पिछले कुछ दिनों से कांवड़ यात्रा और नेम प्लेट से जुड़ा विवाद सुर्खियों में है. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से इस खबर की शुरुआत हुई थी. 17 जुलाई को यहां प्रशासन ने आदेश दिया था कि सभी ढाबों और होटल मालिकों को दुकान के बाहर अपना नाम लिखना होगा और उसके दो दिनों के बाद ही सरकार ने पूरे प्रदेश में इस आदेश को लागू कर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश जारी कर सरकार के फैसले पर रोक लगा दी. इसी को लेकर एनडीटीवी की टीम ने दिल्ली से करीब 150 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में कांवड़ियों और दुकानदारों से बात की और इस पूरे घटनाक्रम को लेकर उनकी राय जानी.
आज से सावन का महीना शुरू हो गया है. इसी महीने में कांवड़ यात्रा शुरू होती है, जिसमें देश के अलग-अलग राज्यों से कांवड़िये शामिल होते हैं. ये हरिद्वार पहुंचते हैं और हरिद्वार से गंगा जल लेकर अपने शहर या गांव के शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं. ग्राउंड जीरो पर जाकर हमने जानने की कोशिश की कि इसको लेकर कांवड़ियों के मन में क्या है?
वहीं रेस्टोरेंट के मालिकों का कहना है कि पुलिस का आदेश था, तो नाम लिखना पड़ा. वैसे हम बिना लहसुन और प्याज़ के ही खाना परोस रहे हैं. इधर एक कांवड़ यात्री जो उसी रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. वो पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं.
एनडीटीवी को ग्राउंड पर एक ऐसी भी दुकान मिली, जिसका मालिकाना हक दो लोगों के पास है. पहले का नाम शमीम है तो दूसरे का नाम निखिल है. शमीम सैफी ने इस पूरे विवाद के बाद निखिल को अपना नया साथी बना लिया. दिन में सलीम और रात में निखिल चाय की दुकान चलाते हैं. ऐसा इसलिए किया ताकि कारोबार पर असर ना पड़े. शमीम कहते हैं कि उनके व्यापार पर कोई असर नहीं है, बाहर बोर्ड लगा दिया है, शमीम के सहयोगी निखिल का नाम भी लिख दिया गया है.
संगम से सलीम बने भोजनालय के मालिक सलीम ने कहा कि उन्होंने अब शुद्ध भोजनालय का नाम संगम से सलीम कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब वो फिर से नाम संगम करना चाहते हैं, लेकिन उनका कहना है कि मेरे ढाबे पर शाकाहारी भोजन ही मिलता है. कांवड़ यात्रा के दौरान में हम लहसुन और प्याज़ का इस्तेमाल नहीं करते हैं.
एक अनुमान के मुताबिक कांवड़ यात्रा में हर साल करीब 4 से 5 करोड़ कांवड़िये शामिल होते हैं. यात्रा के दौरान कांवड़ियों को आम तौर पर जरूरत की चीजें दुकानों से खरीदनी पड़ती हैं. खाने-पीने का सामान वो रास्ते में पड़ने वाली दुकानों से ही खरीदते हैं. कोई भी दुकानदार साल में एक बार आने वाला मौका छोड़ना नहीं चाहता. जाहिर है, हाल के फैसले से दुकानदारों पर फर्क तो पड़ा है.