"यह समानता और जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन", दोषियों की समय से पहले रिहाई पर SC का अहम फैसला

दोषी पर 1994 में एक महिला के बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया गया था.  1996 में, ट्रायल कोर्ट ने उसे बरी कर दिया था.  हालांकि 1998 में हाईकोर्ट ने बरी करने के फैसले को पलट दिया और उसे हत्या और डकैती के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया था.

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नई दिल्ली:

दोषियों की समय से पहले रिहाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की तरफ से एक अहम फैसला सामने आया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लंबे वक्त से जेल में बंद कैदियों को समय से पहले रिहाई से इनकार करना समानता और जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के साथ 26 साल से जेल में बंद उम्रकैद के सजायाफ्ता (Convicted) को रिहा करने का आदेश दिया. ये फैसला केरल में एक महिला की हत्या और डकैती के लिए दोषी ठहराए गए  जोसेफ  नामक  कैदी की याचिका पर दिया गया है. वो 1998 से केरल की जेल में बंद था. 

जस्टिस एस रवींद्र भट और दीपांकर दत्ता की पीठ के समक्ष हुई बहस

अदालत ने  कैदियों के पुनर्वास और सुधार पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया जो सलाखों के पीछे रहने के दौरान काफी हद तक बदल गए हों.  गुरुवार को फैसला सुनाते हुए जस्टिस एस रवींद्र भट और दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि  लंबे समय से बंद  कैदियों को समय से पहले रिहाई की राहत से वंचित करना न केवल उनकी आत्मा को कुचलता है और उनमें निराशा पैदा करता है. साथ ही यह समाज के कठोर और क्षमा न करने के संकल्प को भी दर्शाता है. अच्छे आचरण के लिए कैदी को पुरस्कृत करने का विचार पूरी तरह से नकार दिया गया है.  जस्टिस भट ने कहा कि यह मामला दया याचिका और लंबे समय से जेल में बंद कैदियों के इलाज के पुनर्मूल्यांकन से संबंधित है.

पीठ ने उठाए गंभीर सवाल? 

जारी सजा की नैतिकता के बावजूद, कोई इसकी तर्कसंगतता पर सवाल उठा सकता है. सवाल यह है कि ऐसे व्यक्ति को दंडित करना जारी रखने से क्या हासिल होगा जो अपने किए की गलती को पहचानता है, अब उससे अपनी पहचान नहीं रखता है, और उस व्यक्ति से बहुत कम समानता रखता है जो वह वर्षों पहले था. कोर्ट ने कहा कि इतनी लंबी सजा पर जोर देने से ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी जहां दोषी जेल की दीवारों के भीतर ही मर जाएंगे. उन अपराधों के लिए कभी आजादी नहीं देख पाएंगे जो उन्होंने सालों पहले किए थे. 

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दोषी पर क्या थे आरोप? 

दोषी पर 1994 में एक महिला के बलात्कार और हत्या का आरोप लगाया गया था.  1996 में, ट्रायल कोर्ट ने उसे बरी कर दिया था.  हालांकि 1998 में हाईकोर्ट ने बरी करने के फैसले को पलट दिया और उसे हत्या और डकैती के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया था. साथ ही  आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2000 में दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा था. 

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केरल सरकार ने किया था नियम में बदलाव

सलाहकार बोर्ड की सिफारिशों के बावजूद, याचिकाकर्ता की रिहाई की मांग को सरकार ने इनकार कर दिया था.   2022 में, एक सरकारी आदेश ने समय से पहले रिहाई को और प्रतिबंधित कर दिया, जिसमें कहा गया कि महिलाओं और बच्चों से जुड़ी हत्या या बलात्कार के साथ हत्या के दोषी लोग ऐसी राहत के हकदार नहीं होंगे. दोषी के वकील ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि उनके मामले पर छूट की नीति के आधार पर विचार किया जाना चाहिए जो 1998 में उसकी सजा के समय मौजूद थी. 

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याचिकाकर्ता ने भेदभाव का मुद्दा उठाया

याचिकाकर्ता ने भेदभाव का आधार भी उठाया कि समान अपराध करने वाले व्यक्तियों को रिहा कर दिया गया था. फैसले में कैदियों की रिहाई के मूल्यांकन में अच्छे व्यवहार और पुनर्वास जैसे कारकों पर विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया.  न्यायालय ने  कहा कि दोषी को कारावास की लंबी अवधि को देखते हुए फिर से छूट सलाहकार बोर्ड से संपर्क करने के लिए कहना एक "क्रूर परिणाम" होगा. न्यायालय ने उसकी तत्काल रिहाई का आदेश देते हुए कहा कि कानून के शासन की भव्य दृष्टि और निष्पक्षता का विचार प्रक्रिया की वेदी पर बह गया है, जिसे इस अदालत ने बार-बार न्याय की दासी माना है. 

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