विपक्ष की राजनीति में नीतीश कुमार की रणनीतिक सेंध

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Sanjeev Kumar Mishra

बिहार में सियासत इन दिनों उफान पर है. राजद-कांग्रेस और वामदलों का महागठबंधन लोगों के मुद्दों पर सरकार को घेरने में जुटा है. लेकिन इस बार सूबे का सियासी जंग केवल आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित नहीं है. दांव पेंच के हर मोर्चे पर रणनीतिक परिपक्वता की झलक देखने को मिल रही है. लेकिन सबसे दिलचस्प यह देखना है कि कैसे नीतीश कुमार विपक्ष के तरकश से एक-एक कर मुद्दे हथियाते जा रहे हैं. वे अपने धुर विरोधियों के एजेंडे में सेंधमारी ही नहीं कर रहे बल्कि अपनी अनोखी शैली में जनता के बीच जाकर उन्हें इस तरह लागू कर रहे हैं कि विपक्ष पलटवार भी नहीं कर पा रहा है.  

विपक्ष का ब्रह्मास्त्र बना नीतीश का कवच

बिहार में रोजगार युवाओं के लिए एक भावनात्मक मुद्दा रहा है. शायद यही वजह है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस इस मुद्दे पर सरकार को घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे. पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव अपने कार्यकाल में हुई बहालियों का पूरा श्रेय खुद को देते हैं. वो नीतीश कुमार की सरकार को 'निष्क्रिय'बताते आए हैं.लेकिन हाल ही में नीतीश सरकार द्वारा अगले पांच सालों में एक करोड़ रोजगार देने की योजना को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद सियासी पटल पर खेल पूरी तरह बदल गया है. तेजस्वी यादव ने इस घोषणा को आरजेडी की नीति की 'नकल'बताकर कहकर खारिज करने की भले ही कोशिश की, लेकिन उनके चेहरे के हावभाव और रक्षात्मक जवाबों से साफ था कि यह कदम उन्हें असहज कर गया है.

हालांकि, यह मुद्दा अब ठंडा पड़ जाएगा ऐसा लगता नहीं. कांग्रेस नए सिरे से रोजगार के मसले को हवा देने में जुटी है. कांग्रेसी नेताओं ने 19 जुलाई को पटना में 'जॉब फेयर' आयोजित करने की घोषणा की है. चुनाव में यह मुद्दा कितना कारगर साबित होता है यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इतना तो तय है कि विपक्ष की सारी रणनीतियां अब सरकार की ही परछाईं लगने लगी हैं.

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बिहार का बदलता आर्थिक भूगोल

राजनीति में बयानों की अपनी अहमियत होती है, लेकिन आंकड़ों को कम करके भी नहीं आंका जा सकता. बिहार की अर्थव्यवस्था की बदहाली का रोना विपक्ष रोता रहता है. इसे लेकर तेजस्वी यादव समेत पूरा विपक्ष नीतीश पर हमलावर है. हालत यह है कि कई दफा तेजस्वी, लालू-राबड़ी कार्यकाल को अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर नीतीश से बेहतर बताने से भी नहीं चूकते हैं. लेकिन बात जब आंकड़ों की आती है तो नीतीश बाजी मार ले जाते हैं. आंकड़ों की मानें तो सच तो यह है कि जिस बिहार का कुल बजट 2005 में 28 हजार करोड़ रुपये था, वह 2025 में तीन लाख करोड़ रुपये के पार जा चुका है.

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राजद नेता तेजस्वी बिहार में बेरोजगारी और पलायन के मुद्दे को उठाते रहे हैं.

इक्विटी निवेशकों के लिहाज से बिहार की स्थिति में आमूलचूक बदलाव आया है. साल 2020 में जहां राज्य में महज सात लाख डीमैट खाताधारक थे, वहीं आज यह संख्या बढ़कर 53 लाख तक पहुंच चुकी है. यानी लगभग 68 फीसदी की अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में जहां निवेशकों की संख्या बढ़ी है, वहीं बिहार ने भी साबित कर दिया है कि संभावनाओं का भूगोल अब तेजी से बदल रहा है. अर्थव्यवस्था के क्रम में बिहार सरकार द्वारा हाल ही में पटना में आयोजित 'विशेष औद्योगिक संवाद' का जिक्र लाजमी हो जाता है. इसमें देश की 55 आईटी और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों की भागीदारी इस बात का संकेत है कि राज्य में निवेश के लिए एक अनुकूल माहौल तैयार हो चुका है. ड्रोन, डेटा सेंटर, सोलर उपकरण और लैपटॉप निर्माण जैसी अत्याधुनिक तकनीकों को लेकर निवेशकों की रुचि दिखना राज्य की आर्थिक दिशा को दर्शाता है.

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पलायन के जख्म पर मरहम

पलायन बिहार की कड़वी सच्चाई है. यह ऐसा घाव है जिसे विपक्ष ने सालों तक कुरेदा है. पलायन रुक गया हो ऐसे दावे तो सरकार भी नहीं करती, हां ये जरूर है कि हालिया आंकड़ें पलायन रोकने को लेकर सकारात्मक संदेश देते हैं. ई-श्रम पोर्टल के आंकड़ों से पता चलता है कि करीब 2.9 करोड़ बिहारवासी रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में गए हैं, जबकि पहले यह आंकड़ा पांच करोड़ से अधिक का था, यानी पलायन के दर में कमी आई है. पलायन करने वालों में सर्वाधिक संख्या उच्च जातियों की है. ब्राह्मण 7.18 फीसदी, भूमिहार 5.19 फीसदी और राजपूत 5.94 फीसदी पलायन करने वालों में प्रमुख हैं. 
पलायन से जुड़े नए आंकड़ें सरकार के लिए जहां संजीवनी हैं, वहीं विपक्ष के मुद्दे की धार कुंद कर रहे हैं.  ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि विपक्ष कैसे इस गंभीर विषय को जनता के बीच रखता है. 

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डोमिसाइल नीति पर राजनीति

आरजेडी नेता तेजस्वी यादव लंबे समय से डोमिसाइल नीति की वकालत करते रहे हैं. उन्होंने तो यहां तक कहा था कि यदि उनकी सरकार सत्ता में आती है तो वे डोमिसाइल नीति लागू करेंगे. मगर बिहार की महिलाओं के लिए 100 फीसदी डोमिसाइल नीति लागू कर नीतीश कुमार ने यहां भी चुपचाप बाजी मार ली. यह कदम न केवल राजनीतिक रूप से चालाकी भरा है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी नीतीश के कोर वोटर्स यानी महिला वोटरों को सीधा और स्पष्ट संदेश देता है. याद रहे, बिहार में महिलाओं को पहले से ही सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण हासिल है. डोमिसाइल नीति के बाद अब सरकारी नौकरियों में महिलाओं को मिलने वाला 35फीसदी आरक्षण केवल बिहार की मूल निवासी महिलाओं के लिए आरक्षित होगा. इस डोमिसाइल आधारित 'महिला आरक्षण' से जहां बिहार की बेटियों को राहत मिलेगी, वहीं बाहर की महिलाएं अब सामान्य श्रेणी में आएंगी.

यहां यह याद दिला दें कि नीतीश केवल योजनाओं के जरिए ही महिला मतदाताओं को नहीं साध रहे बल्कि घर-घर दस्तक दे रहे हैं. महिला संवाद कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा था. राज्य के 38 जिलों में 52,000 से अधिक महिला संवाद कार्यक्रम आयोजित कर यह बताने की कोशिश की गई कि महिला सशक्तिकरण सिर्फ नारेबाजी नहीं, ठोस रणनीति है.

पेंशन पर विपक्ष की बढ़ी टेंशन

याद करिए जब इस साल मार्च में उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी बजट पेश कर रहे थे, तो विपक्ष के नेता हाथों में तख्तियां लिए पेंशन बढ़ाने की मांग कर रहे थे. लेकिन अब यह मुद्दा भी सरकार ने एक तरह से अपने पक्ष में बदल गया है. दरअसल, नीतीश सरकार ने हाल ही में सामाजिक सुरक्षा पेंशन को 400 रुपये से बढ़ाकर 1100 रुपये कर दिया है. इससे राज्य के एक करोड़ 11 लाख लाभार्थियों को सीधा लाभ मिला है. 11 जुलाई को 1227 करोड़ रुपये सीधे उनके खातों में ट्रांसफर भी कर दिए गए हैं. चूंकि यह चुनावी साल है, इसलिए इस योजना को एक बड़े आयोजन का रूप देकर जनता के बीच उत्सव की तरह प्रस्तुत किया गया.

विपक्ष के हाथ से निकला बड़ा हथियार

सूबे की सियासत में जातिगत जनगणना का मुद्दा लंबे समय से सामाजिक न्याय की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है. राहुल गांधी, तेजस्वी यादव समेत विपक्ष के प्रमुख नेताओं ने इस मुद्दे को पूरी ताकत के साथ उठाया. वे पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने के लिए केंद्र सरकार पर सतत दबाव बना रहे थे. जनता को यह बताया जा रहा था कि जातिगत जनगणना सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समझने और नीति निर्धारण के लिए आवश्यक है. बिहार विधानसभा में इस संदर्भ में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया. नीतीश कुमार के नेतृत्व में जातिगत सर्वेक्षण भी कराया गया. नीतीश इस मुद्दे की गंभीरता समझते थे. दरअसल यह मुद्दा विपक्ष के लिए एक मजबूत राजनीतिक आधार बन चुका था, खासकर मंडल की राजनीति के बाद.

हालांकि, केंद्र की मोदी सरकार ने हाल ही में पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लेकर इस पूरे विमर्श को ही 360 डिग्री घुमा दिया है. इस घोषणा ने विपक्ष को भी हैरान कर दिया, क्योंकि यह उनका एक संवेदनशील चुनावी मुद्दा था. जाति जनगणना कराने के सरकार के फैसले के बाद अब बिहार में विपक्षी दलों के पास सरकार को घेरने का कोई ठोस आधार नहीं बचा है. यह एक ऐसा रणनीतिक दांव है जिसने एक झटके में विपक्ष के हथियार को कुंद कर दिया है. अब उन्हें नए राजनीतिक मुद्दे तलाशने होंगे.राजनीति के जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार 'इश्यू न्यूट्रलाइजेशन' की सबसे परिपक्व रणनीति अपना रहे हैं. ऐसे में विपक्ष के लिए नए मुद्दों की तलाश बड़ी चुनौती है. उन्हें अपनी रणनीतियों में मौलिक बदलाव भी करना होगा. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विपक्ष इस बार नीतीश कुमार की इस 'मुद्दा-छीनने' की राजनीति का कोई प्रभावी तोड़ निकाल पाएगा, या नीतीश एक बार फिर 'सुशासन बाबू' की छवि को और मजबूत कर चुनाव में खुद को और सुदृढ़ कर पाएंगे?

अस्वीकरण: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक समेत कई मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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