जानें, क्या हैं रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और सीआरआर...?

आज हम आपको बताने जा रहे हैं, हर बार आर्थिक ख़बरों में इस्तेमाल होने वाले शब्दों - रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और सीआरआर - के अर्थ...

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रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट क्या हैं, यह जानना आम आदमी के लिए भी ज़रूरी है...
नई दिल्ली:

भारतीय रिजर्व बैंक, यानी रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (Reserve Bank of India या RBI) द्वारा आर्थिक नीतियों की समीक्षा के दौरान प्रमुख ब्याज दरें - रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट - घटाने या बढ़ाने की ख़बरें हम सब पढ़ते ही रहते हैं, और बुधवार सुबह भी RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने रेपो रेट को 25 बेसिस प्वाइंट बढ़ाने का ऐलान किया. लगातार छठी बढ़ोतरी के बाद अब भारत में रेपो रेट 6.5 फीसदी पर पहुंच गया है.

आम आदमी को भी इस बढ़ोतरी से शर्तिया फर्क पड़ता है, क्योंकि इसके बाद बैंक आदि अपने द्वारा दिए जाने वाले लोन पर ब्याज़ की दरों को बढ़ा दिया करते हैं. लेकिन आम आदमी को इन ख़बरों में इस्तेमाल किए गए शब्दों के बारे में जानने की न सिर्फ इच्छा बनी रहती है, बल्कि इस शब्दावली के अर्थ जाने बिना ख़बर को समझना भी मुश्किल हो जाता है... तो आइए जानते हैं, हर बार इस तरह की ख़बरों में इस्तेमाल होने वाले शब्दों - रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और सीआरआर - के अर्थ...

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रेपो रेट (Repurchase Rate or Repo Rate)
बैंकों को भी रोज़मर्रा के कामकाज के लिए बड़ी-बड़ी रकमों की ज़रूरत पड़ती रहती है, और इन हालात में उनके लिए देश के केंद्रीय बैंक, यानि भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) से कर्ज़ लेना सबसे आसान विकल्प होता है... इस तरह के ओवरनाइट ऋण पर रिज़र्व बैंक जिस दर से उनसे ब्याज वसूल करता है, उसे रेपो रेट कहते हैं...

अब आप आसानी से समझ सकते हैं कि जब बैंकों को कम दर पर ऋण उपलब्ध होगा, वे भी ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अपनी ब्याज दरों को कम कर सकते हैं, ताकि ऋण लेने वाले ग्राहकों में ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ोतरी की जा सके, और ज़्यादा रकम ऋण पर दी जा सके... इसी तरह यदि रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी करेगा, तो बैंकों के लिए ऋण लेना महंगा हो जाएगा, और वे भी अपने ग्राहकों से वसूल की जाने वाली ब्याज दरों को बढ़ा देंगे...

रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate)
जैसा इसके नाम से ही साफ है, यह रेपो रेट से उलट होता है... जब कभी बैंकों के पास दिन-भर के कामकाज के बाद बड़ी रकमें बची रह जाती हैं, वे उस रकम को रिज़र्व बैंक में रख दिया करते हैं, जिस पर आरबीआई उन्हें ब्याज़ दिया करता है... रिज़र्व बैंक इस ओवरनाइट रकम पर जिस दर से ब्याज़ अदा करता है, उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं...

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दरअसल, रिवर्स रेपो रेट बाज़ारों में नकदी की तरलता को नियंत्रित करने में काम आती है... जब भी बाज़ारों में बहुत ज्यादा नकदी दिखाई देती है, आरबीआई रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक ज़्यादा ब्याज कमाने के लिए अपनी रकमें उसके पास जमा करा दें, और इस तरह बैंकों के कब्ज़े में बाज़ार में छोड़ने के लिए कम रकम रह जाएगी...

नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio  or CRR - सीआरआर)
देश में लागू बैंकिंग नियमों के तहत प्रत्येक बैंक को अपनी कुल कैश रिज़र्व का एक निश्चित हिस्सा रिज़र्व बैंक के पास रखना ही होता है, जिसे कैश रिज़र्व रेशो अथवा नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) कहा जाता है...

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ऐसे नियम इसलिए बनाए गए हैं, ताकि यदि किसी भी वक्त किसी भी बैंक में बहुत बड़ी तादाद में जमाकर्ताओं को रकम निकालने की ज़रूरत महसूस हो, तो बैंक पैसा चुकाने से इन्कार न कर सके... सीआरआर ऐसा साधन है, जिसकी सहायता से आरबीआई बिना रिवर्स रेपो रेट में बदलाव किए बाज़ार से नकदी की तरलता को कम कर सकता है...

सीआरआर बढ़ाए जाने की स्थिति में बैंकों को ज़्यादा बड़ा हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना होगा, और उनके पास ऋण के रूप में देने के लिए कम रकम रह जाएगी... इसी के विपरीत बाज़ार में नकदी बढ़ाने के लिए रिजर्व बैंक सीआरआर को घटाया करता है... लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सीआरआर में बदलाव तभी किया जाता है, जब बाज़ार में नकदी की तरलता पर तुरन्त असर न डालना हो, क्योंकि रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में बदलाव की तुलना में सीआरआर में किए गए बदलाव से बाज़ार पर असर ज़्यादा समय में पड़ता है...

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