हर चुनावी रैली में, कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा तक सत्ता में आने पर राज्यव्यापी जातिगत सर्वे कराने का वादा कर रहे हैं. अगले कुछ महीनों में होने वाले कुछ राज्यों में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में जातिगत गणना के लिए अचानक बढ़ती रुचि एक प्रमुख मुद्दे के रूप में उभर रही है.
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने सबसे पहले जातिगत गणना का डेटा जारी किया है. राहुल गांधी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया और कर्नाटक चुनाव में एक चर्चा का विषय बन गया. इसके बाद इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया भी आई, जिसके बारे में कांग्रेस का कहना है कि इससे जातिगत गणना के लिए काम करने का पार्टी का संकल्प मजबूत हुआ है.
हालही विपक्षी पार्टियों के बने गठबंधन "इंडिया" के अन्य दलों ने भी जातिगत गणना की मांग की है. कांग्रेस कार्य समिति ने कभी भी औपचारिक रूप से जातिगत गणना का समर्थन नहीं किया है, हालांकि पार्टी का रुख पिछले कुछ वर्षों में बना है.
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मंडल आंदोलन के चरम के वक्त संसद में जाति-आधारित सर्वे का विरोध किया था. लेकिन मंडल आयोग की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों के कार्यान्वयन के साथ, पार्टी ने एक रुख अपनाया और खुले तौर पर जाति-आधारित आरक्षण और जातिगत गणना की मांग का समर्थन कर रही है.
हालही, कांग्रेस नेता अभिषेक सिंघवी ने ‘एक्स' पर लिखा था, "अवसरों की समानता कभी परिणामों की समानता के बराबर नहीं होती। ‘जितनी आबादी उतना हक' का समर्थन कर रहे लोगों को पहले इसके परिणामों को पूरी तरह समझना होगा। अंतत: यह बहुसंख्यकवाद में परिणत होगा." हालांकि, बाद में सिंघवी ने ‘एक्स' पर अपने विवादास्पद पोस्ट से कांग्रेस के दूरी बनाने के बाद इसे तत्काल हटा दिया। उन्होंने बाद में यह भी कहा कि वह जाति जनगणना का समर्थन करते हैं जिसके आधार पर अनुपात के हिसाब से अधिकार दिये जाएंगे।
हालांकि, कांग्रेस जातिगत सर्वे के लिए एकजुट होने का संदेश देना चाहती है. जिसका इस्तेमाल ना केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों में बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) राजनीति वाले दक्षिणी राज्यों में भी एकजुट होने के लिए एक मजबूत टूल के लिए किया जा सकता है.