- विपक्ष इस बिल का विरोध करता है क्योंकि उसे जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का डर है.
- सरकार ने बिल को संयुक्त संसदीय समिति को भेजने का प्रस्ताव रखा है लेकिन विपक्ष समिति का बहिष्कार कर सकता है.
- सरकार और विपक्ष दोनों इस बिल को लेकर राजनीतिक और नैतिक बहस के बीच फंसे हुए हैं.
क्या विपक्ष चाहता है कि जेल से सरकार चले? अगर हां, तो फिर बिल का पास न होना भी उसे मंजूर है. यह सुनकर आश्चर्य होगा कि सरकार भी कह रही है कि बिल पास न होने पर उसे कोई आपत्ति नहीं. 130वें संविधान संशोधन बिल को लेकर विपक्ष के भारी विरोध के बाद सरकार में अब ऐसी बातें होने लगी हैं. इसके पीछे का मकसद साफ है- विपक्ष को कटघरे में खड़ा करना. यदि विपक्ष इस बिल का विरोध करता है, तो यह संदेश जाएगा कि वह जेल से सरकार या मंत्रालय चलाने के खिलाफ नहीं है.
अब सवाल यह है कि आखिर सरकार ने मॉनसून सत्र के अंतिम दिन ही इस संविधान संशोधन बिल को पेश करने का फैसला क्यों लिया? आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि बिल की लिस्टिंग में यह कहा जाए कि इसे संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को भेजा जाएगा. यानी सरकार की मंशा शुरू से ही यह थी कि इस पर सहमति बनानी चाहिए. अगर सहमति नहीं बनती, तो विपक्ष को ही जवाब देना होगा कि वह राजनीति में नैतिकता के इस मुद्दे पर समझौता क्यों कर रहा है.
क्या जेपीसी में केवल सत्ता पक्ष के ही सदस्य जाएंगे?
संभावना तो यह भी है कि विपक्ष इस बिल पर बनाई गई संयुक्त संसदीय समिति का ही बहिष्कार कर दे और उसमें विपक्ष का कोई सदस्य शामिल न हो. ऐसे हालात में जेपीसी में केवल सत्ता पक्ष के ही सदस्य रह जाएंगे. सरकार इसके लिए भी तैयार दिख रही है. हालांकि, यह अलग प्रश्न है कि बिना विपक्ष के ऐसी संसदीय समिति का क्या औचित्य रह जाएगा.
दरअसल, सरकार का मकसद इस महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर देश का ध्यान खींचना है. आजादी के 75 वर्ष तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि गिरफ्तारी के बावजूद किसी मंत्री या मुख्यमंत्री ने इस्तीफा न दिया हो और जेल से ही सरकार या मंत्रालय चलाया हो. लेकिन ऐसा दिल्ली में हुआ जब पहले तत्कालीन केजरीवाल सरकार के मंत्रियों को गिरफ्तार किया गया और बाद में खुद केजरीवाल की ही गिरफ्तारी हुई. केजरीवाल तिहाड़ जेल में रहे. लेकिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया. तब इसे लेकर बहस भी छिड़ी. लेकिन आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल पर लगे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बता कर उनकी गिरफ्तारी को साजिश बताया और उनके इस्तीफे से इनकार कर दिया. इस मामले को दिल्ली हाई कोर्ट में भी चुनौती दी गई. लेकिन यह कहा गया कि संविधान में इसे लेकर स्पष्टता नहीं है कि गिरफ्तारी की सूरत में मंत्री या मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना चाहिए या नहीं.
केंद्र सरकार ने तभी यह मन बना लिया था कि इस मुद्दे को लेकर स्पष्टता होनी चाहिए. हालांकि तब इस दिशा में आगे नहीं बढ़ा गया, क्योंकि तब ऐसा संदेश जाता कि केजरीवाल के कारण ही सरकार यह कदम उठा रही है. इसके बाद दिल्ली में विधानसभा चुनाव आ गए और आम आदमी पार्टी की हार के बाद एक तरह से जनता ने भी इन आरोपों पर अपना फैसला सुना दिया. केंद्र सरकार मानती है कि यह मजाक बंद होना चाहिए. संविधान निर्माताओं ने शायद ही यह सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब गिरफ्तारी के बावजूद मंत्री या मुख्यमंत्री जेल से सरकार चलाएंगे. ऐसा ही मामला तमिलनाडु में डीएमके सरकार में मंत्री सेंथिल का भी हुआ, जिसे लेकर कोर्ट को ही निर्देश देना पड़ा कि वे अपने पद से त्यागपत्र दें.
केंद्र सरकार के रणनीतिकार इसीलिए विपक्ष पर सवाल उठा रहे हैं. वे पूछ रहे हैं कि क्या ये वहीं राहुल गांधी हैं जिन्होंने दो साल या उससे अधिक की सजा मिलने पर विधानसभा या संसद की सदस्यता तुरंत चले जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के तत्कालीन यूपीए सरकार के अध्यादेश लाने के कदम का विरोध किया था. अगर तब वे भ्रष्टाचार के खिलाफ थे तो आज इस संविधान संशोधन बिल का विरोध क्यों कर रहे हैं.
विपक्ष को किस बात का है डर
हालांकि, विपक्ष के विरोध का बड़ा कारण जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का डर है. विपक्ष कहता आया है कि केंद्र सरकार सीबीआई, ईडी जैसी जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल विरोधियों को निशाना बनाने में करती है. यह बिल पारित होने के बाद तो कोई भी जांच एजेंसी किसी भी विपक्ष के शासन वाले राज्य के मुख्यमंत्री या मंत्री को गिरफ्तार कर 30 दिनों तक न्यायिक हिरासत में रख सकती है और 31 वें दिन उसकी अपने-आप बर्खास्तगी हो जाएगी. विपक्ष के अनुसार इस कवायद का केवल यही मकसद है.
हालांकि, सरकार इस आशंका को खारिज करती है. उसका कहना है कि गिरफ्तारी से पहले नोटिस दिया जाता है. पूछताछ के लिए बुलाया जाता है और ऐसे किसी भी चरण में संबंधित व्यक्ति अदालत जा सकता है. वहां से वह नोटिस पर स्टे ले सकता है या फिर अग्रिम जमानत भी. ऐसे में यह आशंका बेबुनियाद है कि जांच एजेंसियां अपनी मनमानी कर सकती हैं.
फिलहाल, यह बताना आवश्यक है कि यह एक संविधान संशोधन विधेयक है और इसे पारित करने के लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है जो कि सरकार के पास नहीं है. यानी बिना विपक्ष के सहयोग के यह बिल पारित नहीं हो सकता है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या बिल पक्ष – विपक्ष के बीच राजनीतिक तकरार के साथ साथ नैतिकता की बहस का भी एक बड़ा मुद्दा बनेगा.