- इजरायली सेना ने 13 जून को ईरान पर हमला शुरू किया जिसके बाद से दोनों देश के बीच जंग के हालात हो गए हैं.
- इजरायल और ईरान दोनों एक दूसरे पर पूरी ताकत के साथ हमला कर रहे हैं.
- उन 2 देशों के बीच एक पूर्ण सशस्त्र संघर्ष की आशंका बढ़ गई जो कभी दोस्त थे, यहां तक कि पार्टनर भी.
13 जून की सुबह इजरायली सेना ने पूरे ईरान पर हमला शुरू कर दिया. इजरायल ने ईरान के परमाणु सुविधाओं और सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया, जिसमें परमाणु वैज्ञानिकों और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के कई टॉप अधिकारियों की मौत हो गई. तेहरान ने दावा किया कि रिहायशी इलाके पर भी हमला (Israel Iran War) किया गया और नागरिकों की मौत हुई.
इजरायल ने यह हमला उस समय किया जब ईरान और अमेरिका के बीच न्यूक्लियर डील को लेकर बातचीत हो रही ती. एक तरफ तेहरान का कहना है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है, वहीं तेल अवीव इसे अपने अस्तित्व के लिए "खतरा" मानता है.
और फिर 13 जून की शाम तक ईरान ने जवाब दिया, इजरायली सैन्य स्थलों पर बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं. कुछ मिसाइलों ने इजराइल के फेमस 'आयरन डोम' एयर डिफेंस को भी पार कर लिया, और मध्य तेल अवीव के कुछ हिस्सों को निशाना बनाया, जहां इजराइली रक्षा बलों का मुख्यालय है.
इन हमलों ने गाजा पर इजरायली हमलों के बाद से मिडिल ईस्ट में तनाव को और बढ़ाने का काम किया है. इससे उन 2 देशों के बीच एक पूर्ण सशस्त्र संघर्ष की आशंका बढ़ गई जो कभी दोस्त थे, यहां तक कि पार्टनर भी.
जब ईरान और इजरायल 'दोस्त' थे
1948 में, पश्चिम एशिया के अधिकांश मुस्लिम-बहुल देशों ने नए-नए देश बने इजरायल को मान्यता देने से इनकार कर दिया था. लेकिन उस समय बड़े अपवाद शिया-बहुसंख्यक ईरान और तुर्की थे. ये इस्लामी देश थे जिन्होंने इजरायल के संप्रभु राज्य को मान्यता दी थी. कनेक्शन अमेरिका था.
उस समय ईरान, शाह मोहम्मद रजा पहलवी के नेतृत्व में, सचेत रूप से पश्चिम के करीब चला गया था, और शीत युद्ध के दौरान खुद को अमेरिका का एक प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगी साबित कर दिया था. इजरायल के नवगठित देश को अस्तित्व में बने रहने के लिए अमेरिकी समर्थन की आवश्यकता थी, और उसे ईरान के रूप में एक स्वाभाविक पार्टनर मिल गया.
और फिर, अगले कुछ दशकों में इजरायल के पूर्व प्रधान मंत्री डेविड बेन गुरियन ने अपने परिधि सिद्धांत के माध्यम से देश का नेतृत्व किया. उन्होंने इस तरह गैर-अरब देशों के साथ सहयोग करने का एक प्रयास किया. इसमें ईरान, तुर्की और इथियोपिया प्रमुख खिलाड़ी बनकर उभरे.
और ईरान में व्यापार और बुनियादी ढांचे के विकास को इजरायल ने अपना समर्थन दिया था. ऐसा लग रहा था कि सब कुछ ठीक चल रहा है. लेकिन फिर 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति हुई और ईरान-इजरायल संबंधों में एक बुनियादी बदलाव आया. यह बदलाव शाह के तख्तापलट और अयातुल्ला रुहोल्लाह खामेनेई के तहत इस्लामी गणराज्य की स्थापना के कारण हुआ.
ब्रेकअप
ब्रेक-अप का वक्त आ गया था. सहयोग के समय में भी ईरान में इस्लामी तत्व थे जो फिलिस्तीनियों की वकालत कर रहे थे, अक्सर अपने उपयोग के लिए धन जुटाते थे. 1979 के बाद अचानक बहुत कुछ बदल गया. उदाहरण के लिए, ईरान ने इजरायली पासपोर्ट स्वीकार करने से इनकार कर दिया, और ईरानी पासपोर्ट होल्डर्स को "कब्जे वाले फिलिस्तीन" की यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया गया. साथ ही इजरायल को 'इस्लाम का दुश्मन' और 'छोटा शैतान' घोषित कर दिया गया.
1980 और 90 के दशक में ईरान सशस्त्र समूहों के स्पॉन्सर के रूप में उभरा- शुरू में लेबनान में हिजबुल्लाह और फिर अन्य, जैसे यमन में हूती और बाद में गाजा में हमास. अब सिर्फ आर्थिक सहायता नहीं की जा रही थी, इन सशस्त्र समूहों को सक्रिय प्रशिक्षण दिया जा रहा ता, और फिर उन्हें इजरायल पर हमले शुरू करने के लिए हथियार दिया जाने लगा.
अगले दशक में दोनों देशों के बीच रिश्ते और तेजी से तल्ख होने लगे. दिसंबर 2000 में अयातुल्ला अली खामेनेई ने इजरायल को 'कैंसर का ट्यूमर' कहा था जिसे इस क्षेत्र से हटा दिया जाना चाहिए और पांच साल बाद कहा, 'फिलिस्तीन फिलिस्तीनियों का है... भाग्य का निर्धारण फिलिस्तीनी लोगों द्वारा किया जाना चाहिए.'
ईरान का प्रॉक्सी नेटवर्क- हमास पतन की ओर था. उसके साथ-साथ ईरान की नई भेद्यता ने इजरायल के लिए हमला करने और ईरान-इजरायल संबंधों में एक और खूनी अध्याय लिखने का अवसर पैदा किया.