रज़ा फ़ाउंडेशन के कार्यक्रम- युवा-2022 में, सैयद हैदर रज़ा की दास्तान की हुई प्रस्तुति

रज़ा फ़ाउंडेशन की तरफ से आयोजित दो दिवसीय युवा-2022 में सैयद हैदर रज़ा की दास्तान की प्रस्तुति की गयी. इस कार्यक्रम में भारतीय भाषाओं के छह लेखकों पर हिंदी के तीस युवा लेखक विचार रखने के लिए पहुंचे थे.

विज्ञापन
Read Time: 28 mins
नई दिल्ली:

क्या सैयद हैदर रज़ा जैसे चित्रकार की जिंदगी पर कोई ऐसी दास्तान तैयार की जा सकती है जिसे सुनते हुए पर्याप्त रस मिले या जिससे श्रोता बंधे रहें? यह सवाल शायद कवि-आलोचक और रज़ा फ़ाउंडेशन के निदेशक अशोक वाजपेयी के भीतर भी रहा होगा जब उन्होंने जाने-माने दास्तानगो महमूद फ़ारूक़ी को यह दास्तान तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी. आख़िर एक चित्रकार का जीवन इतना नाटकीय या घटनापूर्ण नहीं होता कि उसे दो घंटे तक सुनने में लोगों की दिलचस्पी बनी रहे. 

कुछ अरसा पहले दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में और फिर इस शनिवार को मंडला के एक प्रेक्षागृह में जब महमूद फ़ारूक़ी ने यह दास्तान पेश की तो लोग बिल्कुल बंधे के बंधे रह गए. क़रीब डेढ़ घंटे से ऊपर चली इस दास्तान के दौरान बीच-बीच में वाह-वाह के रूप में भरी जाने वाली हुंकारियों के अलावा लगभग सन्नाटा बना रहा- जैसे पूरा प्रेक्षागृह जैसे किसी जादू से बंधा हो. कार्यक्रम से पहले और संभवतः बाद भी अशोक वाजपेयी ने माना कि यह सैयद हैदर रज़ा को दी गई सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलियों में एक है.

यह जादू संभव कैसे हुआ? दास्तानें हम पहले भी सुनते रहे हैं. दास्तानगोई अब हिंदुस्तान के सांस्कृतिक माहौल में एक जानी-पहचानी विधा हो चुकी है. महमूद फ़ारूक़ी भी अपनी पुरानी दास्तानों के साथ पर्याप्त नाम कमा चुके हैं. निश्चय ही वे सब बहुत मेहनत से तैयार की गई दास्तानें थीं. उनमें भी पर्याप्त शोध दिखाई पड़ता था और पूरी मेहनत नज़र आती थी.

Advertisement

लेकिन सैयद हैदर रज़ा की दास्तान की चुनौती कुछ अलग तरह की थी. जब आप एक कलाकार को अपना विषय बनाते हैं तो आपको उसके जीवन के ब्योरे तो जुटाने ही पड़ते हैं, उसकी कला-दृष्टि को भी सामने लाना होता है जो कई मामलों में इतनी सूक्ष्म होती है कि उसे शब्दों या वृत्तांतों में बांधना आसान नहीं होता.

Advertisement

इस चुनौती को महमूद फ़ारूक़ी अगर ठीक से निभा पाए तो संभवतः इसलिए कि उनके भीतर कला की वह समझ है जो अमूमन ख़ुद को कला का जानकार मानने वाले कई लोगों में भी नहीं होती. यह दास्तान शुरू ही सैयद हैदर रज़ा की इस बात से होती है कि कला समझने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए होती है। इसके बाद इस बहुत सीधी-सरल लगती बात को महमूद अचानक एक आध्यात्मिक, एक रूहानी आयाम दे डालते हैं- कई उद्धरणों के ज़रिए याद दिलाते हुए कि महसूस करने के असली मायने क्या होते हैं.  

Advertisement

जिन लोगों ने महमूद फ़ारूक़ी की दास्तानें देख रखी हैं, वे आसानी से याद कर पाएंगे कि महमूद अलग-अलग भाषाओं और किताबों से अपनी बात को मज़बूती देने वाले उद्धरण जुटाने का एक शिल्प विकसित कर चुके हैं. वे गीता से, कुरान से या दूसरे साहित्यिक ग्रंथों से- देसी-विदेशी लेखकों से- कुछ सूक्तियां, कुछ शेर, कुछ दोहे, कुछ सुंदर पंक्तियां लाकर अपनी दास्तान को समृद्ध करते हैं. लेकिन यह सिर्फ़ शिल्प का मामला नहीं है, या बस एक दास्तानगो का सयानापन भर नहीं है. इन दास्तानों से गुज़रते हुए सहसा खयाल आता है कि हम ज्ञान और संवेदना की कितनी सारी संपदा से भरे हुए हैं जिसे देखने तक की हमें फ़ुरसत नहीं है। दूसरी बात यह कि दुनिया भर की किताबें अंततः जो सिखाती हैं, वह करुणा है, उदारता है, प्रेम है और मनुष्यता है. हम इसे भूलते जा रहे हैं.

Advertisement

रज़ा की दास्तान पर लौटें. यह इसलिए भी इतनी दिलचस्प बन पड़ी है कि महमूद ने इसे बस रज़ा की जिंदगी तक महदूद नहीं रखा है. उन्होंने उस पूरे दौर को याद किया है जिसके बीच रज़ा पले-बढ़े, पहले मुंबई और फिर बाद में पेरिस पहुंचे. तो होता यह है कि रज़ा की दास्तान सुनते-सुनते अचानक हम उस मुंबई में दाख़िल हो जाते हैं जिसमें एक तरफ़ श्याम और अशोक कुमार के साथ मंटो थे और दूसरी तरफ़ इस्मत चुगतई, एक तरफ़ देश की आज़ादी को लेकर चल रही सबसे तीखी बहसें थीं तो दूसरी तरफ़ कला और संस्कृति की वे हलचलें जिनके बीच तब की बंबई बन रही थी.

यह बहुत धड़कता और जीवंत ब्योरा है जिसे महमूद ने बहुत कुशलता से पिरोया है. इसी तरह वे रज़ा के समकालीन कलाकारों की बात करते हुए सूजा, आरा, गायतोंडे, हुसेन, रामकुमार का ज़िक्र करते हैं, तत्कालीन कला प्रवृत्तियों की बात करते हैं और बताते हैं किस किस बेचैनी और संघर्ष के बीच इन सारे कलाकारों ने प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की बुनियाद रखी थी और एक-दूसरे के काम को परखा-पहचाना था. इसी तरह महमूद सैयद हैदर रज़ा के साथ पेरिस में दाखिल होते हैं और पेरिस अपने रंगो-बू के साथ दास्तान में उतर आती है.

लेकिन ऐसा नहीं कि रजा की दास्तान को आकर्षक बनाने के लिए महमूद मुंबई या पेरिस का किसी चमकीली पन्नी की तरह इस्तेमाल करते हैं. दास्तान सुनते-सुनते ही यह बात समझ में आती है कि कोई भी शख़्स किसी शून्य से नहीं बनता, रज़ा भी नहीं बने थे. उन्हें मंडला के जंगलों ने देखना सिखाया था, उन्हें उनके स्कूल के शिक्षकों ने रचना सिखाया था, मुंबई ने उन्हें समकालीन और आधुनिक बनाया, पेरिस ने उन्हें विश्व दृष्टि दी. लेकिन इन सबके परे एक और चीज़ थी जिसने रज़ा को रज़ा बनाया- भारत और भारत की मिट्टी से उनकी मोहब्बत ने- जिसके जादू से बंधे आख़िरकार वे हिंदुस्तान लौट आए. 

महमूद ने दास्तान के बीच उनके बनाए चित्रों की भी बात की है. बचपन से ही एक शिक्षक के निर्देश पर उन्होंने बिंदु पर ध्यान लगाना शुरू किया और फिर यह बिंदु उनकी कला साधना का केंद्रीय बिंदु बनता चला गया. इसी बिंदु में उन्हें भारतीयता की अंतरात्मा भी दिखी और फिर इसे उन्होंने तरह-तरह से बनाया. उन पर दुहराव के आक्षेप लगे तो उसका भी बहुत सलीके से और सांस्कृतिक दृष्टि से जवाब दिया.  

मंडला के जिस छोटे से प्रेक्षागृह में महमूद यह दास्तान सुना रहे थे, उसकी पृष्ठभूमि में रज़ा का एक विराट बिंदु बना हुआ था. उस बिंदु के बीच बैठे महमूद जैसे बीच-बीच में रज़ा हुए जा रहे थे. यह वह अनुभव है जिसे भूलना आसान नहीं. महमूद की दास्तानगोई उस शाम जैसे एक ब़डी पेंटिंग बनाती रही.  

जिस कार्यक्रम में यह प्रस्तुति हुई, वह रज़ा फ़ाउंडेशन का दो दिवसीय आयोजन युवा-2022 था, जिसमें भारतीय भाषाओं के छह लेखकों पर हिंदी के तीस युवा लेखक विचार करने को बैठे थे जिसकी दास्तान अलग से कई लोग लिखेंगे- लेकिन रज़ा की यह दास्तान अपनी विलक्षणथा में अलग ज़िक्र की मांग करती है.

ये भी पढ़ें-

Featured Video Of The Day
Adani Group के Shares में फिर आया उछाल, समूह ने रिश्वत के आरोपों को बताया 'बेबुनियाद'
Topics mentioned in this article