बात को हवा दे रहा है कि जब सत्ताधारी दल का कार्यकर्ता जनता को बूथ पर लाने में फेल होता है तो इसका मतलब है कि कुछ गड़बड़ है. कुछ जानकार कह रहे हैं कि मामला उतना सपाट नहीं है. एक तो मौसम की मार और दूसरा ये एक ऐसा राजनीतिक मैच है जिसका नतीजा पहले से पता है इसलिए ऐसे मैच में कोई उत्साह नहीं होना बहुत सामान्य है.
पिछले दो चुनाव में मतदान औसत लगभग 66/67 फीसदी रहा है. इस वोटिंग में बीजेपी कार्यकर्ता ने बड़ा रोल अदा किया था.
मतदाताओं को पर्ची भेजने का काम वक्त पर पूरा किया गया. रैली की तैयारी में उसने वक्त दिया. इस बार के चुनाव में कई जगहों पर ऐसी शिकायतें आई हैं कि पर्ची भी सही ढंग से नहीं पहुंची तो क्या कार्यकर्ताओं की वजह से वोटिंग कम हो रही है? बीजेपी उन दलों में से है जिस में फीडबैक के आधार पर हल बहुत जल्दी ढूंढ लिया जाता है.अगर किसी भी स्तर पर मामला कार्यकर्ताओं की बेरुखी है तो इसको पार्टी अगले कुछ दौरों में दुरुस्त कर सकती है. कम वोटिंग ने आने वाले चरणों के लिए चुनौती पेश की है.चुनाव का बड़ा हिस्सा अभी बाकी है. सारे दल कोशिश करेंगे कि उनके अपने मतदाता अब बूथ पर पहुंचें.
सोशल मीडिया पर चल रही तमाम दलीलों के आधार पर ये कहना बेहद मुश्किल है कि थोड़ा कम मतदान किसी की जीत या हार का ठोस पैमाना है.वोटिंग किन जगहों पर किस बूथ पर कितनी हुई इन आंकड़ों को जाने बिना सारे नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं जो थोड़ी जल्दबाजी है.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...
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