रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया, यानी भारतीय रिजर्व बैंक या RBI या Reserve Bank of India द्वारा देश की आर्थिक नीतियों की समीक्षा और प्रमुख ब्याज दरें - रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट - आदि को घटाने या बढ़ाने या बदलाव नहीं करने के समाचार हम अक्सर पढ़ते हैं. जब भी दरों को घटाया या बढ़ाया जाता है, आम आदमी भी इन बदलावों से कतई अछूता नहीं रहता, क्योंकि इसके बाद बैंक वगैरह उनके दिए कर्ज़ों, यानी लोन पर ब्याज़ दरों को घटा या बढ़ा देते हैं. दूसरी ओर, आम आदमी लोन की EMI के घटने-बढ़ने के अलावा इन शब्दों का अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पाता, और इनके अर्थ और असर के बारे में जानने की इच्छा उसके मन में बनी रहती है, क्योंकि कभी-कभी तो इन शब्दों का अर्थ समझे बिना ख़बर को सही अर्थों में समझना भी कठिन हो जाता है. आइए, आपको बताते हैं - इस तरह के समाचारों में प्रयोग किए जाने वाले शब्दों - रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और CRR - का अर्थ क्या होता है.
Repo Rate (रेपो रेट या Repurchase Rate)
रोज़मर्रा के कामकाज के लिए सभी बैंकों को कभी-कभार बड़ी रकम की आवश्यकता पड़ती है, और ऐसे परिस्थिति में उनके पास सबसे सरल विकल्प होता है कि वे देश के केंद्रीय बैंक, यानी RBI से अल्पावधि ऋण, यानी कर्ज़ लें. इस तरह के ओवरनाइट कर्ज़ पर रिज़र्व बैंक जिस दर से उनसे ब्याज वसूल करता है, उसे रेपो रेट (Repo Rate) कहते हैं.
Reverse Repo Rate (रिवर्स रेपो रेट)
इसके तो नाम से ही स्पष्ट है कि यह रेपो रेट के उलट है. अब सोचिए, कभी-कभी दिन-भर के कामकाज के बाद बैंकों के पास बड़ी रकम बची रह गई, तो बैंक उस रकम को अल्पावधि के लिए रिज़र्व बैंक में जमा कर दिया करते हैं, जिस पर उन्हें RBI से ब्याज़ हासिल होता है. इस ओवरनाइट रकम पर RBI जिस दर से बैंकों को ब्याज़ देता है, उसे रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate) कहते हैं.
CRR (Cash Reserve Ratio या नकद आरक्षित अनुपात या सीआरआर)
बैंकिंग के लिए भारत में लागू नियमों के अंतर्गत हर बैंक को अपने पास मौजूद कुल कैश रिज़र्व का एक तयशुदा हिस्सा RBI के पास रखना अनिवार्य होता है, और इसे ही कैश रिज़र्व रेशो (नकद आरक्षित अनुपात) या CRR (सीआरआर) कहा जाता है.
दूसरी तरफ़, CRR बढ़ने की हालत में सभी बैंकों को RBI के पास ज़्यादा बड़ी रकम रखनी होगी, और बैंक के पास कर्ज़ देने के लिए रकम कम हो जाएगी. इसके उलट, बाज़ार में नकदी बढ़ाने के लिए CRR को घटाया जाता है. अहम तथ्य यह है कि CRR में बदलाव उसी हालत में किया जाता है, जब बाज़ार में नकदी की तरलता पर तुरंत प्रभाव नहीं डालना हो, क्योंकि रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में बदलाव का असर जितना जल्दी बाज़ार पर पड़ता है, CRR में बदलाव का असर उससे कहीं ज़्यादा वक्त लिया करता है.