जब आवारा कुत्ता मारने वाले को अंग्रेज सरकार से मिलती थी अठन्नी, मुंबई में कुत्तों को लेकर भड़क उठा था दंगा

19 वीं सदी में एक ऐसा दौर आया था जब मुंबई शहर (तब का बॉम्बे) में आवारा कुत्तों की आबादी काफी बढ़ गयी थी. कुत्तों के काटे जाने और बीमारियों की वजह से अंग्रेज परेशान थे.

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  • ब्रिटिश शासनकाल में मुंबई में आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या के कारण उन्हें मारने की नीति लागू की गई थी
  • 1832 में सरकार ने आवारा कुत्ते मारने वाले नागरिकों को आठ आने ईनाम देने की व्यवस्था की
  • ईनाम नीति के कारण कई पालतू कुत्तों को भी गलत तरीके से पकड़कर मार दिया गया था
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मुंबई:

इन दिनों देश में चर्चा आवारा कुत्तों के आतंक पर हो रही है और सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर अंतिम आदेश के आने का इंतजार है. मुंबई में अंग्रेजों के जमाने में आवारा कुत्तों को खत्म करने के लिये कई क्रूर तरीके अपनाये जाते थे. उस दौर में अंग्रेज सरकार ने आवारा कुत्तों को मारने के लिये ईनाम का भी ऐलान किया था. हर आवारा कुत्ते को मारने के बदले सरकार लोगों को आठ आने का ईनाम देता थी.

19 वीं सदी में एक ऐसा दौर आया था जब मुंबई शहर (तब का बॉम्बे) में आवारा कुत्तों की आबादी काफी बढ़ गयी थी. कुत्तों के काटे जाने और बीमारियों की वजह से अंग्रेज परेशान थे. बिना किसी मालिक वाले और गलियों में घूमने वाले कुत्तों को अंग्रेज “परिया डॉग” कहते थे. 1813 में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने ऐसे कुत्तों को खत्म करने की नीति बनायी. इस नीति के तहत हर साल अप्रैल 15 से लेकर मई 15 और सितंबर 15 से लेकर अक्टूबर 15 तक प्रशासन आवारा कुत्तों को पकड कर उन्हें मार देता था. कुत्तों को पीटपीटकर, गोली मार कर, गैस चेंबर में फैंक कर या फिर जहर देकर मारा जाता था.

जब आवारा कुत्तों को खत्म करने की मौजूदा तरकीबें कारगर नहीं हुईं तो फिर 1832 में अंग्रेज सरकार ने एक नयी नीति का ऐलान किया. इस नीति के तहत फैसला लिया गया कि आवारा कुत्तों को मारने वाले नागरिकों को शहर के मजिस्ट्रेट की ओर से ईनाम दिया जायेगा. ईनाम की रकम हर मारे गये कुत्ते पर आठ आने की थी. उस दौर में अठन्नी बडी रकम थी. इसके बाद मुंबई में बडे पैमाने पर कुत्तों को लोग मारने लगे. ईनाम के लालच में कई युवाओं के गुट बन गये जिनमें ज्यादा से ज्यादा कुत्तों को मारने की होड लगी रहती थी.

ईनाम के ऐलान के बाद कुत्तों को अमानवीय तरीके से तो मारा जाता ही था, इसका एक और दुष्परिणाम ये देखने मिला कि कई पालतू कुत्तों को भी पकड कर मार दिया जाता था. कई बार कुत्ता पकडने वालों की टोलियां लोगों के घर में घुसकर उनका कुत्ता छीन लेतीं. 6 जून 1932 को जब एक पारसी व्यकित से कुछ लोग उसका कुत्ता छीन रहे थे तो वहां पुलिस पहुंच गयी और पुलिस वालों ने पारसी शख्स की ही पिटाई कर दी.पारसी समुदाय कुत्तों को पवित्र मानता है और इस घटना की बडी प्रतिक्रिया देखने मिली. पारसी समुदाय की ओर से शहर में बडे पैमाने प्रदर्शन किया गया जो हिंसक हो उठा. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच भीषण टकराव हुआ. आखिरकार अंग्रेज सरकार ने अपने घुटने टेके और ये तय हुआ कि कुत्तों को मारने के बजाय उन्हें मुंबई से बाहर छोडा जायेगा.

कुत्तों को शहर से बाहर छोडने की नीति कुछ दिनों तक ही चली. फिर एक बार उन्हें मारना तय हुआ. इस बार उन्हें खत्म करने के लिये मुंबई के महालक्ष्मी धोबीघाट के पीछे एक कत्लखाना बनाया गया.महानगरपालिका के कर्मचारी शहर भर से कुत्तों को पकड कर कत्लखाने लाते थे. तीन दिनों तक कुत्तों को वहां रखा जाता था. अगर कोई उनपर दावा करने नहीं आया तो तीसरे दिन उनको बिजली का करंट देकर मार दिया जाता था. पिल्लों को क्लोरोफॉर्म के बक्से में बंद करके मारा जाता था.1994 तक इस तरह से हजारों कुत्तों को मारा गया. बॉम्बे हाई कोर्ट के दखल के बाद कत्लखाने को बंद कर दिये गया.
 

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