प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार ने अपनी किताब 'शांति का समर' के एक लेख में राजघाट और बिड़ला भवन के बीच के अंतर पर बात की है. उनकी राय में राजघाट गांधी के अंत की स्मृति है, उनका समाधि स्थल, जहां जाकर आप कुछ शांति अनुभव कर सकते हैं, लेकिन वह उस इतिहास से आपकी मुठभेड़ नहीं कराता जिसकी वजह से गांघी जी को मरना पड़ा. उनका कहना है कि गांधी की असली स्मृति राजघाट में नहीं, बिड़ला भवन में बनती है. बिड़ला भवन में ही प्रार्थना स्थल तक जाते हुए महात्मा गांधी को नाथूराम गोडसे ने मार डाला था. आप बिड़ला भवन जाएं तो गांधी के पद बने दिखाई पड़ते हैं, वह जगह दिखाई पड़ती है जहां गांधी को गोली मारी गई और आपके भीतर यह जानने की इच्छा पैदा हो सकती है कि आख़िर गांधी को गोली क्यों मारी गई. राजघाट इतिहास से मुठभेड़ की ऐसी आकुलता आपके भीतर पैदा नहीं करता.
कृष्ण कुमार के इस लेख की याद मुझे जालियांवाला बाग के सुंदरीकरण के बाद चल रही बहस को देखते हुए आई. इतिहासकार दुखी हैं कि इस बाग को उसके मूल स्वरूप में नहीं रहने दिया गया. वे याद दिला रहे हैं कि इतिहास का संरक्षण बहुत एहतियात से करना पड़ता है. पुराने स्मारकों को चमकाना या नई शक्ल दे डालना दरअसल इतिहास के साथ खिलवाड़ करना है, उसको मिटा देना है, उसकी ऐसी अनुकृति तैयार करना है जिसमें चमक-दमक और तराश तो हो, लेकिन जान न हो.
जबकि इतिहास की स्मृतियों को धड़कता और सांस लेता हुआ होना चाहिए. वहां पुरानी कराहें सुनाई पड़नी चाहिए. वहां गिरे ख़ून के कतरे हमारी आत्माओं पर पड़ने चाहिए. वहां जाकर किसी को समझ में आना चाहिए कि यह इतिहास क्यों दुहराए जाने लायक नहीं है, इस इतिहास की भूलों से सबक सीखा जाना क्यों ज़रूरी है.
लेकिन जब इतिहास को, उससे जुड़े क़िलों को, उसके खंडहरों को, उसके स्मारकों को आप एक परंपरा के जीवंत हिस्से की तरह देखने को तैयार न हों, उसको एक पर्यटक निगाह से देखना चाहते हों तो आप वही करते हैं जो बीजेपी के बहुमत वाली केंद्र सरकार ने जालियांवाला बाग के साथ किया. जालियांवाला बाग अब इतिहास की धरोहर नहीं है- बस एक पर्यटन स्थल है जहां दुनिया भर के सैलानी आएंगे और देखेंगे कि यहीं कभी अंग्रेज़ों ने गोली चलाई थी और इसी बाग के एक कुएं में लोगों ने कूद कर जान दी थी. बेशक, यह जानकारी वहां हर तरफ़ मिलेगी, लेकिन उसे अनुभव करने लायक माहौल नहीं बचेगा. वहां दीवारों पर दिखने वाली गोलियों के निशानों के बावजूद यह खयाल किसी को रुलाएगा नहीं कि इन छिटकी हुई गोलियों के अलावा बहुत सारी गोलियां ऐसी थीं जो 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी मनाने आए लोगों के, महिलाओं के, बच्चों के कलेजों को चीरती चली गई थीं. जनरल डायर की सिहरा देने वाली क्रूरता बस उत्सुक निगाहों के साथ सुनी जाने वाली एक सूचना भर होगी.
यह साफ़-सुथरा, चमकता-दमकता, कटा-छंटा इतिहास दरअसल उन लोगों को चाहिए होता है जिनका इतिहास से कोई वास्तविक लगाव नहीं होता. उनके लिए कुछ मिथक कथाएं होती हैं, कुछ कपोल कल्पनाएं, कुछ झूठे दर्प की कहानियां, जिनके हिसाब से वे इतिहास को फिर से गढ़ने की कोशिश करते हैं, अपने नायकों को खड़ा करने की जुगत में लगे रहते हैं.
बीजेपी अतीत की बात बहुत करती है, लेकिन अतीत में उतरने का सलीका नहीं जानती. उसके लिए हर स्मृति भव्य और दिव्य होनी चाहिए. उसका राम मंदिर भी भव्य होना चाहिए, उसके राणा प्रताप भी दिव्य होने चाहिए, उसका जालियांवाला बाग़ भी चकाचक होना चाहिए.
भव्यता का अपना एक आकर्षण होता है. लेकिन अतीत, स्मृति या इतिहास भव्यता में गुम हो जाते हैं. उनमें अपनी निरंतरता से जो मानवीय सादगी पैदा होती है, वह भव्य स्थापत्यों से नहीं आती. बल्कि इतिहास इस बात का सबसे निर्मम शिक्षक होता है कि भव्य स्थापत्य जिन महत्वाकांक्षाओं की उपज होते हैं, वे कितनी खोखली होती हैं, कि उन्हें पता भी नहीं होता कि जिन दमकती ऊंचाइयों के लिए उन्होंने न जाने क्या-क्या किया, वे सब खंडहरों में बदल रही हैं. इतिहास और स्मृति इन्हीं खंडहरों में टहलते हैं. इंसान जब यहां जाता है तो इतिहास को ठीक से अपनी नसों में महसूस कर पाता है. यूरोप में कई देशों में दूसरे विश्वयुद्ध की स्मृति इस तरह संजोई हुई है कि लोग वहां दाखिल होते हैं तो बिल्कुल युद्ध की विभीषिका को महसूस करते हुए आते हैं- वहां स्मारकों को सैलानी स्थलों में नहीं बदल दिया गया है.
जालियांवाला बाग के संदर्भ में इसका एक ख़ास मतलब भी है. जालियांवाला बाग़ की स्मृति बस 13 अप्रैल को हुए हत्याकांड की स्मृति नहीं है. वह उसके पहले अमृतसर में घटी उन घटनाओं की स्मृति भी है जिन्होंने भारतीयता को भी पुनर्परिभाषित किया था और आज़ादी के आंदोलन को भी तेज़ कर दिया था. एक तरह से 15 अगस्त 1947 की उल्टी गिनती उन्हीं दिनों से शुरू हो गई थी.
तो वे कौन सी घटनाएं थीं जिनकी वजह से जालियांवाला बाग़ हत्याकांड हुआ? मार्च 1919 में अंग्रेज रॉलैट ऐक्ट लाए थे- वह बेहद सख़्त क़ानून था जिसके तहत लोगों को बिना वजह बताए महीनों गिरफ़्तार रखा जा सकता था. इस क़ानून के विरोध में गांधी जी ने तीस मार्च को भारत बंद रखा था जिसे किसी वजह से बढ़ा कर 6 अप्रैल पर टाल दिया गया. लेकिन अमृतसर ने तीस मार्च को भी बंद रखा और 6 अप्रैल को भी. इस पूरी तरह शांतिपूर्ण बंद की सबसे खास बात यह थी कि इसमें हिंदू-मुस्लिम पूरी तरह एक साथ थे. इस बात ने अंग्रेज़ों के हाथ-पांव फुला दिए. इसी के बाद पंजाब के गवर्नर ड्वायर ने जनरल डायर को अमृतसर में नियुक्त किया. 9 अप्रैल को रामनवमी थी और अंग्रेज़ों को उम्मीद थी कि ये अवसर हिंदू-मुसलमान में दरार पैदा करने के लिए मुफ़ीद रहेगा. लेकिन आंदोलनकारी भी तैयार थे. उन्होंने तय किया कि रामनवमी का ये जुलूस एक मुस्लिम डॉक्टर के नेतृत्व में निकलेगा और उस जुलूस में हिंदू-मुसलमानों के अलग-अलग धड़े नहीं चलेंगे. 9 अप्रैल के उस जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए. अगले दिन आंदोलन के नेताओं को चाय और बातचीत के नाम पर बुला कर गिरफ़्तार कर लिया गया और धर्मशाला रवाना कर दिया गया. लोग इसका विरोध करने निकले, लेकिन सरकारी दफ्तरों तक पहुंचने के लिए जिस पुल को पार करना था, वहां जनरल डायर अपनी घुड़सवार टुकड़ी के साथ खड़ा था. उसने गोली चलाई, बीस लोग मारे गए. यह दस अप्रैल 1909 की घटना थी. इसके बाद अमृतसर वाले पागल हो गए. उन्होंने अंग्रेजों के प्रतिष्ठानों पर हमले किए, पांच अंग्रेज़ों को मार डाला और एक अंग्रेज महिला डॉ शेरवुड के साथ बदतमीज़ी भी की. हालांकि उन्हें कांग्रेस के लोगों ने ही बचाया.
इतिहास की एक गली इस मोड़ पर भी है. जिस गली में डॉ शेरवुड के साथ बदसलूकी हुई थी, वहां अंग्रेजों ने लोगों का चल कर जाना मना कर दिया. सबको बस रेंग कर जाने की इजाज़त थी. बाद में गांधी जी ने इसे जालियांवाला बाग से ज़्यादा ख़ौफ़नाक दमन माना. इसके अलावा पूरे अमृतसर में लड़के टिकरियों में बांध कर पीटे जा रहे थे.
इसके बाद घायल अमृतसर में बैसाखी आती है, लोग आते हैं, डायर आता है, रास्ता बंद किया जाता है, गोलियां चलती हैं और हज़ार से ज़्यादा लोग मारे जाते हैं.
यह वह इतिहास है जो याद दिलाता है कि हिंदू-मुस्लिम एकता का जो हिंदुस्तान बन रहा था, जो काले अंग्रेजी क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, उसे अंग्रेज़ों ने कुचलने की कोशिश की, इसके लिए बहुत ताकत लगाई लेकिन कुचल नहीं पाए. तब जनरल डायर का बयान पढ़िए जो उसने जांच समिति के सामने दिया था. उसने कहा कि उसने जो भी किया वह ब्रिटिश साम्राज्य के लिए किया. वह एक देशभक्त जनरल था.
102 साल बाद हमारे समय में बहुत सारी घटनाएं ऐसी हैं जो उन दिनों की याद दिलाती हैं- हिंदू-मुस्लिम को बांटने की राजनीति, सख़्त क़ानूनों के तहत लोगों को जेल में डालने का रवैया और देशभक्ति का नारा लगाते जुनूनी लोग. जालियांवाला बाग़ अगर एक ज़िंदा स्मारक रहे तो हम-आप यह शायद कुछ हद तक समझ पाएंगे. लेकिन रंगरोगन के साथ सजे-सजाए एक टूरिस्ट स्पॉट पर आपको एक आधा-अधूरा इतिहास मिलेगा जो उन्हीं प्रवृत्तियों को आदर्श बताएगा जिनके ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ी और जीती गई और जिस लड़ाई की कोख से एक नया हिंदुस्तान निकला. यह जालियांवाला बाग के सुंदरीकरण से ही जुड़ा हुआ ख़तरा नहीं है, यह आज़ादी की लड़ाई स्मृति को निष्प्राण बनाने की एक बड़ी परियोजना का हिस्सा भी है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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