रक्तरंजित रही पूर्णिया की राजनीतिक जमीन: बाहुबलियों का दबदबा आज भी कायम, कैसे अपराधी बने 'माननीय'?

पूर्णिया बिहार का एकमात्र ऐसा जिला है जहां दो विधायकों की हत्या उनके कार्यकाल के दौरान हुई है. यहां की राजनीति हमेशा से रक्तरंजित रही है, जहां राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने कई जानें ली हैं. पढ़िए पूर्णिया की रक्तरंजित राजनीति की पूरी कहानी.

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  • 1990 के दशक में पूर्णिया में अपराध और राजनीति का घनिष्ठ संबंध था, कई अपराधी राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हुए.
  • पप्पू यादव ने 1991 के पूर्णिया लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में भाग लिया, चुनाव रद्द भी हुआ था.
  • बूटन सिंह की हत्या के बाद उनकी पत्नी लेशी सिंह ने समता पार्टी से चुनाव जीतकर राजनीतिक विरासत संभाली.
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पूर्णिया:

बिहार का सीमांचल, खासकर पूर्णिया जब 90 के दशक में एक ऐसे दौर से गुजर रहा था जहां अपराध और राजनीति आपस में घुलमिल रहे थे. जहां एक तरफ आपराधिक गिरोह सक्रिय थे, वहीं दूसरी तरफ कई अपराधियों ने राजनीति में कदम रखना शुरू कर दिया था. यह 'राजनीति के अपराधीकरण' का दौर था. अपराध की दुनिया से राजनीति में प्रवेश का यह रास्ता इतना सफल रहा कि कई आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग चुनाव जीतकर माननीय बन गए. कुछ ने तो स्थानीय निकाय चुनावों में जीत हासिल कर खुद को गरीबों का हितैषी कहना शुरू कर दिया. यह सच है कि इस क्षेत्र में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की राजनीतिक सफलता की दर सामान्य उम्मीदवारों से कहीं बेहतर रही है.

पूर्णिया बिहार का एकमात्र ऐसा जिला है जहां दो विधायकों की हत्या उनके कार्यकाल के दौरान हुई है. यहां की राजनीति हमेशा से रक्तरंजित रही है, जहां राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने कई जानें ली हैं.

पूर्णिया लोकसभा चुनाव और पप्पू यादव की जीत 

यह बात 1991 के पूर्णिया लोकसभा चुनाव की है, जब बाहुबली पप्पू यादव (राजेश रंजन) एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे. मतदान के दिन, उनके चुनाव चिन्ह 'नारियल छाप' का प्रभाव इतना अधिक था कि उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे सभी दलों के प्रत्याशी जिला निर्वाचन पदाधिकारी के कार्यालय पहुंचे और धरने पर बैठ गए. उन्होंने पप्पू यादव पर बड़े पैमाने पर बूथ कब्जाने का आरोप लगाया. यह शिकायत चुनाव आयोग तक पहुंची, जिसके बाद तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने जांच के बाद पूर्णिया चुनाव को रद्द कर दिया. उस दौर में बूथ लूटना एक आम बात थी. हालांकि, बाद में 1995 में हुए उपचुनाव में पप्पू यादव विजयी घोषित हुए. 

बाहुबली बूटन सिंह की राजनीतिक विरासत संभाल रहीं लेशी सिंह

90 के दशक में, पूर्णिया जिले में अपराध की दुनिया में लड्डू सिंह और बूटन सिंह (मधुसूदन सिंह) की जोड़ी कुख्यात थी. बूटन सिंह ने अपराध का रास्ता छोड़ राजनीति में कदम रखा. 1995 में, उन्होंने धमदाहा विधानसभा सीट से बिहार पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा. लेकिन बाहुबली छवि वाले जनता दल के प्रत्याशी दिलीप कुमार यादव से हार गए. साल 2000 में, बूटन सिंह ने अपनी पत्नी लेशी सिंह को समता पार्टी के टिकट पर मैदान में उतारा. इस बार, लेशी सिंह ने दिलीप यादव को हराकर जीत हासिल की. इसी बीच, 19 अप्रैल 2000 को, जेल में बंद बूटन सिंह की अदालत परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई. इस घटना को एक राजनीतिक हत्या माना गया और इसका आरोप दिलीप कुमार यादव पर लगा, हालांकि बाद में न्यायालय ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया.

फरवरी 2005 के चुनाव में लेशी सिंह फिर जीतीं, लेकिन नवंबर 2005 के चुनाव में उन्हें दिलीप यादव से हार का सामना करना पड़ा. उसके बाद से, जेडीयू से लेशी सिंह लगातार जीत हासिल कर रही हैं. भले ही लेशी सिंह की खुद की कोई बाहुबली छवि नहीं है, लेकिन उन्हें हमेशा स्वर्गीय बूटन सिंह की राजनीतिक वारिस माना जाता है.

गैंगस्टर से राजनेता बने अवधेश मंडल और शंकर सिंह

90 के दशक में पूर्णिया और मधेपुरा के इलाकों में दो आपराधिक गिरोह सक्रिय थे. नॉर्थ बिहार लिबरेशन आर्मी, जिसका नेतृत्व शंकर सिंह कर रहे थे. फैजान गिरोह, जिसका नेतृत्व अवधेश मंडल कर रहे थे. इन दोनों गिरोहों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में कई लोगों की जानें गईं. बाद में, दोनों गिरोहों से जुड़े लोग राजनीति और ठेकेदारी की दुनिया में आ गए.

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साल 2000 के चुनाव में अवधेश मंडल अपनी पत्नी बीमा भारती को रुपौली विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय विधायक बनाने में सफल रहे. इसी चुनाव में शंकर सिंह भी मैदान में थे, लेकिन उन्हें जीत नहीं मिली. फरवरी 2005 के चुनाव में, शंकर सिंह लोजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते, लेकिन नवंबर 2005 के चुनाव में उन्हें बीमा भारती के हाथों फिर से हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद, बीमा भारती अवधेश मंडल के संरक्षण में लगातार चुनाव जीतती रहीं. साल 2024 में बीमा भारती के इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव में, निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में शंकर सिंह ने जीत हासिल की.

विधायक अजीत सरकार और राजकिशोर केशरी की हत्या

पूर्णिया में दो विधायकों की हत्या ने बिहार की राजनीति में बड़ा भूचाल ला दिया था. 14 जून 1998 को पूर्णिया सदर से माकपा विधायक अजीत सरकार की दिनदहाड़े गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि उन्हें 107 गोलियां मारी गई थीं. इस राजनीतिक हत्या का आरोप पप्पू यादव पर लगा. मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई. 2008 में सीबीआई कोर्ट ने पप्पू यादव को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, हालांकि, 2013 में हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया.

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4 जनवरी 2011 को पूर्णिया सदर से ही भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी की उनके निजी आवास पर दिनदहाड़े चाकू से गोदकर हत्या कर दी गई. हत्यारी रूपम पाठक थी, जो एक निजी स्कूल की संचालिका थी. उसने हत्या से करीब 7 महीने पहले विधायक केशरी और उनके पीए विपिन राय पर यौन शोषण का मामला दर्ज कराया था. इस हत्या के मामले में रूपम पाठक को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है. इन दोनों घटनाओं ने पूर्णिया की राजनीतिक जमीन को रक्तरंजित कर दिया और यह जिला बिहार का एकमात्र ऐसा जिला बन गया जहां दो विधायकों की उनके पद पर रहते हुए हत्या हुई.

अपराध की पाठशाला से पंचायती राज तक

पूर्णिया में बाहुबल के दम पर राजनीति के शिखर पर पहुंचे नेताओं का अनुसरण करते हुए, उनके कई चेले अब पंचायती राज चुनावों के माध्यम से अपनी जगह बना रहे हैं. इनमें बड़ी संख्या में मुखिया, जिला पार्षद और ब्लॉक प्रमुख जैसे अहम पदों पर बैठे लोग शामिल हैं. नगर निकायों में भी ऐसे चेहरों की अच्छी-खासी उपस्थिति है. सामाजिक कार्यकर्ता विकास आनंद के अनुसार, "अपराध की दुनिया से राजनीति में आए लोग आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं. धन-बल के सहारे उन्हें वोट-मैनेजमेंट में आसानी होती है. वहीं, उनकी पिछली आपराधिक छवि उनके लिए एक अतिरिक्त 'योग्यता' का काम करती है."

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