यह पृथ्वी रहेगी, मुझे विश्वास है. यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में यह रहेगी. जैसे पेड़ के तने में रहते हैं दीमक जैसे दाने में रह लेता है घुन. यह रहेगी प्रलय के बाद भी रहेगी. यदि और कही नहीं तो मेरी जुबान और मेरी नाश्वरता में यह रहेगी. और एक सुबह मैं उठूंगा, मैं उठूंगा पृथ्वी समेत जल और कच्छप समेत. मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने जिससे वादा है कि मिलूंगा. यह कविता है केदारनाथ सिंह की जो अब हमारे बीच नहीं हैं. वो काफी समय से बीमार चल रहे थे. देखिए कवि केदारनाथ सिंह पर यह खास रिपोर्ट.