NDTV Explainer: दुनिया में रहना है तो काम कर प्यारे, लेकिन कितना? 90 घंटे पर क्या बोला कौन

इन्फोसिस के संस्थापकों में से एक चेयरमैन इमेरिटस नारायणमूर्ति के एक बयान ने इसे हवा दी. अक्टूबर 2023 में उन्होंने एक बयान दिया. उत्पादकता के मामले में भारत दुनिया के सबसे पीछे के देशों में है.

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नई दिल्ली:

एक सवाल जिस पर न जाने कब से बहस चली आ रही है वो ये है कि पहले मुर्गी आई या अंडा... किसी दौर में तो ये सवाल ठीक था लेकिन अब इस पर बहस बेमानी है. चार्ल्स डार्विन जैसे जीवों की उत्पत्ति के सिद्धांत देने वाले तमाम वैज्ञानिकों का धन्यवाद कीजिए कि ये सवाल अब मर चुका है बस यों ही किसी बहस में टाइम पास के लिए बोल दिया जाता है. ऐसा ही एक और सवाल है कि हम जीने के लिए काम करते हैं या काम करने के लिए जीते हैं.  ये सवाल गंभीर है. इस सवाल पर इन दिनों काफ़ी बहस छिड़ी हुई है... कि काम करें तो कितना... हफ़्ते में 40 घंटे, 48 घंटे, 70 घंटे या 90 घंटे. आइए, पूरे मामले को समझते हैं.

तो बता दें कि सबसे पहले तो देश की नामी आईटी कंपनी इन्फोसिस के संस्थापकों में से एक चेयरमैन इमेरिटस नारायणमूर्ति के एक बयान ने इसे हवा दी. अक्टूबर 2023 में उन्होंने एक बयान दिया. उत्पादकता के मामले में भारत दुनिया के सबसे पीछे के देशों में है. जब तक हम अपनी उत्पादकता नहीं बढ़ातेहम उन देशों के साथ मुक़ाबला नहीं कर सकते जिन्होंने ज़ोरदार प्रगति की है. इसलिए मेरा आग्रह है कि हमारे युवा ये ज़रूर कहें कि ये मेरा देश है. मैं हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहूंगा. 



नारायण मूर्ति देश के उन बड़े लोगों में से हैं जो नई पीढ़ी के लिए एक रोल मॉडल माने जाते हैं और उनके इस बयान के पीछे देश की प्रगति की आकांक्षा थी. लेकिन फिर भी उनके इस बयान पर बहस छिड़ गई. उनकी राय के गुण दोषों पर चर्चा होने लगी. साल 2024 में ये बहस कभी तेज़ कभी धीमी हुई. नारायणमूर्ति अपने बयान पर लगातार टिके भी रहे उसके पीछे की मूल भावना समझाते रहे. लेकिन इसी साल जनवरी में एक और बड़े उद्योगपति के बयान ने इस बहस को भड़का दिया... देश की बड़ी कंपनी Larsen & Toubro यानी L&T के चेयरमैन एस एन सुब्रह्मण्यन का एक वीडियो वायरल हुआ. जैसे इतना ही काफ़ी नहीं था. एसएन सुब्रह्मण्यन ने दुनिया के वर्क कल्चर से तुलना की.
 

कहा चीनी लोग हफ़्ते में 90 घंटे काम करते हैं, अमेरिकी लोग 50 घंटे काम करते हैं.  अगर आप दुनिया के शीर्ष पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको हफ़्ते में 90 घंटे काम करना होगा.


ये उद्योगजगत की एक कामयाब हस्ती का कथित बयान था, सो वायरल होना ही था. इसके बाद तो हफ़्ते में कितने घंटे काम करना चाहिए इस पर बहस तेज़ हो गई और अब भी जारी है. दफ़्तर में काम करने वाले आम कर्मचारियों को ये बयान डराते से लगे. इनकी आलोचना होने लगी. पान की दुकान से लेकर दफ़्तरों के लंच टाइम तक ये बयान चर्चा में छाए रहे. इस बीच L&T की HR head सोनिका मुरलीधरन का एक बयान अपने चेयरमैन के समर्थन में आया... LinkedIn पर एक पोस्ट में उन्होंने लिखा

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ये दिल तोड़ने वाला है कि हमारे एमडी और चेयरमैन का बयान संदर्भ से हटाकर दिखाया गया जिससे ग़लतफ़हमी और ग़ैरज़रूरी आलोचना हुई.  मैं उस अंदरूनी संबोधन में मौजूद थी. मैं विश्वास से कह सकती हूं कि उन्होंने हफ़्ते में 90 घंटे काम की बात नहीं कही.उन्होंने हल्के फुल्के अंदाज़ में बात कही थी जिसे ग़लत समझा गया और ऐसा विवाद बढ़ा जो उनकी असली मंशा को नहीं जताता. सुब्रह्मण्यम हर कर्मचारी को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं और ऐसी एकता और अपनेपन को बढ़ावा देते हैं जो आज की कॉर्पोरेट दुनिया में बहुत ही कम दिखता है.

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लेकिन ये ऐसा मुद्दा है जो एक बार बहस में उतरा तो आसानी से वापस नहीं जाएगा. क्योंकि इस पर सबके पास अपनी राय है. इस मुद्दे पर बहस में कुछ उद्योगपति भी उतर गए हैं. कई उद्योगपति नारायणमूति और एसएन सुब्रह्मण्यन जैसे दिग्गजों से सहमत हैं तो  कइयों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि काम के घंटे से ज़्यादा ज़रूरी है काम की गुणवत्ता यानी क्वॉलिटी.

ऐसे मामलों में मुखर रहने वाले महिंद्रा एंड महिंद्रा के चेयरमैन आनंद महेंद्र ने 11 जनवरी को दिल्ली में हुए नेशनल यूथ फेस्टिवल में पहले तो एक चुटकी ली... कहा मेरी पत्नी शानदार हैं. मैं उन्हें निहारना पसंद करता हूं... लेकिन फिर उन्होंने मुद्दे की गंभीरता को बनाए रखते हुए कहा कि वो नारायण मूर्ति का सम्मान करते हैं... लेकिन इस मुद्दे पर कुछ कहना चाहते हैं. आनंद महिंद्रा ने कहा, मुझे लगता है ये बहस ग़लत दिशा में जा रही है क्योंकि ये बहस काम की मात्रा पर हो रही है. मेरा मानना है कि हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहए, काम की मात्रा पर नहीं. इसलिए ये 40 घंटे, या 70 घंटे या 90 घंटे की बात नहीं है. आप क्या नतीजा दे रहे हैं अगर ये सिर्फ़ दस घंटे भी है... आप दस घंटे में भी दुनिया बदल सकते हैं.

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इसके बाद HCL के पूर्व सीईओ विनीत नैयर भी इस बहस में उतरे. उन्होंने भी LinkedIn पर एक लंबी पोस्ट लिखी. उन्होंने लिखा कि अगर मन है तो ज़्यादा काम करो. कर सकते हो तो कम काम करो. नंबर से फर्क नहीं पड़ता. असली सवाल ये नहीं है कि आप कितना काम करते हैं. सवाल ये है कि आप ज़िंदगी कितनी मुकम्मल जीते हैं. हम काम के लंबे घंटों, बैक टू बैक मीटिंग और हर वक़्त ऑन रहने को बड़ा अच्छा मानते हैं. लेकिन अगर आप अपनी ज़िंदगी नहीं जी पाते तो आपकी ऊर्जा, क्रिएटिविटी यानी सृजनात्मकता और मक़सद सब छिनते जाते हैं. सबसे अच्छे विचार, सबसे बड़ी कामयाबियां लगातार काम करते रहने से नहीं आतीं. वो ऐसे दिमाग से आती हैं जो सजीव है, व्यस्त है और जीवन को महसूस करने के लिए स्वतंत्र है.

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आईटीसी लिमिटेड के चेयरमैन संजीव पुरी ने सप्ताह में 90 घंटे काम करने के विवाद पर कहा है कि कर्मचारियों के लिए कामकाजी घंटे निर्धारित करने के बजाय उन्हें कंपनी के व्यापक दृष्टिकोण के साथ जोड़ना अधिक महत्वपूर्ण है. पुरी ने कहा, 'आप किसी राजमिस्त्री से पूछें कि वह क्या कर रहा है, तो वह कह सकता है कि वह ईंट लगा रहा है, कोई कह सकता है कि वह दीवार बना रहा है. वहीं कोई कह सकता है कि वह महल बना रहा है। यह श्रमिकों का अपना-अपना नजरिया है.'
कर्मचारियों को निश्चित घंटों तक काम करने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘ हम ऐसा नहीं करेंगे. हम चाहते हैं कि लोग (कंपनी की) यात्रा का हिस्सा बनें और जोश से इसमें शामिल हों तथा उद्यम में बदलाव लाने की उनमें इच्छा हो...हम इसे इस तरह देखते हैं.' आईटीसी सिगरेट से लेकर उपभोक्ता वस्तुओं तक के कारोबार में है. उन्होंने कहा, 'कंपनी लचीले कामकाजी माहौल पर जोर देती है जिसमें सप्ताह में दो दिन घर से काम करना भी शामिल है. यह प्रत्येक व्यक्ति के कामकाजी घंटों पर नजर रखने के बारे में नहीं है. यह उनको सक्षम बनाने, उन्हें उनकी क्षमता का पूर्ण इस्तेमाल करने योग्य बनाने में मदद करने और फिर उनके द्वारा हासिल लक्ष्य की समीक्षा करने के बारे में है.'

कई और उद्योगपति भी इस बहस में उतर रहे हैं... उनका इस बहस में आना और उनकी राय इस मायने में सबके लिए महत्व रखती है क्योंकि वो Employer हैं, नौकरियां देते हैं, नई नौकरियों का सृजन करते हैं आज के कॉर्पोरेट दौर में वो क्या सोचते हैं ये समझना सबके लिए अहमियत रखता है. लेकिन ये समझना भी बहुत अहम है कि किसी भी कर्मचारी की काम करने की सीमा क्या हो सकती है, क्या होनी चाहिए. कब वो अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन कर सकता है.

वैसे तो इतिहास में ताक़तवर ने ही हमेशा ये तय किया कि वो कमज़ोर से कितना काम कराए लेकिन जब से औद्योगिक क्रांति हुई तब से कर्मचारियों के हक़ों की बात भी तेज़ होनी शुरू हुई. ख़ासतौर पर यूरोप में ये आवाज़ें सबसे पहले उठीं. ये क़रीब 200 साल से चला आता रहा एक आंदोलन था जिसने कर्मचारियों के लिए काम की स्थितियां बेहतर कीं. कर्मचारियों को कितने घंटे काम करना चाहिए इसके लिए कई आंदोलन हुए. औद्योगिक क्रांति के शुरुआती वर्षों में मज़दूरों और कर्मचारियों के लिए काम करने की स्थितियां बहुत ख़राब थीं. काम के घंटे बहुत लंबे थे... मज़दूरों का बहुत शोषण होता था.

काम के लंबे घंटे औद्योगिक क्रांति का स्याह पहलू था... मज़दूर 80 से 100 घंटे तक ख़राब परिस्थितियों में काम करते थे. यहां तक कि बच्चों को भी कपड़ा मिलों, कोयले और लोहे की खदानों, शिपयार्ड, कई तरह के निर्माण वगैरह में काम कराया जाता था... लेकिन उन्नीसवीं सदी आते-आते मज़दूरों के हक़ों की आवाज़ तेज़ हुई, उनके हित में क़ानून बनने लगे. शुरुआती तौर पर ये क़ानून बस कागज़ों तक सीमित रहे. उन्नीसवीं सदी के मध्य से मज़दूरों के लिए आठ घंटे काम की मांग तेज़ हुई.

1884 में अमेरिका और कनाडा के Federation of Organized Trades and Labor Unions ने पिट्सबर्ग सम्मेलन में एलान किया कि 1 मई, 1886 से एक दिन की वैधानिक मज़दूरी आठ घंटे होगी... तब से ही 1 मई यानी May day मज़दूरों के संघर्ष का प्रतीक बन गई. 1889 में International Socialist Conference ने 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के तौर पर मनाने का एलान किया.

इसके बावजूद मज़दूरों के लिए सभी जगह परिस्थितियां नहीं सुधरीं... मज़दूर यूनियनों ने बेहतर तनख़्वाह, काम की बेहतर परिस्थितियों के लिए लड़ाई जारी रखी और दिन में आठ घंटे और हफ़्ते में अधिकतम 48 घंटे काम करवाए जाने की मांग की... बीसवीं सदी आते आते ये आंदोलन तेज़ होते गए... दुनिया के मज़दूरों को एक किये जाने की कोशिशें होती रहीं... अंत में 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी ILO ने मज़दूर यूनियनों की मांगों के समर्थन में दिन में आठ घंटे और हफ़्ते में अधिकतम 48 घंटे काम की सिफ़ारिश की.

1919 की इस सिफ़ारिश पर 1930 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के The Hours of Work (Commerce and Offices) Convention, 1930 में मुहर लगी. इसमें कार्यालयों में काम करने के समय के समय को 8 घंटे प्रतिदिन और 48 घंटे प्रति हफ़्ते करने तक सीमित कर दिया गया. इसके बाद दुनिया के तमाम देशों ने इससे जुड़े क़ानून अपने यहां बनाए जिनमें समय के साथ साथ सुधार होता गया. भारत में भी मज़दूरों के कल्याण से जुड़े क़ानून बने.

भारत में Factories Act, 1948 और Shops and Establishments Acts यानी कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम के मुताबिक कर्मचारियों के काम करने के मानक घंटे यानी standard working hours 48 घंटे प्रति सप्ताह या  9 घंटे प्रति दिन होने चाहिए.. इसमें एक घंटे का लंच ब्रेक भी शामिल है. अगर कोई कर्मचारी इससे ज़्यादा समय काम करता है तो उसे ओवरटाइम मिलना चाहिए.

ये अलग बात है कि ज़मीन पर हर कंपनी इस नियम पर अमल करती हो ये ज़रूरी नहीं है... आज भी कई कंपनियों ख़ासतौर पर असंगठित क्षेत्र में मज़दूरी कराने या अन्य काम कराने के मामले में शोषण की शिकायतें काफ़ी आम हैं.
वैसे कर्मचारियों के कल्याण के मामले में भारत में जमशेदजी टाटा अपने समय से काफ़ी आगे रहे. नागपुर में अपनी कंपनी Central India Spinning, Weaving and Manufacturing Company में उन्होंने तकनीक और मज़दूर कल्याण से जुड़े कई प्रयोग किए. उन्होंने कामगारों के काम के घंटे कम किए, काम की जगहों को हवादार बनाया, मांएं बच्चों का ख्याल रख सकें इसके लिए क्रेच बनवाए, प्रोविडेंट फंड और ग्रैच्युटी जैसी व्यवस्थाएं कीं.

तब तक पश्चिम के कई देशों में भी ये सब शुरू नहीं हो पाया था.. 1886 में उन्होंने पेंशन फंड बनाया, 1895 में दुर्घटना मुआवज़ा देना शुरू किया. टाटा स्टील ने 1912 में सबसे पहले आठ घंटे काम शुरू किया. फिर धीरे धीरे मुफ़्त मेडिकल सेवाएं, कर्मचारी कल्याण विभाग, लीव विद पे, प्रोविडेंट फंड स्कीम, काम के दौरान दुर्घटना का मुआवज़ा, मातृत्व लाभ, प्रोफिट शेयरिंग बोनस और रिटायरमेंट पर ग्रेच्युटी जैसी सेवाएं शुरू कीं. सोचिए आज से सौ-सवा सौ साल पहले. इसीलिए टाटा नाम सबकी ज़ुबान पर रहा.

अब आते हैं फिर उसी सवाल पर कि कितने घंटे काम करना चाहिए... और कहां कितने घंटे काम हो रहा है. 2023 की अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी ILO के मुताबिक दक्षिण एशियाई देशों के लोग प्रति सप्ताह सबसे ज़्यादा घंटे काम करते हैं... 
ILO की रिपोर्ट Working Time and Work-Life Balance Around the World के मुताबिक दुनिया का औसत 43.9 घंटा प्रति सप्ताह है. जबकि दक्षिण एशिया के 51.5% कर्मचारी प्रति सप्ताह 49 घंटे काम करते हैं. सबसे कम घंटे औसत काम उत्तर अमेरिका में हैं जो प्रति सप्ताह 37.9 घंटे काम करते हैं. यूरोप और मध्य एशिया में ये 38.4 घंटे प्रति सप्ताह है... 
यूरोप में भी उत्तरी, दक्षिणी और पश्चिमी यूरोप में लोग औसतन 37.2 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं.

रिपोर्ट में कई रिसर्च के हवाले से ये भी कहा गया कि लंबे समय तक काम करने का पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर होता है, काम और ज़िंदगी के बीच संतुलन यानी Work Life Balance पर असर पड़ता है... इसके साथ ही लंबे समय तक काम करना काम की उत्पादकता और कार्यक्षमता पर भी विपरीत असर डालता है... अब एक सवाल ये है कि क्या काम के घंटे बढ़ने से उत्पादकता बढ़ जाएगी.

भारत की उत्पादकता क्या इसीलिए कम है कि यहां काम के घंटे हफ़्ते में 70 या 90 नहीं हैं... इसके लिए हम जर्मनी और जापान के उदाहरण देख सकते हैं... अगर हम सालाना प्रति कर्मचारी काम के घंटे देखें तो जर्मनी और जापान कम घंटों के बावजूद भारत से काफ़ी बेहतर प्रदर्शन करते रहे... ये चार्ट दिखा रहा है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान के लोगों ने सालाना 2200 से 2400 घंटे प्रति कर्मचारी काम किया... जो 8.3 से 9 घंटे होता है... ये गणना हफ़्ते में पांच दिन के काम के आधार पर की गई है... यानी 365 दिनों में से 102 दिनों को हटा दें तो 263 दिनों में आठ से नौ घंटे काम पर भी जापान और जर्मनी ने शानदार किया... और वो कहां पहुंचे सब जानते हैं... और अब दोनों ही देशों में भारत के मुक़ाबले साल में काम के घंटे काफ़ी कम हैं 1400 से 1600 घंटे तक... भारत में काम के घंटे 1970 से 2020 तक सालाना 2000 घंटे से कुछ ऊपर ही रहे... लगभग एक ही स्तर पर.

ज़रूरी ये है कि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जाए जो तकनीक को बेहतर और कर्मचारियों के कौशल को बढ़ाकर सुधारी जा सकती है... अब देखते हैं कि भारत में श्रम की उत्पादकता कैसी है यानी Labour productivity जिसे प्रति घंटे जीडीपी के तौर पर नापा गया है... इस लाल ग्राफ़ से आप देख सकते हैं कि भारत की औसत सालाना श्रम उत्पादकता 2 डॉलर प्रति घंटा से 9 डॉलर प्रति घंटा तक पहुंची है... जबकि जर्मनी की 68 डॉलर से ज़्यादा और जापान की 42 डॉलर प्रति घंटा से ज़्यादा है... ये है वो चीज़ जिसे सुधारने की ज़रूरत है... उत्पादकता तभी बढ़ेगी.

तो साफ़ है कि काम जितनी भी देर हो वो अच्छे से हो... ये नहीं कि दफ़्तर में बैठे हैं और मन कहीं और है... इसलिए ज़रूरी है कि काम के घंटे के बजाय काम की उत्पादकता देखी जाए... वैसे भी होड़ से भरी कॉर्पोरेट दुनिया में काम का तनाव बहुत ज़्यादा हो चुका है और अब वर्क लाइफ़ बैलेंस की बात हर कोई कर रहा है... स्वस्थ ज़िंदगी भी जीनी है और काम भी करना है... कई देशों में तो इसीलिए काम के दिन अब पांच से घटाकर चार कर दिए गए हैं... कौन से हैं ये देश देखेंगे ब्रेक के बाद.

तो हम बात कर रहे हैं कि काम के घंटे ज़्यादा ज़रूरी हैं या काम की गुणवत्ता और उत्पादकता... साफ़ है कि काम की गुणवत्ता और उत्पादकता ज़्यादा ज़रूरी है... कर्मचारी जितने खुश और स्वस्थ होंगे उतना बेहतर काम करेंगे... काम के घंटों से उत्पादकता का उतना सीधा रिश्ता नहीं है... यही वजह है कि कई देश काम के घंटे कम कर उत्पादकता बढ़ाने पर काम कर रहे हैं... 

जर्मनी में 4 day work week का प्रयोग एक फरवरी 2024 से शुरू हुआ है. इस अध्ययन का मक़सद है कि क्या हफ़्ते में चार दिन काम करने से कर्मचारी ज़्यादा खुशहाल, स्वस्थ और उत्पादक होंगे... जैसा कि वहां की मज़दूर यूनियनों का मानना है... जर्मनी ऐसा करने वाला अकेला देश नहीं है.

2022 में बेल्जियम यूरोपियन यूनियन का पहला देश बन गया जिसने हफ़्ते में चार दिन काम करने का विकल्प कर्मचारियों को दे दिया... हालांकि यहां अलग बात ये है कि हफ़्ते में काम के कुल घंटे चार दिन में भी उतने ही होंगे जितने पांच दिन में.

दुनिया में सबसे कम वर्क वीक का औसत नीदरलैंड का है... यहां लोग हफ़्ते में 29 घंटे ही काम करते हैं... हालांकि वहां कोई विशेष नियम नहीं है लेकिन लोग हफ़्ते में चार दिन ही काम करते हैं.

डेनमार्क भी हफ़्ते में काम करने के औसत घंटों के मामले में कर्मचारियों के लिए काफ़ी पसंदीदा जगह है... OECD की एक रिपोर्ट के मुताबिक यहां हफ़्ते में 33 घंटे काम होता है... डेनमार्क में हफ़्ते में 4 दिन काम करने का विशेष नियम नहीं है लेकिन लोग आम तौर पर हफ़्ते में चार दिन काम करते हैं... Denmark.dk के मुताबिक डेनिशन लोग बहुत मेहनती हैं... लेकिन डेनमार्क में दफ़्तर में अतिरिक्त समय रहने को बढ़ावा नहीं दिया जाता और अधिकतर कर्मचारी शाम को 4 बजे तक दफ़्तर से निकल जाते हैं ताकि बच्चों को स्कूल से लेते जाएं और शाम के खाने की तैयारी करें.

ऑस्ट्रेलिया में भी कई कंपनियां पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर हफ़्ते में चार दिन काम का प्रयोग कर रही हैं... इस पायलट प्रोजेक्ट के तहत ऑस्ट्रेलिया ये उम्मीद करता है कि लोग 38 घंटे प्रति हफ्ते काम करें... काम के इस नए तरीके को 100:80:100 मॉडल कहा जा रहा है... इसके मुताबिक कर्मचारी अपनी सौ फीसदी तनख़्वाह रखे, 80 फीसदी का अपना समय अपने पास रखे लेकिन उत्पादकता सौ फीसदी दे... ये एकमात्र मॉडल नहीं है... ऑस्ट्रेलिया में कुछ कंपनियां अपने कर्मचारियों तनख़्वाह में कटौती का विकल्प दे हफ़्ते में कम कम करने की भी मंज़ूरी देती हैं.

पूरी दुनिया में माना जाता है कि जापान के लोग सबसे मेहनती होते हैं... अपनी मेहनत के दम पर संसाधनों में काफ़ी पीछे होनेे के बावजूद अपने देश को उन्होंने दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाया... लेकिन जापान के लोग जब मेहनत करते हैं तो फिर उत्पादकता देते हैं... जापान की सरकार भी अब अपने देश की कंपनियों से पांच की जगह हफ़्ते में चार दिन काम कराने के लिए उत्साहित कर रही है... इसके पीछे विचार है कि ज़्यादा काम से मौत यानी कारोशी को रोका जाए... लोग अपने दफ़्तर से बाहर भी समय बिता सकें... जापान की जनसंख्या वृद्धि दर काफ़ी कम हो चुकी है यानी 1.26... आबादी गिरने की वजह से वहां बुज़ुर्गों की तादाद बढ़ गई है... हज़ारों घर खाली हो गए हैं... ऐसे में जापान की कोशिश है कि वो अपने युवाओं को एक ऐसा माहौल दे जहां वो सिर्फ़ दफ़्तर के काम की ही न सोचें बल्कि ज़्यादा सामाजिक बनें, दफ़्तर के बाहर नए संपर्क स्थापित करें... जापान की गिरती आबादी को भी रोकने के लिए ज़रूरी है कि सरकार वहां के युवाओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित करे कि दफ़्तर के बाहर भी ज़िंदगी है... इसके लिए वहां काम के माहौल में भी बदलाव किया जा रहा है.

दुनिया की कई नामी गिरामी कंपनियां भी अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को फोर डे वीक के विकल्प दे रही हैं... अब देखना है कि औद्योगीकरण की ताज़ा होड़ में किन कर्मचारियों के ऐसे सपने पूरे होते हैं और किनके नहीं.

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