सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के पुणे में 30 एकड़ आरक्षित वन भूमि के अवैध आवंटन को किया रद्द

फैसला लिखते हुए CJI गवई ने कहा, हम मानते हैं कि 28 अगस्त, 1998 को पुणे जिले के कोंढवा बुद्रुक में सर्वे नंबर 21 में 11.89 हेक्टेयर (30 एकड़) आरक्षित वन भूमि का कृषि उद्देश्यों के लिए आवंटन और उसके बाद 30 अक्टूबर, 1999 को RRCH के पक्ष में इसकी बिक्री की अनुमति देना पूरी तरह से अवैध था.

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फाइल फोटो
नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के पुणे में 30 एकड़ आरक्षित वन भूमि के अवैध आवंटन को रद्द कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने राजनेताओं, नौकरशाहों और बिल्डरों के बीच सांठगांठ पर कड़ा प्रहार किया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिछड़े वर्ग के लोगों के पुनर्वास की आड़ में कीमती वन भूमि को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए जारी किया आदेश. साथ ही ऐसे मामलों के लिए एसआईटी गठित करने का भी आदेश दिया. ऐसे मामलों में जमीन वापस लेकर वन विभाग को सौंपने का निर्देश.

दरअसल, इस जमीन को 1998-99 में रिची रिच कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी (RRCH ) को मात्र 2 करोड़ रुपये में आवंटित किया गया था. पीठ ने इसके लिए तत्कालीन राजस्व मंत्री एकनाथ खादर, संभागीय आयुक्त और बिल्डर अनिरुद्ध पी देशपांडे को जिम्मेदार बताया है.

CJI बी आर गवई,  जस्टिस ए जी मसीह और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ ने फैसला सुनाया कि 12 दिसंबर, 1996 के बाद गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए निजी व्यक्तियों या संस्थानों को आरक्षित वन भूमि का आवंटन अवैध है. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे इसे आवंटियों से वापस लें और वनीकरण के लिए उपयोग करें. यह निर्देश उन राज्यों और आवंटियों में हलचल पैदा कर सकता है जिन्होंने वन भूमि हासिल करने के लिए हेराफेरी की है.

पीठ ने कहा,  यह एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे राजनेताओं, नौकरशाहों और बिल्डरों के बीच सांठगांठ के कारण पिछड़े वर्ग के लोगों के पुनर्वास की आड़ में कीमती वन भूमि को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तित किया जा सकता है, जिनके पूर्वजों से सार्वजनिक उद्देश्य के लिए कृषि भूमि अधिग्रहित की गई थी.

फैसला लिखते हुए CJI गवई ने कहा, हम मानते हैं कि 28 अगस्त, 1998 को पुणे जिले के कोंढवा बुद्रुक में सर्वे नंबर 21 में 11.89 हेक्टेयर (30 एकड़) आरक्षित वन भूमि का कृषि उद्देश्यों के लिए आवंटन और उसके बाद 30 अक्टूबर, 1999 को RRCH के पक्ष में इसकी बिक्री की अनुमति देना पूरी तरह से अवैध था. पीठ परियोजना को जुलाई 2007 में केंद्रीय वन मंत्रालय द्वारा दी गई मंजूरी को भी अवैध करार देते हुए रद्द कर दिया है.

पीठ ने कहा, हम निर्देश देते हैं कि वन भूमि के रूप में आरक्षित भूमि, जो राजस्व विभाग के कब्जे में है, का कब्जा तीन महीने के भीतर वन विभाग को सौंप दिया जाना चाहिए. CJI की अगुवाई वाली पीठ ने 'सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत' का हवाला देते हुए कहा, ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन राजस्व मंत्री और तत्कालीन संभागीय आयुक्त ने सार्वजनिक ट्रस्ट के सिद्धांत को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया था.

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इस मामले पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अधिसूचित वन भूमि का विशाल हिस्सा राजस्व विभागों के कब्जे में है, जिससे RRCH मामले जैसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां राजस्व विभाग ने वन विभाग के विरोध के बावजूद, महत्वपूर्ण हरित क्षेत्र को कम करने की अनुमति देते हुए एक बिल्डर को भूमि आवंटित कर दी थी.

पीठ ने कहा, इसलिए, हम पाते हैं कि यह आवश्यक है कि सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश जारी किया जाए कि वे वन भूमि के रूप में दर्ज की गई भूमि और राजस्व विभाग के कब्जे वाली भूमि का कब्जा वन विभाग को सौंप दें. सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के मुख्य सचिवों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों को SIT गठित करने का आदेश दिया ताकि यह जांच की जा सके कि राजस्व विभाग के पास आरक्षित वन भूमि निजी व्यक्तियों या संस्थाओं को आवंटित की गई है या नहीं और उन आवंटियों से ऐसी भूमि वापस लेकर वनीकरण के लिए वन विभाग को सौंप दी जाए. इसने कहा कि यदि वन भूमि को पहले ही गैर-वनीय गतिविधियों के लिए परिवर्तित कर दिया गया है या ऐसी भूमि का कब्जा वापस लेना जनहित में नहीं होगा, तो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ऐसे व्यक्तियों/संस्थाओं से भूमि की कीमत वसूल करनी चाहिए और उक्त राशि का उपयोग वनीकरण, जीर्णोद्धार और संरक्षण उद्देश्यों के लिए करना चाहिए.

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