- उद्धव ठाकरे ने 2013 में सुलह का प्रस्ताव रखा था, जिसे राज ठाकरे ने पूरी तरह से नकार दिया था
- राज ठाकरे ने 2006 में शिवसेना छोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की स्थापना की थी
- 1996 में रमेश किनी मामले ने राज ठाकरे के राजनीतिक करियर को काफी प्रभावित किया था
शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने साल 2013 में अपने अखबार सामना के माध्यम से सुलह का प्रस्ताव रखकर शांति का हाथ बढ़ाया था, लेकिन राज ठाकरे ने इसे पूरी तरह से नकार दिया था. अब 12 साल बाद राज और उद्धव फिर से एक हो रहे हैं. महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार बेसब्री से देख रहे हैं कि ठाकरे चचेरे भाइयों के बीच लंबे समय से चल रहे इस नाटक में एक नया अध्याय शुरू हो सकता है. अभी उद्धव और राज ठाकरे दोनों अपने राजनीतिक सफर के नाजुक दौर में हैं.मौजूदा हालात ने उन्हें सुलह पर गंभीरता से सोचने के लिए मजबूर किया है.
बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी माने जा रहे थे राज ठाकरे
आक्रामक और मुखर भाषण शैली के लिए मशहूर राज ठाकरे ने 1988 में शिवसेना के राजनीतिक मामलों में सक्रियता दिखाना शुरू की तो राजनीतिक हलकों में यह चर्चा उठी थी कि वो बाल ठाकरे के चुने हुए राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर उभरेंगे. इस सोच के पीछे कई वजहें थीं. राज ठाकरे में अपने चाचा, शिवसेना के दिग्गज नेता बाल ठाकरे से मिलती-जुलती कई खासियत थीं. बाल ठाकरे से मिलता जुलता चेहरा और राज ठाकरे का स्वभाव भी उन्हीं की तरह आक्रामक था. उनका बोलने का अंदाज भी प्रभावशाली था. बाल ठाकरे की ही तरह उन्हें भी कार्टून बनाने का शौक था. बाल ठाकरे के तीसरे पुत्र उद्धव ने शुरू में रैलियों के दौरान अपने पिता की तस्वीरें खींचने तक ही अपनी भूमिका सीमित रखी लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत में उनकी राजनीति में दिलचस्पी बढ़ने लगी.
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बाल ठाकरे ने उन्हें पार्टी के भीतर नेतृत्व के लिए तैयार करने के लिए भी कदम उठाए. करिश्माई और साहसी राज ठाकरे के विपरीत उद्धव विनम्र और संयमित स्वभाव के थे जो उनके पिता और चचेरे भाई दोनों से बिल्कुल अलग थे. फिर भी दोनों चचेरे भाइयों का पार्टी के महत्वपूर्ण निर्णयों पर काफी प्रभाव था.
रमेश किनी मामले से राज ठाकरे को झटका लगा
जुलाई 1996 का महीना राज ठाकरे के राजनीतिक जीवन में एक निर्णायक मोड़ लेकर आया. 23 जुलाई को पुणे के एक सिनेमा हॉल में रमेश किनी का शव मिला. उनकी पत्नी शीला ने राज ठाकरे और उनके सहयोगियों पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनके पति का मकान मालिक की ओर से किराये के अपार्टमेंट को खाली कराने के लिए गंभीर मानसिक उत्पीड़न किया. इस विवाद ने व्यापक राजनीतिक आक्रोश पैदा किया. शिवसेना के लिए भारी शर्मिंदगी का कारण बना. सीबीआई ने जांच शुरू की, राज ठाकरे से पूछताछ की और उनके करीबी सहयोगी आशुतोष राणे को हिरासत में ले लिया. लेकिन कई महीनों बाद राज ठाकरे आखिरकार बेगुनाह साबित हो गए. लेकिन इस घटना ने उनके राजनीतिक करियर की दिशा काफी हद तक बदल दी. इससे पार्टी के भीतर उनकी स्थिति को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया.
उद्धव ठाकरे का वर्चस्व बढ़ता गया
राज ठाकरे कानूनी मामले में उलझे रहे, वहीं उद्धव शिवसेना में लगातार प्रभावशाली होते गए और उन्होंने वास्तविक अधिकार का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. उद्धव का राज ठाकरे पर दबदबा तब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा जब उन्होंने पार्टी की ओर से महत्वपूर्ण निर्णय लेना शुरू किया. विधानसभा और बीएमसी चुनावों के टिकट आवंटन के दौरान राज ठाकरे के वफादारों को जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया. उद्धव ने अपने चारों ओर सलाहकारों का एक मजबूत समूह बना लिया, जिसने उन्हें पार्टी के बाकी कार्यकर्ताओं से काफी दूर कर दिया.
मी मुंबईकर का मराठी मानुष अभियान
दोनों चचेरे भाइयों के बीच तनाव इतना बढ़ गया कि वे जानबूझकर किसी भी तरह के सीधे टकराव से बचते रहे. उद्धव ने 2003 में मी मुंबईकर अभियान शुरू किया, जिसका मकसद मुंबई के उन निवासियों को शामिल करना था, जो मराठी नहीं बोलते थे. फिर भी राज ठाकरे के खेमे से जुड़े समर्थकों ने कल्याण रेलवे स्टेशन पर उत्तर भारतीय व्यक्तियों पर हमला किया, जिससे उद्धव की पहल पर पानी फिर गया.
राज ठाकरे ने बनाई मनसे
उद्धव ठाकरे के 2003 में शिवसेना कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद राज ठाकरे से उनकी प्रतिद्वंद्विता और गहरी हो गई. राज ठाकरे को लगने लगा कि उद्धव ठाकरे के फैसलों से उनकी अपनी महत्वाकांक्षाओं का दमन हो रहा है. इस बढ़ते असंतोष के कारण राज ठाकरे ने पार्टी से नाता तोड़ लिया और 2006 में अपना अलग संगठन महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) स्थापित किया.
MNS ने शिवसेना को पहुंचाया नुकसान
नवगठित पार्टी ने उद्धव ठाकरे के सामने एक गंभीर चुनौती पेश की. 2009 के विधानसभा चुनावों में एमएनएस ने भले ही केवल 13 सीटें जीतीं, लेकिन कई निर्वाचन क्षेत्रों में वोटों का बंटवारा किया, इसने शिवसेना के कई उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा. जहां शिवसेना अपने अस्तित्व के लिए वास्तविक खतरे से जूझ रही थी, वहीं एमएनएस ने नाशिक नगर निगम में अपना मेयर चुनवाकर एक उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की.
एमएनएस से सियासी खतरे को भांपते हुए उद्धव ने सामना में एक साक्षात्कार के जरिये राज ठाकरे से अप्रत्यक्ष रूप से सुलह का प्रस्ताव रखा. हालांकि राज ठाकरे ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कुछ ही दिनों बाद आयोजित एक रैली में सार्वजनिक रूप से इसकी पुष्टि की.
मतभेद भुलाने का संकेत दिया
इस साल की शुरुआत में जाने-माने फिल्म निर्माता महेश मांजरेकर के एक पॉडकास्ट में राज ठाकरे ने खुले तौर पर पुराने मतभेदों को भुलाने की इच्छा व्यक्त की. उद्धव ठाकरे ने भी अपने लंबे समय से बिछड़े चचेरे भाई के साथ सुलह का सकारात्मक संकेत दिया. बशर्ते राज ठाकरे भाजपा से दूरी बनाए रखें. इसके बाद वर्ली में एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें दोनों बिछड़े हुए चचेरे भाइयों के बीच सुलह की औपचारिक घोषणा की गई.
सियासी दुश्मनी भूले दोनों नेता
मौजूदा परिस्थितियों ने दोनों ठाकरे भाइयों को पुरानी दुश्मनी भुलाकर अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए एकता के रास्ते पर आने को मजबूर कर दिया है. एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुई बगावत के बाद उद्धव ठाकरे को भारी नुकसान उठाना पड़ा है. जबकि राज ठाकरे की एमएनएस पिछले विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हार गई थी. राजनीतिक वजूद के सवाल ने इन दोनों चचेरे भाइयों को एक साथ ला खड़ा किया है.














