"क्या हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू मुसलमान और हिंदू ईसाई कहा जाएगा?" : शिवानंद तिवारी

राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ने कहा कि संभवतः कल संघ प्रचारक प्रधानमंत्री हिंदू मुसलमान और हिंदू ईसाई कहे जाने का क़ानून बनवा दें तो आश्‍चर्य नहीं होगा.

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क्या हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू मुसलमान और हिंदू ईसाई कहा जाएगा? यह सवाल उठाते हुए राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने कहा कि मोहन भागवत के अनुसार तो यही लगता है ! मोहन भागवत जो भी बोलते हैं, उसको बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए. देश की मौजूदा सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीतियों को देश में लागू करने वाली सरकार है. प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री सहित प्रायः सभी महत्वपूर्ण मंत्री संघ के स्वयंसेवक रहे हैं. प्रधानमंत्री ने तो लंबे समय तक संघ के प्रचारक की भूमिका निभाई है. इसलिए भले ही प्रधानमंत्री संविधान दिवस के मौक़े पर संविधान की जितनी भी दुहाई दे लें, लेकिन उनके मन पर संघ की नीतियां पत्थर की लकीर की तरह ख़ुदी हुईं हैं.

आपको स्मरण होगा कि 2015 के विधानसभा के समय मोहन भागवत ने ही संघ द्वारा प्रकाशित पांचजन्य और ऑर्गनाइज़र में दिए गए साक्षात्कार में देश की पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण पर पुनर्विचार करने का बयान दिया था. विश्व हिंदू परिषद ने भी वह मांग दुहराई थी. महागठबंधन के नेताओं ने भागवत के उस बयान पर काफ़ी हो-हल्ला मचाया था. उस समय भागवत ने जो कहा था, आज हमारे सामने सत्य बनकर खड़ा है. स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने संघ के उस महत्वपूर्ण एजेंडा को पूरा कर दिया है. ग़रीबी को आधार बनाकर दस प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन हो गया.

शिवानंद तिवारी ने कहा कि मोदी सरकार के पास राज्य सभा में बहुमत नहीं है. वहां इस संशोधन के अटक जाने का ख़तरा है. इसलिए बहुमत के ज़ोर से उसको ‘मनी बिल' बना कर लोकसभा में पास करवा दिया गया. लोकसभा में पारित हो जाने के बाद मनी बिल को राज्यसभा में पास कराने की ज़रूरत ही नहीं रहती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी है. पांच सवर्ण जजों की संविधान पीठ ने इस आरक्षण को संविधान सम्मत घोषित कर दिया. सबसे चिंताजनक बात यह है कि पीठ के दो-एक जजों ने पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण पर भी पुनर्विचार करने की ज़रूरत बताई. इस फ़ैसले के बाद तो आरक्षण पर पुनर्विचार के पक्ष में लेख वग़ैरह भी आने शुरू हो गए हैं.

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स्मरण रहे, 1992 में नौ जजों की संविधान पीठ ने मंडल कमीशन की अनुशंसा के आधार पर पिछड़ी जातियों को केंद्रीय सरकार की नौकरियों में आरक्षण दिए जाने के सरकार के फ़ैसले को संविधान सम्मत करार दिया था. वीपी सिंह की सरकार के बाद बनी नरसिंह राव की सरकार ने मंडल आयोग द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए अनुशंसित आरक्षण के साथ साथ ग़रीबी को आधार बना कर सामान्य वर्गों के लिए भी दस प्रतिशत आरक्षण जोड़ दिया था, लेकिन नौ जजों की उसी संविधान पीठ ने आर्थिक आधार पर दिए गए उक्त आरक्षण को असंवैधानिक करार दे कर रद्द कर दिया था.

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राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ने कहा कि दलितों एवं आदिवासियों को दिए जाने वाले आरक्षण की व्यवस्था तो मूल संविधान में ही कर दी गई थी, लेकिन भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था की वजह से पिछड़ी जातियों की विशाल आबादी की सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन की स्थिति के अध्ययन के लिए आयोग गठित करने और उसकी अनुशंसा के मुताबिक़ कार्रवाई करने का निर्देश हमारे संविधान ने ही दिया है. इसी आधार पर 1952 के पहले चुनाव के तुरंत बाद 1953 के जनवरी महीने में ही पिछड़ी जातियों की हालत का अध्ययन करने तथा उनको मुख्यधारा में समान अवसर देने के तरीकों की अनुशंसा के लिए ‘काका कालेलकर' आयोग का गठन किया गया था.

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स्पष्ट है कि आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी दूर करने के माध्यम के तौर पर नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की वजह से सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में पिछड़ गए बड़े समूह को मुख्य धारा में शामिल करने के उद्देश्य से की गई है. इसी आधार पर नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने के प्रावधान को रद्द कर दिया था, लेकिन आज पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के उद्देश्य से मोदी सरकार द्वारा संविधान में किए गए संशोधन को न सिर्फ़ संविधान सम्मत करार दिया बल्कि उन्हीं में से दो-एक ने जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था पर पुनर्विचार की ज़रूरत भी बताई.

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शिवानंद तिवारी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण में आए इस मौलिक परिवर्तन को समझने के लिए आरक्षण के मुद्दे पर दोनों काल के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी यहां समझने की ज़रूरत है. 1992 में जब नौ जजों की संवैधानिक पीठ ने मंडल कमीशन की अनुशंसा को संविधान सम्मत और आर्थिक आधार पर जोड़ दिए गए दस प्रतिशत आरक्षण को संविधान सम्मत नहीं मानने के पीछे उस काल के सामाजिक और राजनीतिक माहौल को भी समझा जाना चाहिए. उस समय सामाजिक न्याय के आंदोलन के पक्ष में मज़बूत सामाजिक, राजनैतिक माहौल था.

यह ध्यान रखने की बात है कि अदालतें शून्य में काम नहीं करतीं हैं. उन पर भी तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक माहौल का अप्रत्यक्ष प्रभाव काम करता है. इसलिए 92 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के आधार पर आरक्षण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का वैसा निर्णय आया था. हालांकि, नौ जजों के उक्त संविधान पीठ में भी प्रायः सभी जज सवर्ण समाज के ही होंगे, लेकिन आरक्षण के पक्ष में उस समय के राजनीतिक और सामाजिक माहौल का दबाव भी काम कर रहा था. उस मुक़ाबले आज आरक्षण समर्थन का माहौल कमजोर हुआ है, बल्कि विरोध का स्वर तेज हुआ है. पिछड़ों में भी अब पहले जैसी एकता नहीं रह गई है. उनमें भी सामन्य जातियों के वोट को अपनी ओर आकर्षित करने का लालच बढ़ा है.

यही वजह है कि संवैधानिक व्यवस्था के विरूद्ध आर्थिक आधार पर आरक्षण के पक्ष में आए निर्णय का औपचारिक विरोध भी वे क़ायदे से दर्ज नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए आरक्षण पर पुनर्विचार की बात न्यायपालिका और राजनीति दोनों में उठाई जा रही है. लेकिन एक ज़माने में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली जमातें आज लगभग मौन हैं या बहुत कमजोर आवाज़ में आरक्षण के समर्थन में आवाज़ उठा रही हैं.

शिवानंद तिवारी ने कहा कि मोहन भागवत बिहार में थे. उन्होंने कहा है कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है. किसी ने उनके इस बयान पर प्रतिक्रिया नहीं दी है. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दरम्यान इन्हीं भागवत ने आरक्षण पर पुनर्विचार की ज़रूरत बताई थी. आज वे कह रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं. 

देश किस दिशा में बढ़ रहा है इसका अनुमान संघ प्रमुख की इस घोषणा से लगाया जा सकता है. बाबा साहब अंबेडकर ने संकल्प लिया था कि वे हिंदू धर्म में नहीं मरेंगे. उन्होंने अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म क़बूल कर लिया था, लेकिन भागवत के अनुसार वे हिंदू ही माने जाएंगे. यानी अंबेडकर साहब के हिंदू धर्म के बाहर प्राण त्यागने के संकल्प को भागवत की यह परिभाषा असत्य करार देने जा रही है. पता नहीं बाबा साहब के भक्तों को यह दिखाई दे रहा है या नहीं. 

राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ने कहा कि सावरकर की परिभाषा के मुताबिक़ मुसलमान और ईसाई एक नंबर के भारतीय नहीं हैं, क्योंकि उनकी पुण्यभूमि इस देश के बाहर है. संघ प्रमुख ने अभी जो कहा है, उसके अनुसार ये दोनों भी हिंदू ही  माने जाएंगे. सवाल है कि उनको हिंदू धर्म में कौन सा स्थान मिलेगा ! क्या वे हिंदू मुस्लिम या हिंदू ईसाई कहे जाएँगे. जैसे पूर्व में उन्होंने आरक्षण पर पुनर्विचार की ज़रूरत बताई थी और आज सात साल बाद उसको हम हक़ीक़त के रूप में देख रहे हैं . उसी तरह संभवतः कल संघ प्रचारक प्रधानमंत्री हिंदू मुसलमान और हिंदू ईसाई कहे जाने का क़ानून बनवा दें तो आश्‍चर्य नहीं होगा.

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(Except for the headline, this story has not been edited by NDTV staff and is published from a press release)

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