- बिहार में मतदाता अब जाति आधारित राजनीति की बजाय विकास और लाभार्थी योजनाओं को प्राथमिकता दे रहे हैं.
- OBC और EBC मतदाता अब किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं हैं और सीधे सरकारी योजनाओं के लाभ पर वोट कर रहे हैं.
- सवर्ण मतदाताओं ने राष्ट्रीय नेतृत्व, स्थिरता और सुरक्षा को प्राथमिकता दी है. इस बार बिहार में खेला हो सकता है.
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण के मतदान ने यह साफ कर दिया है कि अब भारतीय राजनीति में बदलाव की हवा चल रही है. लंबे समय तक जो चुनाव केवल जाति और परंपरा के नाम पर लड़े जाते थे, अब उनमें लाभार्थी और विकास के मुद्दे प्रमुख हो गए हैं. इस बार का वोट यह दिखाता है कि मतदाता अब केवल पहचान की राजनीति नहीं, बल्कि अपने जीवन में हुए वास्तविक बदलाव को देखकर निर्णय ले रहे हैं. OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) और EBC (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं. इस बार इन वर्गों का वोट पहले की तरह किसी एक पार्टी या जातीय समूह तक सीमित नहीं रहा.
केवल आरक्षण के नारे पर वोट नहीं बटोर सकेंगे
जिन इलाकों में EBC मतदाता अधिक थे, वहां उन्होंने उन पार्टियों को चुना, जिन्होंने उन्हें सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ दिया जैसे आवास, गैस कनेक्शन, या नकद सहायता. अब वोट केवल “आरक्षण” के नारे पर नहीं, बल्कि इस बात पर पड़ रहा है कि किसने उनके जीवन को आसान बनाया.
OBC मतदाताओं में भी बदलाव दिखा. जहां स्थानीय उम्मीदवार मजबूत और भरोसेमंद था, वहां उन्होंने पार्टी नहीं, व्यक्ति को वोट दिया. इसका मतलब यह है कि OBC अब किसी दल का स्थायी वोट बैंक नहीं रहे; वे अब स्वतंत्र और जागरूक मतदाता बन चुके हैं.
सवर्ण वोट ने राष्ट्रीय नेतृत्व, स्थिरता और सुरक्षा को दी प्राथमिकता
सवर्ण यानी ऊंची जातियों के मतदाता अब भी भारतीय राजनीति की एक निर्णायक शक्ति हैं. जिन सीटों पर इनकी हिस्सेदारी 15% से 20% या उससे ज़्यादा है, वहां उन्होंने इस बार भी एकजुट होकर वोट किया. इन मतदाताओं ने जातिगत समीकरणों को नज़रअंदाज़ करते हुए राष्ट्रीय नेतृत्व, स्थिरता, और सुरक्षा को प्राथमिकता दी.
सवर्ण साइलेंट वोट बैंक, आखिरी समय में बदलता है गेम
विशेषज्ञों का मानना है कि यह वर्ग “साइलेंट वोट बैंक” की तरह काम करता है, जो आखिरी समय में फैसला करता है और परिणामों को बड़ा मोड़ दे देता है. यह दर्शाता है कि देश में अब विचारधारा और नेतृत्व आधारित राजनीति भी उतनी ही मजबूत हो चुकी है जितनी जाति आधारित राजनीति हुआ करती थी.
युवा के लिए नौकरी, शिक्षा और रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा
युवा दलित मतदाता अब केवल “सामाजिक न्याय” के नारों से संतुष्ट नहीं हैं. वे चाहते हैं- नौकरी, शिक्षा, और रोज़गार के मौके. जिन पार्टियों ने उन्हें केवल वादे नहीं बल्कि सरकारी योजनाओं का वास्तविक लाभ दिया, उन्हें इन सीटों पर सफलता मिली. इससे यह साफ है कि आरक्षित सीटें अब किसी भी दल के लिए “सुरक्षित” नहीं रह गईं.
इस चुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अब जाति केवल “पहचान” का साधन नहीं, बल्कि आर्थिक वर्ग के रूप में उभर रही है. मतदाता अब यह नहीं सोच रहे कि वे किस जाति से हैं, बल्कि यह कि उन्हें सरकार से क्या लाभ मिला है?
पहचान से प्रदर्शन की ओर बढ़ रही राजनीति
OBC, SC या सवर्ण, सब अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं. किसी के लिए घर, किसी के लिए नौकरी, किसी के लिए स्कॉलरशिप, यही असली वोट का कारण बन रहा है. यह बदलाव बताता है कि भारत अब पहचान की राजनीति से प्रदर्शन की राजनीति की ओर बढ़ रहा है.
जाति नहीं विकास तय कर रहा वोटिंग पैटर्न
सीटवार डेटा बताता है कि भारतीय लोकतंत्र अब पहले से कहीं अधिक जटिल और परिपक्व हो चुका है. OBC, EBC, सवर्ण और SC,हर वर्ग अब जागरूक है और “जाति” और “वर्ग” के बीच संतुलन साध रहा है.
जिस भी दल ने सिर्फ जातिगत समीकरणों पर भरोसा करने के बजाय वास्तविक कल्याणकारी काम किया, उसी ने जनता का दिल जीता है. भारतीय राजनीति की यह नई दिशा बताती है कि अब वोट जाति नहीं, विकास तय कर रहा है. अब नारे नहीं, अनुभव बोल रहे हैं.
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