Book Excerpt: वाजपेयी-आडवाणी संबंध : उथल-पुथल भरी यात्रा, बेमिसाल सहयोग और कामयाबी

वाजपेयी और आडवाणी का रिश्ता प्यार पर टिका रहा था, वह एक-दूसरे के प्रति भी था और बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी. इसके अलावा यह श्रम विभाजन पर भी आधारित था, जिसे हिन्दू राष्ट्रवाद आवश्यक समझता था.

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विनय सीतापति द्वारा लिखित ‘जुगलबंदी : भाजपा मोदी युग से पहले’ में वाजपेयी-आडवाणी संबंधों पर प्रकाश डाला गया है...

अटल बिहारी वाजपेयी प्रखर वक्ता थे. यह कौशल उन्होंने अपने पिता से सीखा था और दीनदयाल उपाध्याय द्वारा जनसंपर्क के लिए चुने जाने से इसमें निखार आया था. औसत कवि होने के बावजूद उन्हें वाक्यों की संरचना के साथ-साथ उनकी लय की भी समझ थी. इसके अलावा वे बहुत लंबे समय तक संसद में भी रहे थे, जहां वे लगभग हमेशा ही अपनी पार्टी के नेता रहे थे. स्वतंत्र भारत के सबसे सम्मोहक राजनीतिक वक्ता होने की वजह से वाजपेयी जमे रहे.

यदि आप लंबे समय तक कोई मुखौटा पहने रहें, तो वह मुखौटा ही आपका चेहरा बन जाता है. संसद ने वाजपेयी को भारत के नेहरूवादी स्वरूप की शिक्षा दी. यह ऐसा भारत था, जो सार्वजनिक संस्थानों का सम्मान करता था, हिन्दूवाद को सरकार से अलग रखने की कोशिश करता था, विभाजन के बाद यहां रह गए मुसलमानों के मानसिक आघात के प्रति संवेदनशील था, अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण चाहता था और विदेशनीति के मामले में पश्चिम से अलग राय रखता था. वाजपेयी ने शुरू में इन सब का पालन किया और यह नेहरू से लगाव के कारण नहीं था (जैसा कि उनके दक्षिणपंथी आलोचक आरोप लगाते हैं), बल्कि उस समय की संसद के प्रति लगाव के कारण था.

वाजपेयी की राजनीति को उनके जीवन में मौजूद महिला ने भी आकार दिया था. राजकुमारी कौल ने वाजपेयी को देसी हिन्दू से आधुनिक बना दिया था. उनके बीच अक्सर होने वाली बातचीत, विशेषकर अयोध्या मामले पर होने वाली चर्चाओं ने वाजपेयी की समझ को बदल दिया था.

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यह नेहरूवादी चिंतन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुरूप नहीं था. वाजपेयी ने इस तनाव को तीन तरह से कम किया. पहला, उन्होंने आरएसएस को यह विश्वास दिलाया कि चुनाव जीतने के लिए गैर-कांग्रेसी विपक्ष के साथ-साथ उदार हिन्दू बहुसंख्यकों को आकर्षित करना आवश्यक था. दूसरा, उदारवादी दिखने के बावजूद वे अंततः पार्टी के साथ चलने वाले व्यक्ति थे. अयोध्या आंदोलन को समर्थन देने या गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर मोदी को बनाए रखने के मुद्दों पर वाजपेयी को अपने सिद्धांतों और पार्टी में से किसी एक को चुनना था. परंतु ख़ुद को बचाए रखने की सहज भावना से उन्होंने हमेशा पार्टी का चुनाव किया.

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तीसरा, हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ अपने उदारवादी चेहरे का संतुलन बनाए रखने के लिए वाजपेयी ने अपने लिए बिल्कुल सही साझेदार चुना था.

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जैसा कि हमने पहले पढ़ा, विभाजन ने अंग्रेज़ी बोलने और टेनिस खेलने वाले लालकृष्ण आडवाणी को ज़मीन से जुड़ा कार्यकर्ता बना दिया था, जो भारत को फिर से एकजुट करना चाहता था. राजस्थान में प्रचारक के रूप में बिताए गए एक दशक ने उन्हें संगठन-कार्य में माहिर बना दिया. 1957 में वाजपेयी के सचिव के रूप में दिल्ली आने तक आडवाणी का व्यक्तित्व आकार ले चुका था – वे बारीकियों पर ध्यान देते थे, आरएसएस के तरीके से सोचते थे और दिल से अपने नए बॉस के प्रति समर्पित थे.

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तब से वाजपेयी और आडवाणी का रिश्ता प्यार पर टिका रहा था, वह एक-दूसरे के प्रति भी था और बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी. इसके अलावा यह श्रम विभाजन पर भी आधारित था, जिसे हिन्दू राष्ट्रवाद आवश्यक समझता था. एक तरफ़, पार्टी को अपने मूल मतदाताओं और उत्साहित कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलना था. आधार को बनाए रखने के लिए एक दृढ़ व्यक्तित्व की आवश्यकता थी. दूसरी ओर, 1948 में गांधी की हत्या से लगे आरोपों के कारण यह विचारधारा अस्पृश्य बन गई थी. सत्ता में आने के लिए इसे तसल्ली देने वाले शांत स्वर की आवश्यकता थी. एक बार जयपुर में चुनाव प्रचार में वाजपेयी के भाषण के दौरान किसी ने भीड़ में सांप फेंक दिया. लोग घबराने लगे तो वाजपेयी ने मंच से कहा कि वहां कोई सांप नहीं था. लोग निश्चिंत हो गए और भाषण पहले की तरह चलता रहा.

दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाद नेतृत्व को लेकर चल रही खींचतान में आडवाणी और वाजपेयी ने एक-दूसरे की पूरक भूमिकाएं स्वीकार कर लीं. जब देश में वैचारिक उदारवाद का मूड था – जैसे 1970 के दशक में या 1990 के उत्तरार्ध में – तो वाजपेयी ने नेतृत्व किया और आडवाणी ने उनका अनुसरण किया. जब चिंता का मूड होता था – जैसे 1980 के दशक में और 1990 के दशक के पूर्वार्ध में – तब आडवाणी ने पार्टी का मार्गनिर्देशन किया और वाजपेयी ने उनकी बात मानी.

वाजपेयी और आडवाणी, दोनों के पास देश के लिए दूरगामी सांस्कृतिक दृष्टिकोण नहीं था और इस लिहाज़ से वे बुद्धिजीवी नहीं थे. लेकिन वे मध्यम अवधि में इतिहास के अर्धवृत्त को देख सकते थे, अर्थात स्वतंत्र भारत के आरंभिक छह दशकों में कांग्रेस और हिन्दू राष्ट्रवाद के उतार-चढ़ाव को और इस यात्रा में एक-दूसरे के साथ अपनी भूमिकाओं को समझ सकते थे. उन्हें कौन सा चरित्र निभाना था, इसे लेकर वे इतने सजग थे कि उन भूमिकाओं के अनुरूप वे काम करने लगे. आडवाणी अपने वास्तविक जीवन से अधिक कट्टर दिखते थे; वाजपेयी नेहरूवादी उदारपंथी की भूमिका निभाने में माहिर थे. दोनों ही मुखौटा पहने हुए थे.

उनकी साझेदारी इसलिए कारगर रही कि वे शायद ही कभी एक-दूसरे के महारत वाले काम में दख़ल देते थे (2004 में आडवाणी द्वारा गठबंधन का निर्माण इसका एक अपवाद था, जिससे नियम की ही पुष्टि हुई). वाजपेयी कभी-कभार ही पार्टी मुख्यालय जाते थे. वे इस मामले में आडवाणी की समझ पर भरोसा करते थे कि पार्टी के कार्यकर्ता सत्ता के लिए किस हद तक समझौता कर सकते थे. इसका सबसे अच्छा उदाहरण उस समय देखने को मिला, जब अप्रैल, 2002 में आडवाणी ने वाजपेयी को गुजरात के मुख्यमंत्री को बर्ख़ास्त करने से रोक लिया.

पार्टी पर इस पकड़ के बदले आडवाणी ने सुनिश्चित किया कि वाजपेयी को हमेशा उनकी मनपसंद भूमिका दी जाए : संसद में पार्टी के वक्ता की भूमिका. इसे सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने 1990 के दशक के पूर्वार्ध में आरएसएस को भी मात दे दी. वह निश्चित रूप से आडवाणी का सबसे अच्छा समय था, जब उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री पद वाजपेयी को दे दिया, क्योंकि वे जानते थे कि उनके पास भाजपा को सत्ता में बनाए रखने के लिए सबको तुष्ट रखने वाली मुस्कुराहट नहीं थी.

जब भी पार्टी के अन्य लोगों द्वारा इस श्रम विभाजन को ख़तरा हुआ, वाजपेयी और आडवाणी ने एक-दूसरे का साथ दिया. मधोक, सोंधी, स्वामी और गोविंदाचार्य के विरुद्ध आडवाणी ने वाजपेयी का साथ दिया. मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ वाजपेयी ने आडवाणी का साथ दिया. इस पर शेखर गुप्ता कहते हैं : ‘आडवाणी-वाजपेयी पार्क में दिखने वाले बूढ़े दंपति की तरह हैं. वे आपस में लड़ सकते हैं, लेकिन कोई तीसरा उनके बीच आ जाए, तो वे एक-दूसरे का बचाव करेंगे'.

इस लिहाज़ से यह एक असली जुगलबंदी थी. इसमें अलग-अलग साज़ थे, दोस्ताना मुकाबला भी था, संगीत की अलग-अलग तानें थीं और गहरे अर्थ में एक समरूप संगीत था.

वाजपेयी को पसंद करना बहुत आसान है. वे सुरुचिपूर्ण और सम्मोहक व्यक्ति थे. सादगी भरे आडवाणी के लिए कुछ भी महसूस करना अपेक्षाकृत कठिन है. लेकिन इसकी एक वजह यह भी है कि वाजपेयी की तुलना में आडवाणी अधिक सिद्धांतवादी व्यक्ति थे और बनावटी नहीं थे. उनके विरोधी, एक वरिष्ठ कांग्रेसी इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं : ‘आडवाणी के मुकाबले वाजपेयी बेहतर अभिनेता थे और वाजपेयी से भी बेहतर अभिनेता मोदी हैं. आडवाणी जैसे दिखते हैं, वैसे ही हैं, कई बार राजनीति में आपको अच्छा अभिनेता बनना पड़ता है'.

1998 से 2004 के बीच जब दोनों के रिश्ते ने सरकार के दलदल में कदम रखा तो उसमें दरार आ गई. वाजपेयी पार्टी का नियंत्रण पूरी तरह से आडवाणी के हाथों में रहने देने के लिए तैयार थे, लेकिन वे सरकार को संसद का विस्तार मानते थे, अर्थात वह उन्हें केवल अपना कार्यक्षेत्र लगता था. लेकिन उन वर्षों में जब उनके निजी रिश्ते ख़राब हुए, तब भी उनकी पेशेवर साझेदारी कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई. यशवंत सिन्हा के शब्दों में : ‘वाजपेयी और आडवाणी दोनों को एहसास हुआ कि एक-दूसरे के बिना वे असुरक्षित थे. लोग निश्चित रूप से उनके पीछे पड़े रहते थे. उन्हें लगता था कि अगर उनके मतभेद एक हद से आगे बढ़ गए तो दोनों को नुकसान होगा. यह आपसी सहमति से तबाही जैसा मामला होता'.

सिन्हा दोनों के सम्बन्धों की व्याख्या निजी हितों के दृष्टिकोण से करते हैं, जो निश्चित रूप से थे. साथ ही दोनों के बीच काफी स्नेह भी था. लेकिन जैसा कि हमने इस पूरी पुस्तक में पढ़ा, वाजपेयी और आडवाणी के हर उतार-चढ़ाव के बीच एक-दूसरे के साथ काम करने की क्षमता केवल भावना रहित हिसाब-किताब और गर्मजोशी पर आधारित नहीं थी. वह मिलजुलकर काम करने को महत्व देने वाली विचारधारा पर भी आधारित थी.

विनय सीतापति द्वारा लिखित ‘जुगलबंदी : भाजपा मोदी युग से पहले' के इस अंश को पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया की अनुमति से प्रकाशित किया जा रहा है. अपनी प्रति यहां से ऑर्डर करें.

अस्वीकरण (Disclaimer) : पुस्तक तथा पुस्तक के उद्धृत किसी भी अंश में उपस्थित सामग्री के लिए पुस्तक के लेखक तथा प्रकाशक ही उत्तरदायी हैं. पुस्तक तथा पुस्तक के उद्धृत अंश की सामग्री द्वारा उत्पन्न किसी भी दावे के लिए NDTV उत्तरदायी अथवा जवाबदेह नहीं होगा, जिसमें मानहानि, बौद्धिक संपदा अधिकारों का उल्लंघन, अथवा किसी भी अन्य पक्ष के किसी भी अधिकार अथवा कानून के उल्लंघन संबंधी दावे भी शामिल हैं.

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