रवीश कुमार का प्राइम टाइम : आरोपी कई साल पैरोल पर रहे, तब भी हुई शिकायत और एफ़आईआर

कुछ ख़बरों को देखकर लगता है कि देश बदला है न दिन. सब कुछ जहां था, वहीं रुका हुआ है. क्या हम एक ऐसे समय और समाज में रहने लगे हैं, जहां गृह मंत्री के लिए बोलना इतना भारी पड़ जाएगा, कि उनके मंत्रालय ने 2002 के दंगों से जुड़े बलात्कार और हत्या के 11 सज़ायाफ़्ता क़ैदियों की रिहाई की मंज़ूरी क्यों दी?

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नमस्कार मैं रवीश कुमार,
खबरों की दुनिया में सूचनाएं इतनी तेजी से बदल जाती हैं कि पता ही नहीं चलता कि किस खबर का क्या हुआ. कुछ खबरों को देखकर लगता है कि देश बदला है ना दिन सब कुछ जहाँ था वही रुका हुआ है. क्या हम एक ऐसे समय और समाज में रहने लगे है जहाँ गृहमंत्री के लिए बोलना इतना भारी पड़ जाएगा कि उनके मंत्रालय ने दो हजार दो के दंगों से जुड़े बलात्कार और हत्या के ग्यारह सजायाफ्ता कैदियों की रिहाई की मंजूरी क्यों दी? क्या अमित शाह और सरकार की चुप्पी की वजह से दो हजार बारह का ये आंदोलन भी कर दिया जाएगा जब निर्भया के साथ बलात्कार की घटना से सारी दिल्ली रायसीना हिल्स पर जमा हो गई? जिस जगह पर आज सेंट्रल विस्टा बना है उसी जगह पर न जाने किन घरों से और धर्मों की लड़कियाँ और लड़के बलात्कार और हत्या की इस घटना के खिलाफ सड़क पर उतर आए. वो लोग इस वक्त कहाँ हैं जिनके गुस्से में एक शानदार कानून बनवाया, निर्भया फंड बनवा दिया? क्या अब उस समय के लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि गृहमंत्री अमित शाह के मंत्रालय ने हत्या और बलात्कार के ग्यारह सजायाफ्ता को छोड़ने की मंजूरी दी है. क्या उनका आक्रोश अब सीमेंट बनकर पॅाल विस्ता में बिच गया है जहाँ दिल्ली की लड़कियां दो हजार बारह की सर्दियों में प्रदर्शन किया करती थी.

आज समाज चुप नजर आता है इसलिए बेहतर है उस समय की लड़कियों को ही सुन लेते हैं जो निर्भया बलात्कार और हत्या कांड पर बोलने से पहले पुलिस की लाठियों की परवाह नहीं किया करती थी. सर्दी के दिनों में पानी की बौछारों की परवाह नहीं करती थी ताकि आपको याद रहे कि आज का समाज हमेशा मारा हुआ नहीं था, कभी जिंदा भी था, इंडिया के लोग सोये नहीं हुए हैं. फर्क आज कल का यूथ जगा हुआ है. कोई पब्लिसिटी नहीं है कि जो भी आप बंद लगा दीजिए, जितने मर्जी मॅन बंद कर दीजिए. ये सब लोग ऑलवेज ड्रम, गुडगाँव, फरीदाबाद कहाँ कहाँ से आए हैं? जस्ट साइलेंट ऑल अवेक ऍम नहीं बीच में चौराहे मिला दिया सबके सामने फांसी ताकि वो दोबारा ही नहीं किसी दिन ख्याल भी आया तो सबसे पहले ही हमारे माँ बाप ने अपने आप फॅमिली लेकिन इसलिए नहीं उनकी मुँह में सारे लूट ली जाए. हमें आप के आश्वासन नहीं चाहिए. हमें एक्शन चाहिए. सारी चीजें बहुत जल्दी आपको बहुत जल्दी मुँह मिल जाएगा. तब समाज बोलता था, सरकार भी बोलती थी. आज सरकार से पूछते रह जाइए. उसके बदले गोदी मीडिया समाज को ही चुप करा देता है. बिलकिस बानो के केस के कवरेज और सवालों पर सरकार की चुप्पी को समझने के लिए आपको फ्लॅाप होगा. तभी पता चलेगा कि उस वक्त क्या क्या हो था. आप इन्हें तो पहचानते होंगे और के सिंह मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री है.

भाजपा सांसद है उस वक्त यानी मनमोहन सिंह सरकार में गृह सचिव हुआ करते थे. आरके सिंह के बोलने पर तब कोई रोक नहीं थी बल्कि जन दबाव इतना था. गुस्सा इतना था कि गृह सचिव के तौर पर ऍफ रिंस किया करते थे. इंटरव्यू दिया करते थे, भरोसा दिया करते. उनके साथ दिल्ली पुलिस के कमिश्नर की भी प्रेस कांफ्रेंस हुआ करती थी. जवाब आता था आज तो रिकॉर्ड भी गायब हो गया है. रिकॉर्ड को शायद ही कोई ऐसे मामलों में बोलने आता है. खैर आज के गृह सचिव अजय कुमार भल्ला ही आरके सिंह की तरह बिल किस मामले में बोल सकते थे. उन्हें इसी अगस्त में एक साल का सेवा विस्तार दिया गया है. जब गृहमंत्री अमित शाह नहीं बोल रहे, गृह सचिव नहीं बोल रहे तो आइए उस समय के गृह सचिव के बयानों से ही काम चलाते हैं जब अक्सर बोला करते थे वन ऍम टाइम हाँ टाइम रिपोर्टिंग राइट टाइम ऍम फोर मिनिट्स अदर रिकॉर्डिंग फॅमिली ऍम ओके ऍम फॅर ऍम. पंद्रह अगस्त के दिन जब हत्या और बलात्कार के ग्यारह कैदियों को छोडा गया, दंगाइयों को छोड़ा गया तब उसे लेकर जो सवाल उठे, काफी कम थे. वे सारे सवाल गुजरात सरकार के हलफनामे के बाद बदल जाते हैं. उनका दायरा भी बड़ा हो जाता है.

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ऐसे दस्तावेज निकल कर आ रहे हैं जिससे संदेह और भी गहरा हो रहा है कि इन्हें छोड़ा तो गया है कानून की प्रक्रिया के नाम पर. मगर केवल कानून की प्रक्रिया के नाम पर नहीं छोड़ा गया है. बेहतर होता गृहमंत्री अमित शाह सारे सवालों के जवाब देते हैं. वे चुप हैं. मगर ऐसा नहीं है कि वे सार्वजनिक मंचों पर सक्रिय नहीं है. उनके ट्विटर हैंडल को तीन करोड़ से ज्यादा लोग फॉलो करते हैं. इतने लोगों के बीच अमित शाह मौजूद हैं. डी फॅलस्वरूप और प्रधानमंत्री के भाषण को ट्वीट कर रहे हैं. इसी में एक ट्वीट इस पर भी कर देते हैं कि उनके मंत्रालय के फैसले को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं उस पर अमित शाह क्या सोच रहे हैं. चार सौ सतहत्तर पन्नों का या हलफनामा नहीं आया होता तो आप बहुत से तथ्यों के बारे में कभी नहीं जान पाते. गोदी मीडिया के इस दौर में ना सवाल पूछा जाता है ना पूछने पर जवाब आता है या चाट भी के भीतर मिला. इससे पता चलता है कि एक को छोड़कर इन सभी को एक हजार दिनों से ज्यादा जमानत पर रिहा किया गया जिन्हें कानून की भाषा में फरलो रोल और अस्थाई जमानत कहते हैं. रमेश भाई चंदाना पंद्रह सौ छिहत्तर दिनों तक जेल से बाहर रहे. चार साल से भी ज्यादा राजू सोनी तेरह सौ अड़तालीस दिनों तक जेल से बाहर रहे. साढ़े तीन साल से ज्यादा प्रदीप मोदिया बारह सौ चौंसठ दिनों तक जेल से बाहर रहे.

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करीब साढ़े तीन साल दंगाइयों को हत्या और बलात्कार के मामले में सश्रम सख्त सजा दी जाए और साढ़े तीन साल से साढ़े चार साल परोल या फरलो पर बाहर रहना पड़ा. तब क्या सजा का मकसद पूरा होता है या आधार दिया जा रहा है कि इन सभी का जेल में आचरण अच्छा था. क्या वाकई आचरण अच्छा था? क्या कई सारे तथ्यों को जानबूझकर नजर अंदाज किया गया. दो हजार बारह में रमेश चंदाना ने सत्ताईस दिनों की देरी से सरेंडर किया. तब बोल पर बाहर था. दो हजार तेरह में इकतीस दिनों की देरी से सरेंडर करता है. तब फरलो पर बाहर था. दो हजार चौदह में आठ दिनों की देरी से सरेंडर करता है. तब फरलो पर बाहर था. दो हजार पंद्रह में एक सौ बाईस दिनों की देरी से सरेंडर करता है, जब फरलो पर बाहर था. फरलो और परोल पर कैदियों को कितने दिनों के लिए रिहा किया जाएगा, इसके नियम हर राज्य में अलग-अलग हो सकते हैं. रमेश भाई चंदाना का रिकॉर्ड बताता है कि वो चार साल नब्बे दिनों से ज्यादा परोल पर बाहर रहा है. दो हजार उन्नीस के बाद से वो परोल पर ज्यादा दिनों के लिए बाहर आने लगता है.

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परोल और फरलो अलग अलग होते हैं. दो हजार उन्नीस में तो रमेश भाई चंदाना एक सौ नौ दो दिन परोल पर बाहर रहता है. करीब चार महीने हत्या और बलात्कार के मामले में सजा पाया कैदी एक साल में चार महीने बाहर रहता है. कोविद के समय पाँच मार्च दो हजार बीस से इकतीस अगस्त दो हजार बीस के बीच एक सौ अस्सी दिनों के पैरोल पर बाहर आता है. नौ दिन जेल में रहता है और फिर से नौ सितंबर दो हजार बीस से लेकर तेरह फरवरी दो हजार इक्कीस के बीच एक सौ अट्ठावन दिनों के लिए पैरोल पर बाहर आ जाता है. फिर पचास पचपन दिनों तक जेल में रहता है और बाईस अप्रैल दो हजार इक्कीस से नौ नवंबर दो हजार इक्कीस के बीच दो सौ दो दिनों के लिए पैरोल पर बाहर आ जाता है. इस तरह रमेश चंदाना पाँच मार्च दो हजार बीस से लेकर आठ अप्रैल दो हजार तक परोल पर बाहर रहता है. करीब दो साल से भी ज्यादा समय तक परोल पर बाहर रहता है. क्या कोविड के नाम पर दूसरे मामलों के कैदियों के साथ इतनी मेहरबानी बरती गई? इसकी जांच होनी चाहिए. आपको याद होगा कि इसी दौरान मतलब कोविद के दौरान एक डॉक्टर कफील खान को कई महीनों तक मथुरा जेल में रहना पड़ा. जबकि डॉक्टर कफील खान ने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा कि बाहर आने दीजिए ताकि कोविद के समय एक डॉग डॉक्टर के रूप में सेवा कर सकें.

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डॉक्टरों की कमी हो रही है बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि कफील खान पर अवैध तरीके से अवैध तरीके से फॅस और कफील खान को सात महीने तक जेल में रहने के बाद रिहा किया गया तो आप देख रहे हैं कि कानून कैसे काम कर रहा है. इसलिए सवाल उठता है कि क्या इनके परोल या फरलो पर बाहर आने का मामला संदेहों से परे है या कुछ गड़बड़ है. बिलकिस बानो के बलात्कार और उससे संबंधित अन्य जघन्य अपराधों जिसमें हत्या भी शामिल है उसके अपराधियों को पे रोल पे छूटना एक गंभीर तुम भी है. ब्यूटी इसलिए भी है क्योंकि उसके बारे में ये कहा जाता है कि पेरोल पर क्योंकि उनकी नेक चलने की रिपोर्ट थी लगभग चौदह साल जेल में रहने के बाद उन्नीस सौ बानबे के जो पेरोल और जेल मैन्युअल के ऑर्डर थे उसके आधार पर उन्होंने कहा ये रिलीज ऑर्डर है. फिर कुछ लोगों का ये तर्क था कि दो हजार चौदह के आदेश के मुताबिक नहीं होना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा कि उन्नीस सौ बानबे के आदेश बल्कि वो प्रासंगिक है जब उनका कन्विक्शन हुआ था. मैं इस पे विवाद पे नहीं जा रहा हूँ कि कौन सा कानून लगे.

उन्नीस सौ बानबे का लगे दो हजार चौदह का लगे लेकिन बलात्कार, हत्या, ऐसे जघन्य अपराध के अपराधियों को नेक चलने के आधार पर छोड़ना छोड़ने के बाद उनको लड्डू खिलाना, मिष्ठान खिलाना, उनका माल्यार्पण करना ये अत्यधिक आपत्तिजनक है और इसका बहुत ही नकारात्मक और गलत संदेश जाता है. मैं यहाँ तक कहूँगा कि इटिआस इन लॉ ये बिल्कुल असंवेदनशील, अमानवीय कृत्य है और मुझे सख्त आपत्ति है. बलात्कारियों और हत्यारों को पैरोल पर छोड़ा जाना पूरी प्रशासनिक ताकत होनी चाहिए थी. ऐसे हत्यारों को जेल की सलाह के पीछे रखने के लिए कार्यवाही करना दिखाई उसके उल्टा पड़ रहा है कि पूरी शासन प्रशासन की लगी बलात्कारियों को जेल से बाहर करने में यही मेरी आपत्ति है. मैं यह अपेक्षा करता हूँ की स्थिति को सुधारें और समस्त हत्यारों, बलात्कारियों को जेल की सलाह के पीछे रखे और इनकी सजा तब तक चलनी चाहिए जब तक जेल के भीतर इनका अंतिम संस्कार ना हो जाए. इसकी जांच होनी चाहिए कि इन्हें साढ़े तीन साल किसी को तीन साल, किसी को साढ़े चार साल तक बाहर रहने की मेहरबानी की गई या एक सामान्य कैदी के अधिकार की तरह इन्हें ये सुविधा मिली. जब आप इस सवाल पर सोच ही रहे हैं तो इस पर भी ध्यान दे सकते हैं. इस मामले में भी हत्या और बलात्कार के मामले में सजा हुई है, लेकिन पूंछ है कि तमाम ट्रक और टेम्पो के पीछे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा लिख दिया गया है.

चार दिन पहले डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को चालीस दिनों के पैरोल पर रिहा किया गया. इकोनॉमिक टाइम्स ने लिखा है कि चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो गुरमीत राम रहीम को छोड़ा गया है. इंडियन एक्स्प्रेस ने भी लिखा है कि चुनाव के नजदीक आते ही डेरा प्रमुख राम रहीम को परोल पर रिहा किया गया. हरियाणा में तीन नवंबर को आदमपुर में उपचुनाव है और साथ में पंचायत चुनाव भी. राम रहीम को दो हजार सत्रह में सीबीआई की विशेष अदालत ने दो महिला शिष्याओं के साथ बलात्कार के मामले में सजा सुनाई थी. दो हजार उन्नीस में हिंसा के बहादुर पत्रकार रामचंद्र छत्रपति जी की हत्या के मामले में सजा हुई और पिछले साल डेरा के प्रबंधक रंजीत सिंह की हत्या के मामले में सजा हुई. इंडियन एक्स्प्रेस ने लिखा है कि राम रहीम को दो हजार इक्कीस में तीन बार परोल पर रिहा किया गया. दो हजार बाईस में दो बार फरवरी में इक्कीस दिनों इसलिए और जून में एक महीने के लिए अब फिर से चालीस दिनों के लिए पैरोल पर छोड़ा गया. नियम है कि साल में नब्बे दिनों का परोल मिल सकता है. अगर आचरण अच्छा हो तो. हम बात कर रहे हैं कि जेल सलाहकार समिति ने गोधरा की जेल सलाहकार समिति ने दो हजार दो के गुजरात दंगों के मामले में किस तरह सजा पूरी होने से पहले देकर छोड़े जाने की इजाजत दी.

इस पंद्रह अगस्त को इन्हें रिहा किया गया. तब सभी का ध्यान इस समिति पर था. इंडिन एक्स्प्रेस में बीजेपी के एक स्थानीय विधायक सीके राव जी का बयान छपा है कि गोधरा जेल सलाहकार समिति ने आम सहमति से फैसला दिया, लेकिन हलफनामे में आम सहमति की जो भाषा है उसे देखकर लग सकता है की एक की ही सहमति की भाषा सभी सदस्य बोल रहे हैं. रमेश भाईरूपा भाई चंदाना को रिहा करते समय समिति के कई सदस्यों की भाषा एक समान लगने लगती है. हमने रमेश भाई चंदाना के मामले में देखा जिन्हें पंद्रह सौ छिहत्तर दिनों तक अस्थाई जमानत, पैरोल और फरलो पर बाहर रहने का मौका मिला. चार साल से ज्यादा जेल सलाहकार समिति के पाँच सदस्यों की भाषा कैसे सेम टू सेम है, अंग्रेजी में है क्या सभी सदस्यों को अंग्रेजी आती है या अनुवाद हुआ होगा. ऐसे ही एक सवाल मन में आ गए. इसमें तीन सामाजिक कार्यकर्ता है और दो विधायक, जिलाधिकारी पुलिस अफसर की भाषा इन सभी से अलग है. हमारी सहयोगी शुभांगी अंग्रेजी में लिखे गए सलाह को जल्दी जल्दी पड़ रही है. आप देखेंगे की समिति के पाँच सदस्यों की भाषा सेम टू सेम है मगर सभी के नाम सेम टू सेम नहीं है. इनके नाम है पवन कुमार सोनी, विनीता बेन लेले, सुमनबेन चौहान, सरदारसिंह पटेल सीखेगी राव जी असफर ऑर्डर दी हाँ डबल सुप्रीम कोर्ट अकॉर्डिंग तो पॉलिसी नाइंटी नाइंटी नाइंटी टू प्रौं कम्पलीट ऍम फोर्टी नौं डिस्ट्रिक्ट फॅमिली कीपिंग आपने देखा कि रमेश भाई चंदाना के मामले में पाँचों सदस्यों की भाषा एक समान हैं. रमेश भाई चंदाना एक बार परोल पर गया तो एक सौ बाईस दिनों के बाद आया.

एक सौ बाईस दिन लेट आने पर कैसे लिखा जा सकता है कि समय पर आया करता था या व्यवहार अच्छा था? क्या वाकई व्यवहार अच्छा होने के कारण इन्हें रिहा किया गया? परोल पर रिहा होने वाले कैदियों के खिलाफ थाने में जो एफआइआर है. पुलिस के पास दो-दो शिकायतें हैं. उन्हें क्यों नजर अंदाज किया गया? क्या उन पर विचार हुआ था? एनडीटीवी की रिपोर्ट है कि दो हजार सत्रह से इक्कीस के दौरान परोल पर बाहर आए चार कैदियों के खिलाफ केस के चार अलग अलग गवाहों की तरफ से एक मामले में एफआइआर और दो मामले में थाने में शिकायत दर्ज कराई गई. एनडीटीवी को मिली जानकारी के अनुसार सब्र बेन पटेल नाम की गवाह ने छह जुलाई दो हजार बीस को दाहोद के राधेपुर थाने में एफआईआर दर्ज कराई. कैदी राधेश्याम शाह, नितेश भाई भट्ट के खिलाफ एफआईआर हुई है. इसमें महिला की गरिमा को चोट पहुंचाने, हत्या की धमकी के मामले जोड़े गए. एफआईआर कराने वाली साबेर बेन पटेल बिलकिस बानो केस में गवाह है. उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों कैदियों राधेश्याम शाह और नितेश भाई भात के अलावा राधेश्याम के भाई आशीष ने सवेरा उनकी बेटी आरफा को धमकाया. इस मामले में लिमखेडा कोर्ट में ट्राइल चल रहा है.

यानी इस मामले में बरी होने का भी इंतजार नहीं किया गया. गोधरा जेल सलाहकार समिति से लेकर गृह मंत्रालय की मंजूरी तक में इस एफआइआर को किस आधार पर देखा गया या नजर अंदाज किया गया क्या इसलिए की हत्या और बलात्कार के मामले में सजा पाए कैदियों के आचरण को अच्छा बताना था? यही नहीं बिल किस मामले के एक अन्य गवाह मंसूरी अब्दुल रज्जाक ने एक जनवरी दो हजार इक्कीस को दाहोद पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई है. लिखा है कि परोल पर बाहर आए कैदी शैलेश चिमनभाई भात के साथ बीजेपी के विधायक शैलेश भाई भाई मोर और पूर्व राज्य मंत्री और लोकसभा सांसद जसवंत सिंह ने मंच साझा की.

क्या आप को पता था की हत्या और बलात्कार के कैदी के साथ बीजेपी के सांसद मंच साझा कर रहे हैं? इसकी तस्वीर भी शिकायत के साथ पुलिस को दी गई है. पुलिस उस को दी गई शिकायत में अब्दुल रजाक ने लिखा है कि परोल पर आए कैदी शैलेश भट्ट ने उन्हें धमकी दी. गुजरात पुलिस ने इस शिकायत को एफआइआर में बदलने की जरूरत नहीं समझी. एक और शिकायत पुलिस को मिली है जो सजायाफ्ता गोविंद के खिलाफ है. अट्ठाईस जुलाई दो हजार सत्रह को दर्ज कराई गई. आरोप लगाया गया कि उन्हें समझौता करने की धमकी दी जा रही है. इस शिकायत को भी एफआइआर में नहीं बदला गया. दो हजार में बिलकिस बानो ने अपनी छह साल की बच्ची सहित अपने परिवार के चौदह लोगों का देखा. उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. पंद्रह अगस्त दो हजार बाईस को इस जघन्य मामले के ग्यारह मुजरिम रिहा कर दिए गए.

अच्छे चाल चलन के आधार पर केंद्र सरकार के मंत्री इस फैसले को सही ठहराते हैं. हाँ जी बट वन इश्यू ऍम सोक लीर रिलीस उं इन यू नो इंदी ऍम आउट. सो हॉट होम मिनिस्ट्री पर्सनल ई क्लॉक ऍम बीइंग फॉर सम टाइम. मगर एनडीटीवी को मिले दस्तावेज बताते हैं कि इन ग्यारह लोगों को लगातार पेरोल और बेल के जरिए बाहर आने का मौका मिलता रहा और इस दौरान इनमें से कई लोगों ने कानून तोड़े. दो हजार सत्रह से दो हजार इक्कीस के बीच कम से कम चार गवाहों ने चार मुजरिमों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि वे धमकी दे रहे हैं. एनडीटीवी के पास एक फाइर और दो पली शिकायतें हैं. छह जुलाई दो हजार बीस को राधेश्याम शाह और नितेश भाई भात के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कराई गई. दाहोद के राधिकापुर पुलिस स्टेशन में दर्ज इस एफआईआर के मुताबिक इन दोनों ने और इनके एक भाई ने गवाहों को डराया धमकाया. एक जनवरी दो हजार इक्कीस को एक अन्य गवाह मंसूरी अब्दुल रजाक माजिद ने दाहोद में शैलेश चिमनलाल भट्ट के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई की उन्होंने पेरोल पर रहते हुए उन्हें धमकी दी है. शिकायत में ये भी बताया गया है कि लोकसभा सांसद और मंत्री रहे जसवंत सिंह भभोर ने एक आरोपी शैलेश चिमनलाल भट्ट को मंच पर बुलाकर अच्छे कामों के लिए प्रोत्साहित किया.

अट्ठाईस जुलाई दो हजार सत्रह को दो अन्य गवाहों ने मुजरिम गोविंद नाइक के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई. कहा कि उन पर समझौता करने का दबाव डाला जा रहा है वरना उन्हें जिंदा नहीं छोड़ा जाएगा. यही नहीं पे रोल पर रहते हुए नितेश चमनलाल भात पर यौन हमले का भी आरोप लग चुका है. इन तथ्यों को लेकर विपक्ष लगातार सवाल खड़े कर रहा है. अब इस सवाल पर बीजेपी और केंद्र सरकार घिर सकती है कि आखिर ये कैसा अच्छा चाल-चलन था और किस बात की जल्दी थी कि केंद्र सरकार ने बेहद जघन्य अपराध के दोषियों को छोड़ने की सिफारिश की. बिलकिस बानो का मामला इंसाफ की एक बड़ी कसौटी है. इसमें जरा भी ढिलाई या गलत बयानी पूरे इंसाफ को कटघरे में खड़ा कर देती है. अब जो नए तथ्य सामने आ रहे हैं उसके बाद देखना बेहद महत्वपूर्ण होगा कि बिलकिस बानो मामले में आगे क्या होता है दिल्ली से आजम सिद्दीकी के साथ हिमांशु शेखर एनडीटीवी इंडिया क्या इन कैदियों को छोड़े जाने का संबंध गुजरात विधानसभा चुनाव से हो सकता है? अगर इसका राजनीतिक महत्व नहीं है तो फिर जांच होनी चाहिए कि बीजेपी के सांसद जसवंत सिंह और विधायक शैलेशभाई भामौरी क्या एक कैदी के साथ मंच साझा किया था क्योंकि इसकी तस्वीर शिकायत के साथ पुलिस को दी गई है. ऐसा दावा किया जा रहा है क्या दंगाइयों के साथ मंच साझा किया जा जा सकता है? बिना किसी राजनीतिक कारण के हत्या और बलात्कार के मामले में सजा पाए कैदी के साथ कौन साझा करना चाहेगा? पुलिस के पास अगर ये तस्वीर है तो उसे खुद से सार्वजनिक कर देना चाहिए क्योंकि अगर यही तस्वीर विपक्ष के किसी नेता की होती तो गोदी मीडिया की पहली हेडलाइन हो.

सवाल पूछा जा सकता है कि क्या इनकी रिहाई का संबंध गुजरात चुनाव से है? लेकिन अगर इसका जवाब हां में आ गया तो किसी भी समाज के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि नेता जनता के विवेक को इतना हल्का भी ना समझे की हत्या और बलात्कार के कैदी को रिहा करने से समर्थन मिल जाएगा. बसपा के सांसद दानिश अली ने इन्ही सब राजनीतिक संदर्भों में सवाल उठाए हैं. हत्या और बलात्कार के मामले में जिन कैदियों को छोड़ा गया उसे लेकर केवल तकनीकी और प्रशासनिक स्तर पर ही इतने सवाल उठते हैं कि धार्मिक स्तर पर जाकर राजनीतिक सवाल करने की नौबत बहुत बाद में आती है.


हैरानी की बात है कि आम आदमी पार्टी ने इसे लेकर सीधा सवाल नहीं किया. सांसद संजय सिंह कह रहे हैं कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन जब हत्या और बलात्कार के सजायाफ्ता पंद्रह अगस्त को बाहर आए तब तो ये मामला सुप्रीम कोर्ट में नहीं गया था और मामला भले कोर्ट में है. सारे दस्तावेज अब पब्लिक में है. क्या आम आम आदमी पार्टी यही पैमाना सभी मामलों में अपनाती है? आम आदमी पार्टी पर आरोप लग रहा है कि वह खास वजहों से बिल किस मामले में चुप है. क्या ये मामला केवल बिल किसका है? महिलाओं के सम्मान का नहीं उससे ज्यादा गृह मंत्रालय की मंजूरी पर जब सवाल उठ रहे हैं तब आम आदमी पार्टी को क्यों सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेना पड रहा है? यह सर्वविदित सत्य है कि जो बलात्कारी है उनको बचाने का काम भारतीय जनता पार्टी करती है. अलग-अलग राज्यों में इसके आपको साक्ष्य मिल जाएंगे. दूसरी बात यह है कि बिलकिस बानो का मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय में है और वहाँ से उम्मीद है कि उनको न्याय मिलेगा, क्योंकि सारे तथ्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने आ रहे एक मुद्दा भी होगा.

आम आदमी पार्टी के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय के सामने मामला है. न्यायालय दीजिए, जिन्हें रिहा किया गया, वे दंगाई थी, हत्या और बलात्कार के मामले में दोषी पाए गए थे. दो हजार दो के गुजरात दंगों के मामले में इन्हें सजा मिली थी. अदालत ने दोषी करार दिया. फिर आम आदमी पार्टी को इनकी रिहाई पर बोलने में इतना अगर मगर क्यों करना पड़ रहा है? इक्कीस बालों के बारे में सोचिए, उनके साथ बलात्कार करने वाले लोग बाहर घूम रहे होंगे. एक कमजोर महिला पर कितना मानसिक दबाव होगा? ये मामला बेशक सुप्रीम कोर्ट में है, मगर उस से पहले ही कई सारी बातें पब्लिक में आ चुकी हैं. ये दस्तावेज कई गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं. कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं. इस रिहाई की खिलाफत सीबीआई ने स्पेशल कोर्ट ने, जिसने इनको दोषी पाया था और वहाँ पीने की उन लोगों ने कहा, ये बहुत ही संगीन जुर्म है. महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया था. उनको बिल्कुल नहीं रिहा करना जाना चाहिए. उसके बाद भी गुजरात की सरकार ने अमित शाह की हरी झंडी और स्वीकृति के बाद उनको रिहा किया. ये लोग हजार हजार दिन तो पैरोल और फरलो पर बाहर रहे थे. मतलब साढ़े तीन तीन चार चार साल तो ये आजाद मस्त घूम रहे थे, लेकिन आज सवाल है मौन का. आज सवाल है प्रधानमंत्री के मौन का आज सवाल है अरविंद केजरीवाल के मौन का आप तो कभी कुछ नहीं बोलते.  केजरीवाल जी बार बार गुजरात जा रहे हैं, अभी भी चुप रहिएगा, आज भी कुछ नहीं बोलिएगा.

अब तो यह सर्वविदित है कि अमित शाह की रहनुमाई से ये लोग रिहा हुए थे. अभी भी चुप रह जाइएगा. खैर वो आपका मसला है, लेकिन आज देश को ये पूछना और समझना जरूरी कि क्या बलात्कारियों के भरोसे क्या उनके बल पर क्या उनको खुश रख के अब चुनाव लडे जाएंगे? हमारे समाज में आए दिन बलात्कार की घटनाएं होती रहती है. अगर राजनीतिक कारणों से चुप्पी साधी जाने लगे और किसी घटना को इतना राजनीतिक बना दिया जाए की जाँच और कोर्ट की सुनवाई से पहले ही आरोपी का एनकाउंटर कर दिया जाए और जनता ताली बजाने ये ठीक नहीं. हैदराबाद मामले में जांच और सुनवाई से पहले ही आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया गया । बाद में पता चला कि एनकाउंटर था. आज ही गाजियाबाद से बलात्कार और हत्या की खबर आई. कथित तौर पर एक महिला को पाँच लोगों ने अगवा किया. दो दिनों तक बलात्कार के बाद मार दिया. अगर इस मामले में दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल बोल सकती है तो बिलकिस बानो के मामले में भी बोल सकती है. दिल्ली के अस्पताल में भर्ती अडतीस साल की महिला के साथ गाजियाबाद में कथित तौर पर गैंग रेप हुआ. बुधवार सुबह दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष ने कहा पीडित महिला सोलह अक्टूबर को गाजियाबाद के नंदग्राम इलाके में अपने भाई की जन्मदिन पार्टी में गई थी. जब वो लौट रही थी तो उसे गाजियाबाद के नंदग्राम इलाके से इस कॉर्पियो कार से बार लडकों ने अगवा कर लिया.

गाड़ी में चार लोग आए और लड़की को जबरदस्ती उठा के ले गए. वो उसको एक अंजान जगह पे लेके गए जहाँ पे एक और आदमी मौजूद था और पाँचों ने मिलकर दो दिन तक लगातार उसके साथ गैंग रेप किया. लड़की की हालत बहुत थी. लड़की को बहुत टॉर्चर करा गया और यहाँ तक कि उसके प्राइवट पार्ट्स में गुप्तांगों में रोड तक घुसा दिया. लड़की के भाई के मुताबिक वो अपनी बहन को बस स्टॉप पर छोड़ दिया था. इसके बाद उसकी जानकार लड़के उसे ले गए. उसने ये बताया हमें हमारी बहन ने की. वो वाला चल नहीं रहा था तो दूसरे फोटो में वो जाके बैठने लगी तो इसका कोई गाडी आई और उसमें चार लोग थे वो जानती है उन्हें मुँह पुलिस वालो ने हमें आसन रोड पे बताया है और इकट्ठे में मिली है. तो वहीं गाजियाबाद पुलिस की माने तो उन्हें अठारह अक्टूबर की सुबह एक राहगीर ने कॉल कर बताया कि एक महिला लावारिस हालत में पड़ी है. महिला को तुरंत गाजियाबाद के सरकारी अस्पताल ले जाया गया जहां उसने मेडिकल जांच कराने से मना कर दिया. महिला की जिद पर दिल्ली के जीटीबी अस्पताल ले जाया गया जहां महिला ने कोई बयान नहीं दिया. महिला के भाई की शिकायत पर गैंग रेप का केस दर्ज किया गया. जांच में पता चला कि महिला का आरोपियों के साथ संपत्ति विवाद है. पुलिस के मुताबिक कुछ आरोपियों की लोकेशन भी वारदात वाली जगह नहीं आ रही है.

जब इनके भाई ने इनको वापस छोड़ा तब वहाँ से इनको कुछ लोग ले गए जो कि इन से पूर्व वहीं परिचित हैं. पहले उन्होंने बताया कि दो लोग थे. बाद में इन्होंने बताया कि पांच लोग हैं और उनके साथ उन्होंने दुष्कर्म करा. बताया जा रहा है कि वो जो व्यक्ति हैं उनके साथ पूर्व ही प्रॉपर्टी का विवाद चल रहा है जिसमें कोर्ट का केस भी चल रहा है. महिला जो है गाजियाबाद के नंदग्राम इलाके में एक बस स्टॉप में मिली लावारिस हालत में. उसके बाद महिला को गाजियाबाद के सरकारी अस्पताल लाया गया, जहां पर महिला मैंने अपनी मेडिकल जांच करवाने से मना कर कर दिया. उसके बाद महिला को दिल्ली के अस्पताल ले जाया गया क्योंकि महिला का कहना ये था कि उसको अस्पताल में ही भर्ती होना है. महिला के भाई की शिकायत पर गैंग रेप का केस दर्ज किया गया है और इस मामले में एक आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है. वहीं जीटीवी अस्पताल के डॉक्टरों की मानें तो महिला की हालत ठीक है. उसे कोई अंदरूनी चोट नहीं है. हमारे पास एक विक्टिम आया था सुबह सवा सात बजे जो की नगरी के रहने वाली है और उनका जो है फॅमिली सॉल्ट हुआ है. अभी वो स्टेबल है. बेसिकली ऍम अस पर न अभी हमको इंटरनल इंजरी हमें नहीं पता चली है. पुलिस इस मामले की कई पहलुओं से जांच कर रही है. एक आरोपी शाहरुख को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि चार की तलाश जारी है. गाजियाबाद से मुकेश सिंह एनडीटीवी इंडिया.

काँग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के नतीजे आ गए हैं. इस चुनाव को लेकर खूब सवाल उठे. चुनाव छद्म तरीके से हो रहा है, लेकिन इसी बहाने आज के दौर में देखने को मिला ही. काँग्रेस के भीतर दो नेता एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे और दोनों एक दूसरे के खिलाफ बोल भी रहे थे, लेकिन इस चुनाव से यह भी दिखा कि राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक चुनाव हो सकते हैं. अगर दिखावे के लिए हो सकता है तो दिखावे के लिए भी हो सकते हैं. यह सवाल उठाने वाले यह सवाल नहीं उठा रहे हैं कि बीजेपी से लेकर आम आदमी पार्टी में इसी तरह चुनाव क्यों नहीं हो सकते. शशि थरूर को हराकर मल्लिकार्जुन खरगे काँग्रेस के नए अध्यक्ष बन गए. कांग्रेस पार्टी के अंदर चुनाव हुए, ओपन ट्रॅफी चुनाव हुए, सभा चुनाव जीते हैं लेकिन इस चुनाव से कांग्रेस और मजबूत होकर उभरेगी. तमाम मतदाता, कार्यकर्ता, प्रस्तावक सब एकजुट होकर काम करेंगे और साहब के नेतृत्व में हम सब आगे चुनौतियों का सामना करेंगे और भी निर्देश मिलते हुए भी और हम उनके नेताओं के इंस्ट्रक्शन के बावजूद मुझे वोट दिए. मैं उनको उनके लिए बहुत आभारी हूँ. उससे ज्यादा नहीं कहना चाहिए. मुझे विश्वास है कि जैसे आपने मुझ पर भरोसा देता है और गरीब परिवार में जन्मे एक सामान्य व्यक्ति को एक सामान्य कार्यकर्ता को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया है

. मैं आप के भरोसे पर खरा उतरने की पूरी पूरी कोशिश करूँगा. ऍम मुँह ऍम डिसाइड बाँट माइरो उं ऑटो बी डिप्लॉय. 
मल्लिकार्जुन घर के कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में चुन लिए गए है. अस्सी साल के मल्लिकार्जुन खड़गे को सात हजार आठ सौ सत्तानबे वोट मिले जबकि उनके मुकाबले शशि थरूर को एक हजार बहत्तर वोट मिले. एक हजार वोट मिलने का मतलब ये है कि शशि थरूर ने अच्छी लड़ाई लड़ी है, क्योंकि पिछले दो चुनाव के में हारे हुए उम्मीदवार के वोटों की बात करुँ तो उन्नीस सौ सत्तानबे में केसरी के खिलाफ शरद पवार और राजेश पायलट चुनाव लड़े थे. पवार साहब को आठ सौ तिरासी वोट मिले थे जबकि राजेश पायलट को तीन सौ चौवन जबकि दो हजार में सोनिया गाँधी के खिलाफ जितेंद्र प्रसाद चुनाव लड़ रहे थे और जितेंद्र प्रसाद को महज चौरानवे वोट मिले थे. खड़गे साहब के पक्ष में क्या क्या जाता है? एक तो सबसे बड़ी बात है कि इतना लंबा अनुभव पांच दशकों का अनुभव जो है काम नहीं होता है. चौबीस साल के बाद कोई गैर गाँधी जो है इस कुर्सी पर बैठा है उसके पहले जो है उन्नीस सौ सत्तानबे में सीताराम केसरी कांग्रेस का अध्यक्ष बने थे. घर के साहब दलित समुदाय से आते हैं. इससे पहले उन्नीस सौ सत्तर में जगजीवन राम जो है कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर चुने गए थे जो कि दलित समाज से आते हैं. खरगे साहब का जैसे मैंने कहा अनुभव तो है इस आते में इतने लम्बे समय का अनुभव होने के साथ उन्हें संगठन का भी अनुभव है.

वो पूरे ढांचे को समझते हैं, राज्य स्तर से लेकर के स्तर तक और एक बडी खूबी है. खूबी है कि उनका कद इतना बडा है भारतीय राजनीति में क्योंकि यदि कल को कांग्रेस को किसी राजनीतिक दल से गठबंधन के लिए या फिर जो एक सेक्युलर फ्रंट बनाने की बात होगी तो खरगे साहब सबसे पसंद के आदमी होंगे कांग्रेस के तरफ से जो कि ये बातचीत कर पाएंगे. अब सबसे बडी चुनौती क्या होगी? खरगे साहब के पास कहा जाता है कि कांग्रेस का अध्यक्ष बनना जो कांटों का ताज पहनने के जैसे हर वो भी गैर गाँधी सरनेम के. अब सबसे बडी बात ये है चुनौती के रूप में उनको उनके पास होगी की युवाओं को वो आगे लेकर के आए खुद जो है गाँधी परिवार से नहीं है तो उनके ऊपर ये जिम्मेदारी होगी. गैर परिवारवाद को आपको लोगों को आगे बढाए जो एक परिवारवाद की बात हमेशा कांग्रेस पे लगती रहती है. उससे भी बड़ी बात ये है कि क्या खड़गे साहब संगठन में क्या परिवर्तन करेंगे? क्या कांग्रेस की सबसे बड़ी डिसिजन मेकिंग डैडी है कांग्रेस कार्यसमिति जिसको की कांग्रेस वर्किंग कमिटी भी कहते हैं क्या उसमें वो चुनाव कराएंगे? वो क्या राज्यों के अध्यक्षों का भी क्या चुनाव कराएंगे? राज्यों में संगठन के लिए क्या चुनाव होगा जो फ्रंटल ऑर्गनाइजेशन है? यूथ कांग्रेस है, महिला कांग्रेस है, सेवादल है क्या इसमें भी चुनाव कराए जाएंगे और सबसे बड़ी खूबी है कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत जो भरना नहीं है उसको बढ़ाने के लिए उनके पास क्या प्लान है, जनता को कैसे जोडेंगे? वो कौन से वर्ग है जो एक समय कांग्रेस के वोटर होते थे.

दलित जो है मार्क्स क्या वो इस कॉम्बिनेश इनके लिए वो क्या करेंगे करेंगे. घर के साहब के पास सबसे बड़ी चुनौती है हिमाचल और गुजरात का चुनाव. दोनों जगहों में ये कहा जाता है कि कांग्रेस यहाँ मजबूती से लड़ नहीं रही है तो खरगे साहब को इन दोनों राज्यों में एक रणनीति बनानी होगी कि किस किस ढंग की किस तरह से यहाँ पर जो है. कांग्रेस एक बार फिर से बीजेपी का मुकाबला करते हैं. हिमाचल में तो सीधे बीजेपी से टक्कर है, लेकिन गुजरात में आम आदमी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता भी कांग्रेस के लिए एक सिरदर्द है. उसके बाद कर्नाटक में चुनाव होगा जो की माना जा रहा है कि खड़गे साहब के लिए शायद आसान हो, क्योंकि भारत जो यात्रा के तहत राहुल गांधी ने भी वहाँ पे काफी समय बिताया है तो कुल मिलाकर के खरगे साहब के लिए चुनौतियां काफी कठिन है और सबसे बड़ी बात ये है कि उनके हर कदम को इस के तहत परख जाएगा की क्या इसमें गाँधी की परिवार की मूक सहमति है या नहीं. क्या वो हर बात के लिए गाँधी परिवार के पास जाते हैं या नहीं जाते. हालांकि राहुल गाँधी ने कहा है कि अब घर के साहब अध्यक्ष है तो वो वो उनको रिपोर्ट करेंगे यानि राहुल गाँधी खरगे साहब को रिपोर्ट करेंगे क्योंकि उनकी खरगे साहब क्या जिम्मेदारी देते हैं, लेकिन सच्चाई क्या है ये हम सबको मालूम है तो खरगे साहब के लिए चुनौतियां काफी है और उनको इन चुनौतियों पर खरे उतरना होगा.

जजों की नियुक्ति को लेकर कलिजियम सिस्टम पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन जिस तरह से इन दिनों केंद्रीय कानून मंत्री निशाना बना रहे हैं उसे पहले से चली आ रही आलोचनाओं के संदर्भ में ही देखा जाए या नया और अनजान सा कुछ होने जा रहा है. कानून मंत्री किरण रिजिजू कह रहे हैं कि जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम दूसरी तरफ से जस्टिस यूयू ललित की मौजूदगी में वरिष्ठ वकील सी एस वैद्यनाथन ने कह दिया कि ऐसी फुसफुसाहट है कि सुप्रीम कोर्ट कलिजियम केवल तभी सिफारिशें भेजेगा जब केंद्र सरकार को मंजूर होंगी. मुझे लगता है वकील साहब कह रहे हैं कि मुझे लगता है कि एक बहुत ही खतरनाक प्रस्ताव है. अगर ये सच है तो इसका मतलब है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में है. आशीष भार्गव की ये रिपोर्ट देखिए आधा समय जजों का दिमाग और समय अगले जज किसको बनाना है उसपे ज्यादा खर्च हो रहे है ना कि अपने पूरे समय न्याय देने में. तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार के तेवर फिर बदल गए हैं. पिछले कुछ सालों से चुप बैठे केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कलीजियम सिस्टम पर जमकर हमला बोला. आज के समय में जो मैं देखता हूँ और देश का कानून मंत्री होने के नाते मैं जो फील करता हूँ कि आधा समय जजों का दिमाग और समय अगले जज किसको बनाना है. उस पर ज्यादा खर्च हो रहे हैं ना कि अपने पूरे समय न्याय देने में तो क्योंकि सिस्टम ऐसे बनाया कि वो नाम तय करते हैं.

एक समूह एक कलिजियम फिर उसका कंसल्टिंग जज होते हैं. दूसरे कौन उस हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस थे. कौन उस हाई कोर्ट के सीनियर जज है? कंसल्टेशन बहुत वाइट होते हैं. बात यहीं तक नहीं है. खुद सीबीआई यू यू ललित की मौजूदगी में एक वरिष्ठ वकील ने भी जजों की नियुक्ति के लिए चल रही अटकलों का जिक्र कर दिया. देर खुसपुसाहट है कि केंद्र को स्वीकार्य नामों की ही नियुक्ति देगा. जजों की नियुक्ति को लेकर ये लड़ाई कोई नहीं है. दो हजार चौदह में मोदी सरकार इसके लिए ऐसा ही कानून लेकर आई थी, लेकिन एक साल बाद ही संविधान पीठ ने इसे असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया. तब अदालत ने केंद्र को एक एमओपी लाने को कहा लेकिन तभी से यह मामला अटका पड़ा है. केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव कोई नया नहीं है. ये कई सालों से चल रहा है. यहाँ तक कि कलिजियम की सिफारिशों के बावजूद कई नियुक्तियां और जजों के ट्रांसफर के केस केंद्र सरकार ने रोक रखे हैं. हाल ही में हाईकोर्ट ने तीन हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को ट्रांस्फर करने की सिफारिश मान ली, लेकिन उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एस मुरलीधर को मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनाने की सिफारिश नहीं मानी. जस्टिस मुरलीधर ने दो हजार बीस के दिल्ली दंगों के दौरान देर रात सुनवाई करके कई अहम आदेश दिए थे. दरअसल जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम में मतभेद के बाद केंद्र सरकार का ये तेवर सामने आया है.

आठ नवंबर को रिटायर हो रहे सीजेआई यू यू ललित ने चार नामों को लेकर शेष चार जजों को चिट्ठी लिखी थी, लेकिन दो जजों ने इस पर आपत्ति जाहिर की. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति पर ब्रेक लग गया. नौ नवंबर को जस्टिस डीवाई चंद्रचूड देश के पचासवें मुख्य न्यायाधीश के तौर पर शपथ लेंगे, लेकिन केंद्र का ये रोक उनके लिए भी परेशानी भरा हो सकता है. नई दिल्ली से आशीष भार्गव की रिपोर्ट एनडीटीवी इंडिया आप देख रहे थे प्राइम टाइम नमस्कार.