- अरावली पहाड़ियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के 100 मीटर ऊंचाई वाले नियम के खिलाफ व्यापक आंदोलन चल रहा है
- पर्यावरणविद् और ग्रामीणों ने रविवार 21 दिसंबर को एक दिवसीय सांकेतिक उपवास का ऐलान किया है
- इनकी मांग है कि पहाड़ियों की ऊंचाई वाला नियम खारिज किया जाए क्योंकि इससे निचली पहाड़ियों पर खनन का खतरा है
अरावली पहाड़ियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ विरोध बढ़ता जा रहा है. अरावली को बचाने की मांग को लेकर लड़ाई अब डिजिटल दुनिया से निकलकर जमीन पर उतर आई है. पर्यावरणविद् और ग्रामीण समुदायों ने रविवार 21 दिसंबर को एक दिवसीय सांकेतिक उपवास शुरू करने का ऐलान किया है. अरावली बचाने के इस आंदोलन में ग्रामीण समुदायों से लेकर पर्यावरणविद और नेताओं तक, हजारों लोग जुड़ रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसे नेताओं ने अपनी प्रोफाइल फोटो बदलकर इस अभियान को समर्थन दिया है.
अरावली के उत्तरी छोर पर सांकेतिक उपवास
यह उपवास सुबह 10 बजे से किया जाएगा. इस आंदोलन का केंद्र हरियाणा के भिवानी जिले में स्थित तोशाम हिल पर रहेगा. यह करीब 2 अरब साल पुरानी इस पर्वतमाला का सबसे उत्तरी छोर है. सोशल मीडिया पर यह मुद्दा ट्रेंड कर रहा है. #SaveAravalli और #SaveAravallisSaveAQI जैसे हैशटैग से लोग अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं.
क्या है प्रदर्शनकारियों की मांग?
प्रदर्शनकारियों की मांग है कि ऊंचाई के आधार पर पहाड़ियों को बांटने वाले नियम को तुरंत खारिज किया जाए, क्योंकि इससे निचली पहाड़ियों पर खनन का खतरा मंडराने लगा है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की परिभाषा को केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों तक सीमित कर दिया है और इन्हें संरक्षित करने की बात कही है. सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को स्वीकार करते हुए यह फैसला दिया है.
अरावली: उत्तर भारत की जीवनरेखा
- 2 अरब साल पुरानी अरावली रेंज दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में करीब 692 किमी तक फैली है.
- ये पहाड़ियां थार रेगिस्तान की रेत, गर्म हवा और धूल को दीवार की तरह रोककर कवच का काम करती हैं.
- यह क्षेत्र के भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए प्राकृतिक रिचार्ज जोन है.
- प्रदूषण की मार झेल रहे दिल्ली-NCR के लिए यह 'फेफड़ों' का काम करती है.
- अरावली के जंगल 37 जिलों में बसे समुदायों के लिए ईंधन, चारा, औषधीय पौधे और पानी का स्रोत हैं.
क्यों डरा रहा है 100 मीटर का पैमाना?
भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के एक इंटरनल एसेसमेंट में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. इसमें कहा गया है कि अरावली की परिभाषा बदलने से इसका 90 फीसदी से अधिक हिस्सा संरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएगा. अकेले राजस्थान में ही पहचानी गईं 12,081 पहाड़ियों में से सिर्फ 1,048 (मात्र 8.7%) ही 100 मीटर के इस मापदंड पर खरी उतरती हैं.
"अरावली को मौत की सजा"
पीपल फॉर अरावली की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने गहरी निराशा जाहिर करते हुए कहा कि जब दुनिया के इक्वाडोर, कोलंबिया, न्यूजीलैंड और बांग्लादेश जैसे देशों में अदालतें प्रकृति को कानूनी अधिकार दे रहे हैं, भारत की सुप्रीम कोर्ट से अरावली को "मौत की सजा" सुनाई जा रही है.
खनन पर रोक लगाने की मांग
Stand With Nature के संस्थापक लोकेश भिवानी का कहना है कि कोर्ट का यह फैसला उत्तर-पश्चिमी भारत को रेगिस्तान से बचाने वाली एकमात्र दीवार को तोड़कर रख देगा. हम मांग करते हैं कि पूरी अरावली रेंज को महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय क्षेत्र (significant ecological area) घोषित किया जाए और हर तरह के खनन पर तुरंत रोक लगाई जाए.
11 दिसंबर को लॉन्च अरावली विरासत जन अभियान के तहत सांसदों से मुलाकात करके समर्थन जुटाया जा रहा है. राजस्थान किसान मजदूर नौजवान संघ के नेता वीरेंद्र मोर ने बताया कि भारत आदिवासी पार्टी (BAP) के सांसद राजकुमार रोत ने भी इस फैसले के खिलाफ जमीनी लड़ाई तेज करने का आश्वासन दिया है, क्योंकि यह सांस्कृतिक पहचान और अस्तित्व पर हमला है.














