सोशल मीडिया युवाओं के लिए हो रहा बेहद घातक, डिप्रेशन, ड्रग्स और आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं भारतीय : शोध

1995 से लेकर 2012 के बीच पैदा हुए बच्चे यानी 'Generation Z' में सोशल मीडिया की लत नई चिंताएं पैदा कर रही हैं. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म कइयों को सशक्त कर रहा है, तो कइयों के मनोरंजन का बड़ा साधन है, वहीं कुछ इसकी लत से मानसिक तनाव, डिप्रेशन, नींद की दिक़्क़त, ग़ुस्सा जैसी समस्याओं का शिकार हो रहे हैं.

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मुंबई:

बच्चे हमारा भविष्य हैं! पर क्या इनका भविष्य क्या सोशल मीडिया से प्रभावित हो रहा है? हाँ, तो किस हद तक. GenZ पर हुए एक ऑनलाइन अध्ययन में चिंतित करने वाले आँकड़े आये हैं. एनडीटीवी ने भी इस एज ग्रुप के बच्चों-किशोर से बात की तो पाया सोशल मीडिया की आदत, लत बन चुकी है और उनके नाज़ुक सोच को बड़ी आसानी से कंट्रोल करती है.

ये GenZ कहलाये जाते हैं?

1995 से लेकर 2012 के बीच पैदा हुए बच्चे यानी 'Generation Z' में सोशल मीडिया की लत नई चिंताएं पैदा कर रही हैं. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म कइयों को सशक्त कर रहा है, तो कइयों के मनोरंजन का बड़ा साधन है, वहीं कुछ इसकी लत से मानसिक तनाव, डिप्रेशन, नींद की दिक़्क़त, ग़ुस्सा जैसी समस्याओं का शिकार हो रहे हैं.

क्या कहते हैं यूजर्स?

एक यूज़र ने कहा, मेरा स्क्रीनटाइम कोविड के समय 12 घंटे का था. अब साढ़े तीन घंटे का हुआ है लेकिन नींद नहीं आती. बॉडी क्लॉक ही बदल गया. मैं पूरा दिन फ़ोन पर रहता है, वॉलीबॉल प्लेयर हूं लेकिन कोविड में फ़ोन ऑनलाइन गेम की लत के कारण आउटडोर खेलना छोड़ दिया.पहले टाइमपास के लिये बकवास फीड देखता था अब समझ आया मेरे ग्रेड उसके कारण ख़राब हुआ, अब बदल गया हूँ लेकिन लत तो अभी भी है.

एक अन्य यूज़र ने कहा,  एक दो दिन शायद ट्राय कर लें लेकिन सोशल मीडिया के बिना क्या करेंगे. पूरा मनोरंजन हमें वहीं से मिलता है. मुझे दुनिया की जानकारी वहाँ से मिलती है. मैं सिर्फ़ इनफार्मेशन लेता हूँ प्लेटफार्म से. ग़लत चीज़ें नहीं सीखता. लेकिन जिन्हें सीखना हो ग़लत वो शायद आसानी से इसके ज़रिये बहक सकते हैं.

दरअसल, एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स द्वारा कमीशन किए गए टॉकर रिसर्च के एक हालिया अध्ययन ने GenZ के मानसिक स्वास्थ्य पर सोशल मीडिया के प्रभाव को लेकर चिंता जताई है.
  1. 12 साल से लेकर लेट 20s वाली इस एज ग्रुप पर हुए ऑनलाइन अध्ययन में पाया गया है कि चार में से तीन GenZ अपने मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव के लिए सोशल मीडिया को दोषी मानते हैं.
  2. शोध से पता चला है कि GenZ आबादी का 62% हिस्सा 'रीसेट' बटन दबाकर अपना फ़ीड बदलना चाहता है और और फिर से शुरू करना चाहता है. ये अध्ययन 20 जून से 24 जून, 2024 के बीच किया गया था.
  3. 53% से ज़्यादा पार्टिसिपेंट्स ने बताया कि वे अपने फ़ीड पर मौजूद सामग्री से निराश थे क्योंकि ये उनकी प्राथमिकताओं और रुचियों के अनुरूप नहीं थी.
  4. शोध से पता चलता है कि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के 38 मिनट के भीतर तनाव और बेचैनी महसूस होने लगती है.

सोशल मीडिया से हताश हो रहें युवा

  1. सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करने से GenZ  के लगभग आधे 49% युवाओं में तनाव और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाएं पैदा होती हैं. इसके अलावा, शारीरिक हिंसा, राजनीति और यौन संबंधी फ़ीड नकारात्मक भावनाओं का कारण बनती है.
  2. तमाम नकारात्मकता के बावजूद, GenZ को सोशल मीडिया छोड़ना मुश्किल लगता है. 66% ने सोशल मीडिया साइट्स पर वापस आने का मुख्य कारण 'बोरियत' बताया.

डॉक्टर की राय

बीएमसी के केईएम अस्पताल से जुड़ीं 30 वर्षों के अनुभव वाली प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. नीना सावंत बताती हैं कि हफ़्ते में दो दिनों के लिए चलने वाले इनके बच्चों की ओपीडी में क़रीब 25 ऐसे बच्चे आते हैं जो किसी तरह मोबाइल, स्क्रीनटाइम की लत का शिकार हैं. और मानसिक-शारीरिक तकलीफ़ से गुज़र रहे हैं. ये ट्रेंड कोविड के बाद बढ़ा है. 

केईएम अस्पताल के  मनोचिकित्सक  डॉ नीना सावंत ने बताया कि कोविड के बाद डेफनिट्ली बढ़ा है, बच्चों में ग़ुस्सा, डिप्रेशन, एंजाइटी बहुत बढ़ी है, इसके कारण क्रिमिनल एक्टिविटी, आत्महत्या एटेम्पट,  ड्रग्स की लत ये सब बढ़ा है, स्क्रीनटाइम कम करना होगा. सोशल मीडिया एडिक्शन को किसी तरह क़ाबू करना होगा. वायलेंट फीड को कंट्रोल या रेगुलेट करना चाहिए, वायरल ना हो ताकि इस एज ग्रुप को प्रभावित ना करे. GenZ का ये हाल है तो Gen Alfa तो AI के दौर में बढ़ रहे हैं सोचिए उनपर क्या असर होगा.

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“इंडियाज़ इंटरनेशनल मूवमेंट टू यूनाइट नेशंस” युवाओं की बड़ी संस्था है. पूरी संस्था GenZ ही चला रहे हैं. इस एज ग्रुप की ताक़त क्षमता तारीफ़ काबिल है. लेकिन ये भी मानते हैं कि इनकी जेनरेशन सोशल मीडिया के बिना नहीं जी सकती

सोशल मीडिया की शक्ति कई तरह से क्रांति ला रही है. लोगों को सशक्त कर रही है. पर ऑनलाइन की इस असीम दुनिया में कुछ ऐसे सामग्रियों का समावेश भी है जो इस नाज़ुक एज ग्रुप को ग़लत दिशा भी दिखा जाती है या मानसिक रूप से प्रभावित करती है. इससे बचने और संभलने के उपाय मेडिकल एक्सपर्ट्स को भी उलझन में डाले हुए है. अब दौर आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का है तो चिंता और बढ़ी है.

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