- राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने चार गणमान्य नागरिकों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया है, जिनमें पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला और उज्ज्वल निकम शामिल हैं.
- उज्ज्वल निकम ने 26/11 मुंबई आतंकी अजमल कसाब को फांसी तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कई महत्वपूर्ण केस लड़े.
- डॉ मीनाक्षी जैन ने भारतीय इतिहास पर शोध किया है और उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया, उनका मनोनयन अकादमिक सम्मान माना जा रहा है.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने चार गणमान्य नागरिकों को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया है. पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला, मुंबई हमले के आतंकी कसाब को फांसी के फंदे तक पहुंचाने वाले उज्ज्वल निकम, केरल के भाजपा नेता और सामाजिक कार्यकर्ता सी सदानंदन मास्टर और इतिहासकार डॉ मीनाक्षी जैन. चारों ही अपने-अपने क्षेत्र के पुरोधा रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन चारों के योगदान को 'राष्ट्र के लिए अमूल्य' बताया है. ये नियुक्तियां कूटनीति, कानून, विचारधारा और इतिहास जैसे विविध क्षेत्रों की समृद्धि दर्शाती हैं, जिनसे हर क्षेत्र के लोगों को संसद में आवाज मिलने की उम्मीद है.
आइए, जानते हैं इन चारों के बारे में विस्तार से.
उज्ज्वल निकम: न्याय की निर्भीक आवाज
उज्ज्वल देवराव निकम भारत में आतंकवाद और संगठित अपराध के खिलाफ कानूनी लड़ाई का एक जीवंत प्रतीक हैं. महाराष्ट्र के जलगांव में 1953 में जन्मे निकम का पारिवारिक परिवेश ही न्याय और सेवा भावना से प्रेरित था-पिता एक वकील और जज, जबकि मां स्वतंत्रता सेनानी. निकम ने पुणे विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक की डिग्री और जलगांव के एसएस मनियार लॉ कॉलेज से कानून की पढ़ाई की.
तीन दशकों से अधिक लंबे अपने करियर में उन्होंने ऐसे 628 अपराधियों को आजीवन कारावास और 37 को मृत्युदंड दिलाया है. उनका सबसे चर्चित मुकदमा था 26/11 मुंबई आतंकी हमले के जीवित आतंकी अजमल कसाब के खिलाफ केस, जिसे उन्होंने बेहतरीन ढंग से लड़कर फांसी तक पहुंचाया. इसके अलावा उन्होंने 1993 मुंबई बम धमाके, गुलशन कुमार हत्याकांड, प्रमोद महाजन मर्डर केस और कोपर्डी बलात्कार-हत्या जैसे मामलों में भी सरकार की ओर से केस लड़ा.
2010 में वे संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक आतंकवाद सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. उनके जीवन पर मराठी फिल्म 'आदेश-पावर ऑफ लॉ' बन रही है और इस फिल्म में अभिनेता राजकुमार राव उनकी भूमिका निभा रहे हैं.
डॉ मीनाक्षी जैन: इतिहास को नए सांचे में ढालती विदुषी
डॉ मीनाक्षी जैन भारतीय इतिहास के उन विद्वानों में हैं, जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता के बीच पुल बनाया है. दिल्ली यूनिवर्सिटी के गार्गी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर रही मीनाक्षी जैन ने न केवल अकादमिक दुनिया में गहरी छाप छोड़ी, बल्कि नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च जैसी संस्थाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
उनका शोध भारतीय समाज, संस्कृति और धार्मिक इतिहास पर केंद्रित रहा है, खासकर मध्यकाल और औपनिवेशिक काल पर. उनका शोध, राम मंदिर केस में भी आधार बना. 1991 में प्रकाशित उनकी डॉक्टरेट थीसिस में उन्होंने जाति और राजनीति के जटिल संबंधों को गहराई से परखा. 2020 में उन्हें साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया, जो उनके शोध और लेखन की राष्ट्रीय मान्यता है.
डॉ जैन की कृतियां भारतीय इतिहास को पश्चिमी नजरिए से अलग हटकर देखने की कोशिश करती हैं. उनका राज्यसभा में मनोनयन न सिर्फ अकादमिक समुदाय के लिए सम्मान की नजर से देखा जा रहा है.
हर्षवर्धन श्रृंगला: कूटनीति के दक्ष नायक
भारत की विदेश नीति के जमीनी क्रियान्वयन में जिन अधिकारियों ने बड़ी भूमिका निभाई, उनमें हर्षवर्धन श्रृंगला का नाम शीर्ष पर आता है. 1 मई 1962 को मुंबई में जन्मे श्रृंगला ने मेयो कॉलेज, अजमेर और सेंट स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली से शिक्षा प्राप्त की. 1984 में भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने के बाद उन्होंने लगभग चार दशक तक देश की कूटनीति को आकार दिया.
श्रृंगला ने थाईलैंड, बांग्लादेश और अमेरिका में भारत के शीर्ष राजनयिक के रूप में कार्य किया. खासकर बांग्लादेश में रहते हुए उन्होंने ऐतिहासिक भूमि सीमा समझौते को अंतिम रूप देने में केंद्रीय भूमिका निभाई. अमेरिका में उनके कार्यकाल के दौरान 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम का आयोजन उनकी रणनीतिक दक्षता का उदाहरण है.
2020 से 2022 तक वे भारत के विदेश सचिव रहे और कोविड काल में वैश्विक संपर्क बनाए रखने की जटिल जिम्मेदारी संभाली. IFS से रिटायरमेंट के बाद उन्हें G20 में भारत की अध्यक्षता के लिए मुख्य संयोजक नियुक्त किया गया, जहां दिल्ली डिक्लेरेशन की सफलता में उनकी भूमिका निर्णायक रही. उनका मनोनयन भारत की विदेश नीति में उनकी प्रतिबद्धता और व्यावसायिक दक्षता के सम्मान की तरह देखा जा रहा है.
सी सदानंदन: साहस, संघर्ष और सेवा का प्रतीक
सी सदानंदन मास्टर का जीवन एक साहसी यात्रा है, जो विचारधारा, संघर्ष और सेवा से गुथा हुआ है. कभी मार्क्सवादी पृष्ठभूमि में पले-बढ़े सदानंदन मास्टर की सोच में बदलाव मलयालम कवि अक्कितम की कविताओं के जरिए आया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय सांस्कृतिक विचारधारा की ओर मोड़ा और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए.
1994 में वे जब केवल 30 वर्ष के थे, तब उन पर एक बर्बर हमला हुआ, जिसमें उनकी दोनों टांगें काट दी गईं. आरोप लगा कि हमलावर मार्क्सवादी कार्यकर्ता थे. यह हमला उन्हें तोड़ नहीं सका-बल्कि उन्होंने कृत्रिम पैरों के सहारे फिर से खड़े होकर न केवल शिक्षा के क्षेत्र में लौटने का साहस दिखाया, बल्कि सामाजिक कार्य और वैचारिक प्रचार में भी और अधिक सक्रिय हो गए.
कन्नूर जैसे वामपंथी गढ़ में वे निडर होकर खड़े रहे और हिंसा के खिलाफ संवाद और लोकतांत्रिक संघर्ष को अपनाया. उन्होंने 2016 और 2021 में विधानसभा चुनाव भी लड़ा और आज वे भाजपा के केरल राज्य इकाई के उपाध्यक्ष हैं. उनका राज्यसभा में मनोनयन उस साहसिक यात्रा की स्वीकृति है, जो हिंसा के अंधकार में भी उम्मीद की मशाल लेकर आगे बढ़ी.