कचहरी: फिल्मों में तालियां, असल में तिरस्कार... पीरियड्स को लेकर हमारी सोच इतनी पिछड़ी क्‍यों है?

एक महिला अपने पूरे जीवन में लगभग 7 साल सिर्फ पीरियड्स के दर्द और तकलीफ से गुजारती है? यह कोई छोटा अनुभव नहीं है, बल्कि हर महीने दोहराया जाने वाला एक गंभीर शारीरिक और मानसिक संघर्ष है.

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  • ठाणे के एक स्कूल में लड़कियों की निजता का उल्लंघन करते हुए पीरियड्स जांच के लिए कपड़े उतरवाना एक गंभीर और शर्मनाक घटना थी.
  • भारत में आज भी पीरियड्स को लेकर सामाजिक रूढ़िवादिता और शर्मिंदगी बनी हुई है, जिससे महिलाओं का मानसिक और सामाजिक दबाव बढ़ता है.
  • 2018 में आई फिल्म पैडमैन ने महिलाओं के लिए सस्ते सैनेटरी पैड बनाने की जरूरत और सामाजिक जागरूकता को उजागर किया था.
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नई दिल्‍ली:

किसी भी देश की असली ताकत उसका समाज होता है, लेकिन जब वही समाज दोहरी जिंदगी जीने लगे-एक दिखावे की और एक असली-तो सवाल उठाना जरूरी हो जाता है. एनडीटीवी के चर्चित शो 'कचहरी' में शुभंकर मिश्रा ने एक बेहद जरूरी मुद्दे पर सवाल उठाए. कहा- 2018 में पैडमैन नाम की एक फिल्म आई, जिसमें एक ऐसे इंसान की कहानी थी जिसने महिलाओं के लिए सस्ते सैनेटरी पैड बनाने की मशीन तैयार की, ताकि वे पीरियड्स के दौरान सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी सकें. जब ये फिल्म सिनेमाघरों में लगी तो लोगों ने तालियों की गूंज से थिएटर भर दिए, लगा जैसे सोच बदल रही है, समाज जागरूक हो रहा है, और पुरानी मानसिकता पीछे छूट रही है.

फिल्म ने 191 करोड़ रुपये कमाए और दुनिया भर में सराही गई, पर असलियत ये है कि तालियां बजाने वाले वही लोग हैं, जो असल जिंदगी में इन मुद्दों से या तो मुंह मोड़ लेते हैं या हंसी उड़ाते हैं. जिस समाज ने स्क्रीन पर बदलाव को सराहा, वही समाज असल जिंदगी में आज भी इस विषय को शर्म और चुप्पी की दीवारों के पीछे छिपाकर रखता है. सच्चाई ये है कि हमारा समाज भी अब एक फिल्म जैसा ही हो गया है- परदे पर जागरूक, भावुक और समझदार, लेकिन परदे के पीछे वही पुरानी सोच, वही दोहरापन और वही संकीर्ण मानसिकता.

ठाणे में जो हुआ, वो शर्मनाक! 

जिस मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, उसी से महज 40 किलोमीटर दूर ठाणे के एक स्कूल में ऐसी शर्मनाक घटना घटी, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है, और मुझे ये बताते हुए खुद शर्म महसूस हो रही है. रिपोर्ट के मुताबिक स्कूल के बाथरूम में खून के धब्बे मिले थे. इसके बाद स्कूल प्रशासन ने कपड़े उतरवाकर बच्चियों की जांच की. ताकि पता चल सके कि किस-किस लड़की को पीरियड आ रहा है. ये कोई मेडिकल जांच नहीं थी, न ही इसकी कोई कानूनी या नैतिक जरूरत थी, लेकिन स्कूल ने सारे नियम-कायदों को ताक पर रखकर लड़कियों की निजता, गरिमा और मानसिक सुरक्षा को रौंद डाला. 

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डरी-सहमी बच्चियों ने जब ये बात अपने माता-पिता को बताई, तो स्कूल में हंगामा मच गया और लोगों ने बिल्कुल सही सवाल उठाए- क्या पीरियड जैसी सामान्य जैविक प्रक्रिया को लेकर बच्चियों को शर्मिंदा करना, उन पर मानसिक दबाव बनाना और यहां तक कि टॉयलेट साफ कराने की बात करना किसी भी तरह से जायज है? पुलिस ने मामला तो दर्ज कर लिया है और प्रिंसिपल से पूछताछ की बात भी कही है, लेकिन असली सवाल आज भी वहीं खड़ा है- जब विज्ञान और समाज दोनों आगे बढ़ चुके हैं, तब भी हमारा सोचने का तरीका इतनी पिछली सदी में क्यों अटका हुआ है? हम कब समझेंगे कि पीरियड बीमारी नहीं, एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है, और इसे लेकर चुप्पी, शर्म और सजा का माहौल बनाना समाज की सबसे खतरनाक सोचों में से एक है?

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यहां देखें पूरा वीडियो:

...जब महिलाओं को अछूत माना जाता था

जब भारत आजाद नहीं हुआ था, तब भी पीरियड्स के चलते महिलाओं को अछूत माना जाता था. जैसे ही उन्हें पीरियड्स आते, उनके लिए घर का खाना, पीना, बैठना और रहना सब कुछ अलग कर दिया जाता था. उन्हें ऐसा महसूस कराया जाता था जैसे उन्होंने कुछ ग़लत किया हो. समाज ने यह मान लिया था कि पीरियड्स कोई बीमारी है और महिलाओं को इस दौरान बाकी लोगों से दूर रहना चाहिए. आजादी के बाद कई लोगों ने इस सोच को बदलने की कोशिश की. कई अभियान चले, स्कूलों में बताया गया, फिल्मों में दिखाया गया, लेकिन इसके बाद भी हालात ज्यादा नहीं बदले. आज भी बहुत सी जगहों पर लड़कियों को शर्मिंदा किया जाता है, उन्हें छूने से मना किया जाता है, और उनसे ऐसे बर्ताव किया जाता है जैसे उन्होंने कोई पाप कर दिया हो. इतने सालों बाद भी हमारी सोच वहीं की वहीं अटकी हुई है.

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कितना दर्द सहती हैं महिलाएं! 

क्या आप जानते हैं कि एक महिला अपने पूरे जीवन में लगभग 7 साल सिर्फ पीरियड्स के दर्द और तकलीफ से गुजारती है? यह कोई छोटा अनुभव नहीं है, बल्कि हर महीने दोहराया जाने वाला एक गंभीर शारीरिक और मानसिक संघर्ष है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार, आज भी भारत में लगभग 49.6% महिलाएं पीरियड्स के दौरान कपड़ा इस्तेमाल करती हैं, क्योंकि वे सैनिटरी पैड नहीं खरीद सकतीं. ये ज्यादातर गरीब और ग्रामीण इलाकों की महिलाएं हैं, जिन्हें न सुविधा मिलती है, न ही सही जानकारी. ऐसे में समाज को चाहिए कि वह इन महिलाओं की मदद करे, उन्हें सुविधा और सम्मान दे. लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज भी कुछ लोग periods को महिलाओं की गलती मानते हैं और उन्हें ही शर्म का कारण बना देते हैं. जिस दर्द को चुपचाप सहकर महिलाएं हर महीने जीती हैं, उसी को लेकर उन्हें नीचा दिखाना हमारे समाज की सबसे बड़ी नाइंसाफी है.

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जागरूकता बहुत जरूरी है 

आज हम आपको जागरूक करना चाहते हैं ताकि पीरियड्स को लेकर समाज में फैली झिझक, शर्म और गलतफहमियां हमेशा के लिए खत्म की जा सकें. सबसे पहले ये समझना जरूरी है कि महिलाओं को हर महीने जो पीरियड्स होते हैं, वो कोई बीमारी नहीं है, न ही कोई गंदगी है. यह एक सामान्य और जरूरी शारीरिक प्रक्रिया है, जिससे महिला का शरीर स्वस्थ रहता है और वह मां बनने योग्य बनता है. इसलिए इसे लेकर शर्म करना या महिलाओं को शर्मिंदा करना बंद कीजिए. उन्हें अलग-थलग करना या अपमानित करना न इंसानियत है और न ही समझदारी. आज जब कई राज्य सरकारें पीरियड्स के दौरान महिलाओं को छुट्टी देने पर विचार कर रही हैं और केंद्र सरकार भी इसके बारे में जागरूकता फैला रही है, ऐसे समय में स्कूलों में इस मुद्दे को लेकर बच्चियों के साथ बुरा व्यवहार होना बहुत दुखद और शर्मनाक है. ये साफ दिखाता है कि कानून और नीति से पहले हमें सोच बदलने की जरूरत है.

पीरियड्स में जिन महिलाओं को इस समय सहारा मिलना चाहिए, उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है. हमें समझना होगा कि जब तक हम अपनी सोच नहीं बदलेंगे, तब तक किसी भी कानून, योजना या जागरूकता अभियान का असर नहीं होगा. अब वक्त आ गया है कि हम इस मुद्दे पर खुलकर बात करें, गलतफहमियों को तोड़ें और महिलाओं को वह सम्मान और सुविधा दें जिसकी वे हकदार हैं. पीरियड्स पर चुप्पी नहीं, समझदारी जरूरी है- क्योंकि बदलाव की शुरुआत समाज से नहीं, आपसे होती है.
 

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