- भोपाल के पॉलीटेक्निक चौराहे के पास आदिवासी परिवारों को दीवाली से पहले घर खाली करने का नोटिस मिला है.
- जिला प्रशासन ने अगस्त में कहा कि यह जमीन सरकारी वन क्षेत्र की है और सात दिन में खाली करनी होगी.
- स्थानीय प्रशासन का कहना है कि अतिक्रमण है और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत नए घरों में शिफ्ट किया जाएगा.
जब पूरा देश दीयों से जगमगा रहा था, घरों में सोने सी रौशनी थी, बाज़ारों में हंसी और रौनक गूंज रही थी उसी वक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पॉलीटेक्निक चौराहे के पास तंग गलियों में खामोशी और डर पसरा हुआ था. यहां करीब 27 आदिवासी परिवारों के 200 से अधिक लोग, जिनमें मजदूर, औरतें, बच्चे और बुज़ुर्ग शामिल हैं, इस साल डर की दिवाली मना रहे हैं. कभी यह इलाका बंजर ज़मीन हुआ करता था. गीली मिट्टी के नीचे से सांप निकलते थे, आसपास कोई नहीं बसता था. तब 70 साल पहले इन आदिवासी परिवारों को यहां बसने की जगह दी गई. उन्होंने गड्ढे भरकर, कच्चे मकान बनाकर, मिट्टी में अपने सपनों की नींव डाली. सत्तर साल बीत गए, पीढ़ियां यहां पली-बढ़ीं, और अब अचानक उन्हें कहा गया “घर खाली करो.” जहां पहले गलियां गेंदे की माला और बच्चों की हंसी से चमकती थीं, वहीं अब दीवारों पर कांपते हाथों से लिखे पोस्टर चिपके हैं ...
दीवाली से कुछ ही दिन पहले जिला प्रशासन ने नोटिस जारी किया. 25 अगस्त का आदेश था कि यह भूमि सरकारी/वन क्षेत्र की है, इसलिए सात दिन के भीतर खाली की जाए. साथ ही चेतावनी दी गई अगर नहीं खाली किया, तो बुलडोज़र चलाया जाएगा. स्थानीय लोग और सामाजिक कार्यकर्ता इस कार्रवाई को अन्यायपूर्ण और अमानवीय बताते हैं. कई परिवार तीन पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं. वनाधिकार अधिनियम के तहत उन्हें पुनर्वास के बिना हटाया नहीं जा सकता. यहां रहने वाले कई लोग कहते हैं “हर साल हम दीये जलाते थे, इस साल मोमबत्तियां जलाई हैं विरोध की. हम घर नहीं, न्याय मांग रहे हैं.”
“क्यों अंधेरी है हमारी दिवाली?”
कर्मा बाई बताती हैं “पूरी ज़िंदगी यहीं निकल गई. दस बाय दस के इस कमरे में दस लोग रहते हैं. यहीं खाना बनता है, यहीं सोते हैं, यहीं जीते हैं. अब वही छत भी छीनी जा रही है.” वो कहती हैं “लोगों के घरों में झूठे बर्तन मांजकर, इन दस लोगों का पेट पाला. जगह की कमी से हर बेटे की पत्नी उसे छोड़ गई, फिर भी सरकार हमारी मजबूरी का फायदा उठाती है.” उनके झुर्रियों भरे हाथ उन मिट्टी की दीवारों को छूते हैं जिन्हें उन्होंने खुद बनाया था. वो दीवारें जो अब “अतिक्रमण” कहलाती हैं.
कर्मा बाई के घर से कुछ दूरी पर रहती हैं छाया सिंह. 7 बाय 15 फुट का घर एक ही कमरा, जिसे दो हिस्सों में बाँटा गया है. एक कोने में रसोई है, दूसरे में भगवान का छोटा सा मंदिर. उनके पिता दीवारों पर टंगी तस्वीरों को एकटक देखते हैं, भगवान से सिर्फ़ इतना मांगते हैं “अगला दिन बेहतर हो.” लेकिन जैसे ही नोटिस की याद आती है, आंखों से आंसू बहने लगते हैं. छाया कहती हैं “घर टूटने के डर से न पुताई की, न दीये जलाए. पता नहीं कौन सा दिन हमारा आखिरी होगा इस घर में.” जहाँ पहले दीवाली के दीये जलते थे, अब वहां सिर्फ यादें झिलमिलाती हैं.
‘जगह खाली करो'
कल्पना वाखला जन्म से यहीं रह रही हैं. कहती हैं “जब सर्वे हुआ था तो बताया गया कि यह लाड़ली बहना योजना का सर्वे है. कुछ महीनों बाद नोटिस थमा दिया गया ‘जगह खाली करो.' सरकारी कागज़ों में खुद लिखा है कि यह ज़मीन वन की है. हम आदिवासी हैं, सालों से यहीं रह रहे हैं. कानून कहता है कि हमें इस ज़मीन से कोई नहीं हटा सकता... लेकिन यहां कानून नहीं, खामोशी राज कर रही है.” उनकी आवाज़ कांपती है, पर आंखों में अब भी जिद है .. वो मिट्टी छोड़ने को तैयार नहीं, जिसने उन्हें पहचान दी.
PM आवास योजना के तहत बन रहे घरों में शिफ्ट होंगे
वहीं स्थानीय प्रशासन का कहना है “ये लोग अतिक्रमण कर रहे हैं. दिवाली के चलते इन्हें शिफ्ट नहीं किया गया है. जल्द ही विस्थापित किया जाएगा. नगर निगम की प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बन रहे घरों में इन्हें शिफ्ट करने की योजना है.”
पर इन लोगों के लिए “विस्थापन” का मतलब घर नहीं बेदखली है. हर साल यह मोहल्ला दीयों से जगमगाता था, इस साल दीयों की जगह दीवारों पर पोस्टर हैं. “हम घर नहीं, अधिकार मांग रहे हैं.” बच्चों के हाथों में पटाखे नहीं, पर्चे हैं. घरों में मिठास नहीं, सन्नाटा है. भोपाल के रोशन बाज़ारों से कुछ ही मीटर दूर, यह बस्ती अब भी अंधेरे में डूबी है जहाँ दीये नहीं जलते, सिर्फ़ उम्मीद टिमटिमाती है. इस बार उनकी दीवाली नहीं मनी, क्योंकि उनका घर, उनका सपना और उनका हक़ सब अधर में लटका है.