पेड़ों की कटाई पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी सरकार के लिए 'आंखें खोलने वाली' : पर्यावरणविद

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने सोमवार को लोकसभा को बताया था कि भारत ने 2014-15 से लेकर अलगे 10 वर्षों तक अवधि में विकास गतिविधियों के लिए 1,734 वर्ग किलोमीटर वन भूमि का इस्तेमाल किया है, जो दिल्ली के कुल भौगोलिक क्षेत्र से काफी अधिक है.

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(फाइल फोटो)
नई दिल्ली:

उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी कि बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना किसी इंसान की हत्या से भी बड़ा अपराध है, वन संरक्षण कानूनों को लगातार कमजोर करने वाली केंद्र सरकार और विकास के नाम पर हरित क्षेत्र पर बिना सोचे-समझे आरी चलाने वाली राज्य सरकारों के लिए "आंखें खोलने वाली" होनी चाहिए. पर्यावरणविदों ने बुधवार को यह राय जाहिर की. न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने यह टिप्पणी उस व्यक्ति की याचिका को खारिज करते हुए की थी, जिसने संरक्षित 'ताज ट्रेपेजियम जोन' में 454 पेड़ काट डाले थे.

पीठ ने कहा, "पर्यावरण के मामले में कोई दया नहीं बरती जानी चाहिए. बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना किसी इंसान की हत्या से भी जघन्य है." पर्यावरणविदों ने वन एवं वृक्ष संरक्षण पर शीर्ष अदालत के कड़े रुख का स्वागत किया, लेकिन सवाल उठाया कि क्या सरकारें इसे गंभीरता से लेंगी. 'साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल' (एसएएनडीआरपी) के भीम सिंह रावत ने कहा, "यह केंद्र सरकार के लिए आंखें खोलने वाली टिप्पणी है, जो वन संरक्षण कानूनों को लगातार कमजोर कर रही है."

उन्होंने कहा कि भूगर्भीय लिहाज से नाजुक और जलवायु की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी राज्यों में स्थिति खासतौर पर चिंताजनक है. रावत ने कहा, "पनबिजली संयंत्र, बांध, सड़क, सुरंग और रेलवे जैसी बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर लगातार जोर दिए जाने से हजारों हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का नुकसान हुआ है. इससे क्षेत्र में आपदा के जोखिम, संवेदनशीलता और मृत्यु दर में वृद्धि हुई है."

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केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने सोमवार को लोकसभा को बताया था कि भारत ने 2014-15 से लेकर अलगे 10 वर्षों तक अवधि में विकास गतिविधियों के लिए 1,734 वर्ग किलोमीटर वन भूमि का इस्तेमाल किया है, जो दिल्ली के कुल भौगोलिक क्षेत्र से काफी अधिक है. रावत ने उत्तराखंड में चार धाम बारहमासी सड़क परियोजना का उदाहरण देते हुए दावा किया कि न्यायपालिका वनों की रक्षा करने में "नाकाम" रही है.

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'पीपुल फॉर अरावलीस' की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है और उसे अत्यधिक गर्मी से लेकर हिमनद झीलों के फटने से आने वाली बाढ़ तक का सामना करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा, "हमारे जंगल और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र ही हमारा एकमात्र सुरक्षा कवच हैं, फिर भी हम तथाकथित विकास परियोजनाओं के नाम पर उन्हें नष्ट कर रहे हैं। (ग्रेट) निकोबार से लेकर हसदेव (ओडिशा) तक, पूर्वोत्तर से लेकर अरावली तक, पूरे देश में वनों की कटाई की जा रही है."

अहलूवालिया ने कहा कि अरावली में अवैध एवं अनियंत्रित खनन ने पहले से ही जल-संकट से जूझ रहे क्षेत्र में हरित आवरण और खाद्य एवं जल स्रोतों को तबाह कर दिया है. हालांकि, हिमालयन पॉलिसी कैंपेन के समन्वयक गुमान सिंह ने पेड़ों की कटाई को लेकर शीर्ष अदालत की तल्ख टिप्पणी से असहमति जताते हुए इसे "अवैज्ञानिक दृष्टिकोण" बताया.

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उन्होंने कहा, "पहाड़ों और वन क्षेत्र में रहने वाले वनवासी अपनी आजीविका के लिए पेड़ों पर निर्भर हैं. यह कहना कि पेड़ों को बिल्कुल नहीं काटा जा सकता, सही नहीं है, क्योंकि इससे इन स्वदेशी और पारंपरिक वन समुदायों को नुकसान होगा." सिंह ने बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के लिए आधुनिक विकास नीतियों को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा, "सड़क चौड़ीकरण, बड़े बांध, शहरीकरण और निर्माण जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के कारण वन और बड़े पेड़ नष्ट किए जा रहे हैं. इन तथाकथित विकास गतिविधियों पर लगाम लगाई जानी चाहिए."

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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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