इस साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी स्थापना के सौ साल पूरे कर रहा है. अगले तीन दिन सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों से संवाद करने वाले हैं. उनका ये संवाद उसी श्रंखला का हिस्सा है, जो संघ दशकों से करता आया है. विशेष इसलिए है कि क्योंकि दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित हो रहा है. अन्यथा, समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच जाकर उनसे बातचीत करके, संघ के बारे में बताकर, उनके बारे में जानकर, उनके मुद्दों को समझकर और लगातार उनके बीच रहकर संघ संवाद करता रहा है. जब परिस्थिति ऐसी बनी है कि दिल्ली के बौद्धिक वर्ग से सीधा संवाद हो तो वो भी किया जा रहा है. यही कारण है कि संघ आज समाज जीवन के हर पहलू को छू रहा है, प्रभावित कर रहा है और बहुत से स्तर पर विमर्श को आगे बढ़ा रहा है. एक समय संघ का विमर्श देश के अलग-अलग हाशिए के विमर्शों में एक होता था, लेकिन अब अगर देखा जाए तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज देश का मूल विमर्श बन चुका है. बाकी लोग उस पर टिप्पणी करते हैं.
क्या आरएसएस को लेकर अकादमिक जगत ईमानदार रहा
अपने अस्तित्व के सौ साल पूरे करने पर भी एक किशोरावस्था की ऊर्जा रखने वाला संघ अगर और भी प्रासंगिक होकर उभर रहा है तो उसके कई कारण हैं जिन पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया जाना चाहिए जिससे कि दूसरों को भी कुछ सीख मिल सके. संघ को लेकर राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्र में जो विमर्श रहा है वो दरअसल बहुत ही सतही किस्म का रहा है. अगर एंडरसन-दामले जैसे कुछ विद्वानों को छोड़ दें तो संघ पर अकदामिक रूप से लिखने वाले देश और दुनिया के अध्येताओं ने संघ की शाखा देखे बिना, उनके पाठ्यक्रम और मुद्दों को जाने बिना और उनके प्रचारकों और पूर्णकालिकों से मिले बिना ही अपने शोध पूरे कर लिए. इन्हीं की किताबें और लेख हर जगह उपलब्ध हुए. पुरानी सरकारों और शायद विदेशी फंडिंग के दबाव में संघ पर जो शोध परक लेख और किताबें निकलकर आईं उनमें वस्तुपरकता की बहुत कमी दिखाई देती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल मार्च में नागपुर में आरएसएस मुख्यालय का दौरा किया था. आरएसएस मुख्यालय जाने वाले वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे.
एक तरफ, हिंसा का सहारा लेकर लोकतंत्र को खत्म करने में लगे नक्सलवादियों से घने जंगलों में जाकर मुलाकात तो की गई और 'वाकिंग विद कामरेड्स' जैसे लेखों और पुस्तकों में नक्सली हिंसा को सही ठहराने की कवायद तो की गई लेकिन जेएनयू के छोटे से पार्क में लगने वाली शाखा पर एक शोधकर्ता की तरह आकर उसकी कार्यशैली, मुद्दों और लोगों से मिलकर बात करने की कोशिश कभी नहीं की गई.
100 साल से कैसे टिका हुआ है आरएसएस
आज जब संघ अपनी स्थापना के सौ साल पूर कर रहा है तो और भी जरूरी हो जाता है कि उनक कारणों को समझने की कोशिश की जाए जिसकी वजह से संघ एक संगठन, विचार और व्यवस्था के रूप में आगे बढ़ सका. और उसी समय शुरू हुए या बाद में भी शुरू हुए संगठन ऐसा क्यों नहीं कर सके.
इस साल पांच अगस्त को उत्तराखंड के धराली में हुए जल प्रलय के दौरान राहत सामग्री पहुंचाते आरएसएस के स्वयंसेवक.
बहुत सारे कारणों में से एक बड़ा कारण जो मुझे समझ में आया वो ये है कि संघ ने तय किया हिंसा के साथ नहीं लेकिन दृढ़ता के साथ अपनी बात को रखी जाए. जनमत बनाने, लोकमत परिष्कार करने में संघ ने आस्था जताई. पता था कि देश बड़ा है, काम लंबा है और इसमें कई पीढ़ियां खप सकती हैं. लेकिन संघ ने यही रास्ता चुना. एक ऐसे दौर में जहां कुछ हजार हथियारबंद लोगों के साथ सरकारों को पलटना एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों मे आम बात थी, संघ ने जनमत निर्माण का रास्ता चुना. लोगों को साथ खड़ा करना शुरू किया. विरोधी वातावरण में काम करना आसान नहीं होता. एक-एक आदमी जोड़ना जोखिम को न्योता देने जैसा होता है. लेकिन ऐसे में भी संघ और उसके कार्यकर्ता काम में अनवरत लगे रहे. किसी संस्था पर एक बार प्रतिबंध लगता है तो उसका खड़ा होना मुश्किल हो जाता है, लेकिन संघ पर जितनी बार प्रतिबंध लगा वो उतनी ही मजबूती से बाद में उभरकर आया.
हिंसा बनाम संवाद
बिना हिंसा का रास्ता अपनाए, सतत अपनी बात दृढ़ता से कहता रहा. चाहे कश्मीर की पूर्ण एकीकरण का मामला हो या गौ हत्या के खिलाफ आंदोलन या राम मंदिर आंदोलन– संघ के स्वयंसेवक अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहे क्योंकि वो अपनी शाखा में ये पंक्तियां गुनगुनाते थे– स्वयं को तिल तिल जलाकर दीप बनना ही कठिन है, साधना का पथ कठिन है.
उत्तराखंड में आरएसएस के स्वयंसेवकों पर फूल बरसाती महिलाएं.
संघ संस्थापक डॉ केशवराम बलिरामपंत हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष के एक साल बाद राम मंदिर आंदोलन के दौरान जब संघ के स्वयंसेवकों ने घर-घर जाकर एक स्टिकर देना शुरू किया जिस पर लिखा था– हमें हिंदू होने का गर्व है – और वो स्टिकर सहर्ष लोग अपने घरों के बाहर लगाने लग गए तो इससे स्पष्ट हो गया कि जनमत निर्माण का दौर पूरा हुआ और अब एक आम भारतीय औपनिवेशिक सोच से बाहर निकल रहा है. संघ के उस समय के रणनीतिकार बखूबी इस बात को समझ रहे थे स्वामी विवेकानंद का शिकागो से हिंदू जागृति के उस उद्घोष और डॉ हेडगेवार के संगठित हिंदू समाज के स्वप्न को पूरा करने के लिए निर्णायक जनमत की तरफ वो आगे बढ़ चुके हैं, जिसके बाद अब पीछे नहीं देखना होगा. इसके आने वाले सालों में जो हुआ वो हम जानते ही हैं.
डिस्केलमर: लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ाते हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.