इंसान की जान की कोई कीमत नहीं है. इसकी कीमत तय करने से पहले हम जाति लगाते हैं, धर्म लगाते हैं, भाषा लगाते हैं और मुल्क लगाते हैं. वैसे ये सब लगा देने के बाद भी गारंटी नहीं है कि जान की कीमत समझी ही जाएगी. हमारे नेताओ ने हमें यही सीखाया है कि मानवाधिकार नक्सलवाद और आतंकवाद का समर्थन करता है. बड़े आराम से हम भूल जाते हैं कि मानवाधिकार आयोग एक संवैधानिक संस्था है और मानवाधिकार की बात करना हमारा संवैधानिक नागरिक दायित्व है. अगर मानवाधिकार के सवाल उठाने का मतलब आतंकवाद का समर्थन है तो मानवाधिकार के नाम पर बनी संस्थाओं के प्रमुख क्या है और क्यों हैं.