महाभारत की कथाओं पर आधारित साहित्य इतना विशाल और विपुल है कि उसमें किया गया हर प्रयत्न पुराने प्रयत्नों की भी याद दिलाता है, इसके बावजूद पढ़ते हुए हर बार नया लगता है. इस दिशा में बिल्कुल ताज़ा काम कवयित्री और लेखिका सुमन केशरी का है जिनका नाटक 'गांधारी' बिल्कल इन्हीं दिनों प्रकाशित होकर आया है. सुमन केशरी इसके पहले कविताओं में काम करती रही हैं और बीते कुछ दिनों से 'कथा नटी' बन कर कहानियां भी सुनाती रही हैं.
मेरी जानकारी में नाट्य लेखन की दिशा में यह उनका पहला प्रयत्न है और इस लिहाज से प्रशंसनीय है कि वे नाट्यालेख की शर्तों और अपेक्षाओं को बहुत सहजता से पूरी करती दिखाई पड़ती हैं. दूसरी बात यह कि हिंदी रंगमंच में मौलिक नाटकों के अभाव का जो पुराना और स्थायी रोना है, उसमें ऐसे प्रयत्न अपने-आप में बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
लेकिन असली सवाल इसके बाद आता है. सुमन केशरी ने अपने नाटक 'गांधारी' में क्या किया है जो महाभारत की कथा को हमारे लिए समकालीन बनाए, उसे एक तरह की पुनर्नवता दे. नाटक इसका जवाब देता है. सुमन केशरी बहुत सूक्ष्मता से दो बातें कहती हैं- एक तो यह कि स्त्री जितनी भी तेजस्वी हो, वह जितनी भी सदाशय हो, लेकिन अगर वह निर्णायक अवसरों पर निष्क्रिय रह जाती है तो अन्याय और विनाश में सहायक हो जाती है. धृतराष्ट्र की संगिनी के रूप में गांधारी अन्याय के हर अवसर पर आवाज़ उठाना चाहती है, अपने बेटों को डांटती-फटकारती भी है, लेकिन अंततः पति के दबाव और पुत्रों के मोह में वह क़दम पीछे खींचती चली जाती है. द्रौपदी के वस्त्र हरण जैसा अन्याय भी उसे विचलित करता है मगर सक्रिय प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं करता.
दूसरी बात यह कि युद्ध और विनाश की सारी कथाएं दरअसल स्त्रियों के लिए त्रासदी बनती हैं. नाटक के अंत में गांधारी, कुंती, दु:शला, द्रौपदी- सब एक साथ बैठी हैं और अपने पिताओं-पुत्रों के शोक में साझा कर रही हैं. यहीं यह बात खुलती है कि दुर्योधन को द्रौपदी ने कभी यह ताना नहीं दिया था कि अंधे का पुत्र अंधा ही होता है. यानी एक नकली अपमान कथा द्रौपदी के नाम पर इसलिए गढ़ी गई कि महाभारत के युद्ध तक पहुंचा जा सके. यह काम किसका रहा होगा? शकुनि का, दुर्योधन का या धृतराष्ट्र का? नाटक इसका जवाब नहीं देता- शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं है- मूल बात बस यह है कि महाभारत कथा का एक स्त्री पक्ष है जिसे ठीक से पढ़ा जाना शेष है. बल्कि पूरी महाभारत कथा दरअसल स्त्रियों के अपमान की समानांतर कथा भी दिखती है.
लेकिन महाभारत पर आधारित कथाओं की कृतियों को पहले की चुनौतियों का भी सामना करना होता है. गांधारी भी बहुत सारी कृतियों के केंद्र में रही है. शंकर शेष का नाटक 'कोमल गांधार' खूब चर्चित रहा है. शंकर शेष की गांधारी बेशक सुमन केशरी की गांधारी से अलग है. शंकर शेष की गांधारी को नहीं पता है कि उसका विवाह एक नेत्रहीन राजकुमार से हो रहा है. उसके भीतर प्रतिशोध की अग्नि कहीं धधक रही है. लेकिन सुमन केशरी की गांधारी को पहले से मालूम है कि वह एक नेत्रहीन राजकुमार से ब्याही जा रही है. सुमन केशरी ने यह भी कल्पना की है कि गांधारी बचपन से ही आंखों में पट्टी बांधने का खेल खेला करती थी. हालांकि कहना मुश्किल है कि इसके पीछे लेखिका की मंशा क्या है- क्या इसे वे नियति संकेत की तरह प्रस्तुत कर रही थीं? क्या गांधारी को एहसास हो चला था कि भविष्य उनसे ऐसी ही किसी भूमिका की प्रतीक्षा कर रहा है? हालांकि नाटक में इस प्रश्न का उत्तर नहीं है.
नाटक की अच्छी बात यह है कि यह महाभारत की कई अनुगूंजों को समेटता है. साथ ही इसमें कल्पना का भी सुंदर समावेश है. धृतराष्ट्र और गांधारी के बीच का रागात्मक संबंध बहुत सहजता और सुंदरता से उभरा है. द्रौपदी के वस्त्र हरण के समय के दृश्य की परिकल्पना रंगमंच की आवश्यकता और कथ्य की तीव्रता दोनों के साथ न्याय करती है. अंत भी अपनी तार्किकता के साथ समकालीन बन पड़ा है. इसी तरह भीष्म के साथ गांधारी का संवाद इस नाटक का एक नया पहलू है.
लेकिन फिर दुहराने की ज़रूरत है कि जब महाभारत जैसी कृति सामने होती है तो कई कथाएं याद आने लगती हैं. गांधारी को पढते हुए कम से कम दो दृश्यों मे 'अंधा युग' की भी याद आती है- जब गांधारी कृष्ण को शाप दे रही होती है तब, और जब अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करता है, तब भी. मगर सवाल है कि एक बहुत जानी-पहचानी कथा को ऐसे दुहरावों से कैसे बचाया जाए?
यहां यह खयाल आता है कि 'गांधारी' की रचना में क्या सुमन केशरी कुछ दूसरे कथा-सूत्रों की भी मदद ले सकती थीं? डॉ रांम मनोहर लोहिया ने महाभारत की पांच तेजस्वी स्त्रियों की चर्चा करते हुए इनमें सत्यवती, अंबा, कुंती, गांधारी और द्रौपदी को चुना है. उनका कहना है कि ये स्त्रियां इसलिए तेजस्वी हैं कि वे अपनी सक्रियता से फ़र्क पैदा करती हैं. सुमन केशरी इस कथा में विचलन पैदा करती हैं, यह अच्छी बात है. लेकिन कई बार लगता है कि नाटक अपनी मूल कथा से भटकता रहता है. वह कुछ उपकथाओं में बीच-बीच में खो जाता है. भीष्म, सत्यवती और दूसरे किरदार आते-जाते रहते हैं, वे बेशक अपनी तरह का प्रभाव पैदा करते हैं, लेकिन मूल प्रभाव अगर खंडित नहीं होता तो भी उसकी तीव्रता कुछ कम होती लगती है.
दरअसल इसे पढ़ते हुए या इस पर बात करते हुए यह खयाल भी आता है कि नाटक अपना अंतिम रूप रंगमंच पर खेले जाने के बाद ग्रहण करते हैं. प्रस्तुति की तैयारी के दौरान नाटक के प्रवाह का पता चलता है, चरित्रों का अंतिम रूप निर्धारित होता है और उनके चरम पर पहुंचने की यात्रा का रास्त नियत होता है. इस लिहाज से 'गांधारी' को अपने रंग-प्रसव से गुज़रना शायद बाक़ी है. तब इस नाटक का संपूर्ण रूप और प्रभाव खिलकर आएगा.
गांधारी: सुमन केशरी; बोधि प्रकाशन; 150 रुपये














