अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) की सत्ता को चुनौती देने की मंशा रखने वाले ताक़तों के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि उनकी अगुवाई कौन करे. ये सवाल इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि पंजशीर घाटी (Panjshir Ghati) के तालिबान के कब्ज़े में चले जाने बाद अहमद मसूद और अमरुल्लाह सालेह के नेतृत्व की क्षमता संदेश के घेरे में आ गया है. तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूती से अपनी सत्ता जमा ली है लेकिन जिस तरह से 90 के दशक और उसके बाद के समय में भी नार्दर्न अलायंस (Northern Alliance) के तौर पर पंजशीर घाटी (Panjshir Valley) से उसे चुनौती मिली थी इस बार ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा. कुछ सूत्र बताते हैं कि अभी अहमद मसूद पेरिस और दुशाम्बे संचालन की कोशिश कर रहे हैं वहीं सालेह भी दुशाम्बे में ही देखे गए हैं.
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पंजशीर घाटी के हाथ से जाने के बाद तालिबान विरोधी कमांडर्स (Anti Taliban Forces) अहमद मसूद को दोष दे रहे हैं कि उनके हाथ पैर मसूद ने बांधे रखे और सही समय पर सही फ़ैसला नहीं लिया. वहीं अमरुल्लाह सालेह तालिबान विरोधी गुटों में उतनी पैठ और मान्यता नहीं है.ऐसे में जो नाम सामने आया है वो है अब्दुल रसूल सय्यफ़ का. 74 साल के सय्यफ़ मुजाहिद कमांडर रहे हैं. ये सांसद भी बने. अगस्त में काबुल में अशरफ़ ग़नी की सत्ता जाने के बाद से ये भारत में हैं ऐसा कहा जा रहा है.
इस्लामी विद्वान के तौर पर ये पख़्तूनों के बीच उस्ताद सय्यफ़ के तौर पर मशहूर हैं. लेकिन सवाल इस बात पर भी है कि जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में हालात जटिल हैं और जिस तरह से तालिबान विरोधी ताक़तें बिखरी हुई हैं, ऐसे में उस्ताद सय्यफ़ क्या नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहेंगे और ले भी लिया तो बिना दुनिया के उन देशों के सहयोग के क्या कर पाएंगे जो अभी तालिबान को समझाने बुझाने की कोशिश में लगे हैं और उसके ख़िलाफ़ कोई मोर्चा खोलने के मूड में नहीं हैं.
नार्दन अलायंस का नेतृत्व करने वाले अहमद शाह मसूद इसलिए भी क़ामयाब रहे क्योंकि उस समय अमेरिका समेत दुनिया के कई देश उनके पीछे खड़े थे.
तालिबान के कब्ज़े के बाद कई अफ़गान नेता तुर्की, ईरान, ताज़िकिस्तान और मध्य पूर्व के कुछ देशों में शरण लिए हुए हैं. ये सभी तालिबान की सत्ता को चुनौती देना चाहते हैं लेकिन इनके सामने नेतृत्व का संकट है.
अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में अब्दुल रसूल सय्यफ़ की भूमिका अहम रही है. ये नार्दन अलायंस से भी जुड़े रहे और उस समय से ही ये भारत के साथ भी नज़दीकी संपर्क में रहे. देखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान की समस्या को हल करने की दिशा में इनको किस तरह से तैयार और आगे किया जाता है.
उधर तालिबान के बीच भी मतभेद है. हक्कानी गुट के चरमपंथी रवैये और मुल्ला बरादर के गुट के बीच अपेक्षाकृत नरमपंथी रुख के बीच खींचतान जारी है. ईरान की तरफ़ से भरसक कोशिश हो रही है कि हक्कानी गुट की महत्वाकांक्षाओं को काबू में रखा जाए. लेकिन इसके वो शिया और फारसी बोलने वाले नेताओं को तालिबान की सरकार में शुमार कराने की कोशिश में लगातार लगा हुआ है. कय्यूम ज़ाकिर और और सदर इब्राहिम को शामिल करा उसे थोड़ी क़ामयाबी भी मिली लेकिन ये काफ़ी नहीं है.
ताक़तवर चुनौती के तौर पर अगर सय्यफ़ खड़े हों और रेसिस्टेंस फोर्सेस को एकजुट कर पाएं तो शायद तालिबान थोड़ा बहुत सोचने पर मजबूर हो.