जब जेएनयू में नक़ाबपोश आ सकते हैं तो वो अब कहीं भी आ सकते हैं. उनके चेहरे पर नकाब तो चढ़ा था मगर आप दर्शकों के चेहरे पर तो नकाब नहीं है. रात के अंधेरे में लाठी डंडे और लोहे के रॉड के साथ जब अपराधी नकाब ओढ़ लें तो आप अपना टॉर्च निकाल कर रखिए. अपराधी तो नहीं ढूंढ पाएंगे कम से कम रात के अंधेरे में पलंग के भीतर कहीं कोने में दुबके उस लोकतंत्र को ढूंढ पाएंगे जिसे हिंसा की इन तस्वीरों के ज़रिए ख़त्म किया जा रहा है. आपके भीतर से जेएनयू को खत्म किया जा रहा है ताकि आप नकाबपोश गुंडों को भी देश भक्त समझने लगें. पांच साल के दौरान गोदी मीडिया और सोशल मीडिया के ज़रिए आपके भीतर एक अच्छी यूनिवर्सिटी को इस कदर खत्म कर दिया गया है कि बहुत से लोग नकाब पोश गुंडों को देखते हुए नहीं देख पा रहे हैं. कोई 90 साल पहले भी लोग इसी तरह नहीं देख पाए थे जब प्रोपेगैंडा की सनक उन पर हावी हो गई थी. वो देश कुछ और था, ये देश भारत है.