Mumbai Local Train Bomb Blast case : मुंबई लोकल ट्रेन में 11 जुलाई 2006 को हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में मारे गए लोगों की ऐसी कहानियां हैं, जो दिल को झकझोर देती हैं. पीड़ित परिवारों को अपनों को खोने के दो दशक बाद भी इंसाफ के इंतजार की आस को गहरा झटका लगा है. ऐसी ही एक दर्दभरी कहानी पराग सांवत की है. 11 जुलाई 2006 का वो मनहूस दिन... प्रमोशन की खुशी में सवार पराग ट्रेन की खिड़कियों से आ रहे ठंडी हवा के झोंकों के साथ घर जा रहा था. जहां उसकी मां, पत्नी उसका इंतजार कर रही थी, लेकिन पल भर में सब कुछ उससे छिन गया. पराग की ये कहानी आपका भी कलेजा चीर देगी...
मैं पराग सावंत हूं और मेरी मौत अब एक सवाल बन गई है.
एक मरा हुआ आदमी, एक जिंदा सवाल एक पिता, एक बेटा, एक पति और एक अधूरा इंसाफ ...
11 जुलाई 2006 ...
मुंबई की धड़कन लोकल ट्रेनें रोज़ की तरह चल रही थीं। शाम का वक्त था. मैं अंधेरी से अपने घर भायंदर के लिए निकला था. चर्चगेट-विरार लोकल ट्रेन पकड़ी थी. ट्रेन की खिड़की से हवा चेहरे से टकरा रही थी और मन घर पहुंचने की जल्दी में था. पांच मिनट पहले घर कॉल किया था, मैं आ रहा हूं.
मैं वह आदमी हूं जिसने प्रथम श्रेणी का पास खरीदा था और एक प्रमोशन की खुशी मनाई. दस दिन बाद उस पास के साथ मौत की ट्रेन में चढ़ गया. मैं घर नहीं पहुंचा ...मैं वहां पहुंचा, जहां ज़िंदगी और मौत के बीच की दीवार बहुत पतली होती है... यानी हिंदुजा अस्पताल, बेड नंबर 27.
लोकल ट्रेन में धमाका हुआ था तो ट्रेन के डिब्बे में हर तरफ मौत पसर चुकी थी. 187 लोग वहीं मारे गए थे. मैं जिंदा था लेकिन नहीं भी था... 35 साल का था मैं जब कोमा में चला गया. दो साल बाद आंखें खोलीं. मां को पुकारा और मुस्कुराया भी. मां ने समझा शायद बेटा लौट आया है...लेकिन शायद नहीं. उसके बाद मैंने फिर कभी कोई शब्द नहीं कहा. मेरे दिमाग में कई चोटें आई थीं, डॉक्टर बीके मिश्रा ने कई बार सर्जरी की. हर बार मां ने भगवान से कहा. बस एक बार मेरा बेटा ठीक हो जाए.
नौ साल से अस्पताल बना मेरा घर
9 साल...नौ साल अस्पताल का बेड मेरा घर बन गया. बेड नंबर 27, हिंदुजा अस्पताल का वही कोना, जहां मैं सांस लेता रहा. चुपचाप, निष्प्राण. मां हर सुबह आती थीं, एक दिन भी नहीं चूकीं. उस सुबह भी वहीं थीं, जब मैंने आखिरी सांस ली. मेरी पत्नी, जिसने हर दिन अपनी आंखों से मुझे मरते देखा, लेकिन जीना नहीं छोड़ा. बेटी प्रनिति ने कभी मेरी उंगली नहीं पकड़ी.. कभी गोद में नहीं आई... हर हफ्ते वो अस्पताल आती थी, पापा को देखने. पर वो "खेलने" का मतलब नहीं समझ पाई, क्योंकि उसके पापा कोमा में थे.
अस्पताल का कमरा मेरा घर बना
अस्पताल के कमरे में मैं थोड़ा बोलने लगा था ..."पानी," "हां," "नहीं," जैसे शब्द. बेटी से बात की, बीवी की आंखों में फिर से उम्मीद आई थी. लेकिन फिर मैं फिर अंधेरे में चला गया ... एक बार फिर कोमा. अब अदालत कहती है कि कोई दोषी नहीं. सबूत पूरे नहीं थे ... संदेह का लाभ मिल गया तो क्या मेरी मौत... बस एक गलती थी? क्या मैं किसी का शिकार नहीं था?
अधूरी कहानी का हिस्सा
क्या मेरी मां, मेरी बेटी, मेरी पत्नी सब बस एक अधूरी कहानी का हिस्सा थे? आज, मैं सवाल करता हूं, पूछता हूं… इस देश से, इस व्यवस्था से, इस जांच से ... आख़िर मेरी मौत के लिए ज़िम्मेदार कौन है? हाईकोर्ट ने कहा कोई नहीं, सबूत नाकाफी थे ... 12 में से किसी के खिलाफ "ठोस तथ्य" नहीं मिले, सभी को "संदेह का लाभ" मिल गया... फांसी की सजा रद्द। उम्रकैद खत्म। सभी निर्दोष। सभी आजाद भी हो गए.
आरोपियों के बरी होने से उठे सवाल
सवाल उठता है तो क्या वो धमाके नहीं हुए थे? क्या मेरी मां हर सुबह बेड नंबर 27 पर मुझसे बातें नहीं करती थीं? क्या मेरी बेटी प्रनिति ने अपने पिता को कभी देखने का हक़ भी नहीं खोया था? मुझे मारा किसने? किसने मेरी ज़िंदगी लूट ली? किसने मेरे शरीर को बिस्तर पर जड़ कर दिया? और अगर किसी ने नहीं किया... तो क्या ये ज़िंदा शरीर की नौ साल लंबी लाश किसी हादसे का मज़ाक थी? मुझे बताया गया था, जांच बेहतरीन थी ... तत्कालीन मुंबई पुलिस कमिश्नर एएन रॉय ने कहा था बेहद पेशेवर जांच का खूबसूरत नमूना थी . उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, प्रेशर कुकर बम थे, आरडीएक्स, अमोनियम नाइट्रेट, नाइट्राइट, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन से बनाए गए बम. स्टेशनों की रेकी की गई थी. सिमी, लश्कर-ए-तैयबा, विदेशी आतंकवादी... सबकी कहानी तैयार थी. क्या ये सब कहानियां थीं? क्या ये सिर्फ़ स्क्रिप्ट थी, और सच्चाई कुछ और थी?
एटीएस की जांच का क्या हुआ
ATS ने जिन 13 लोगों को पकड़ा, उनमें से कई को पाकिस्तान भेजे जाने, हथियार प्रशिक्षण लेने, और चार पाकिस्तानी घुसपैठियों को शरण देने का आरोप लगाया गया। 2004 से एजेंसियां जिन पर निगरानी कर रही थीं, उन्हें 2006 में कैसे मौका मिला 7 बम रखने का? तो क्या जांच ही झूठी थी या अब का फैसला? या फिर मेरी मौत ही गलत थी?
मैं पराग सावंत हूं, हां, अब मेरी मौत हो चुकी है ... लेकिन शायद अब भी कुछ जिंदा है. एक सवाल, एक दर्द, एक सिसकी. अब अदालत कहती है ...मेरी मौत का कोई गुनहगार नहीं है. तो अब आप बताइए... क्या मैं अपने घर नहीं लौट सकता था उस शाम? क्या मेरी ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं थी? क्या 189 लाशों के पीछे कोई चेहरा नहीं, कोई कातिल नहीं, कोई जिम्मेदार नहीं?
मैं पराग सावंत हूं, अब शायद आप सुनें, अब शायद आप पूछें. हमने एक ज़िंदगी खो दी, और सिस्टम ने इंसाफ़ भी. यह सिर्फ़ एक विस्फोट नहीं था, यह उस भरोसे की मौत थी. जो हम अदालतों, सरकारों और जांच एजेंसियों पर करते हैं. मैं पराग सावंत हूं, अब आप सुनिए... पूछिए... मेरी मौत का जवाब कौन देगा? मेरी बेटी को पिता कौन लौटाएगा? मेरी पत्नी को उसका हमसफ़र कौन? मेरी मां को बेटा कौन?
अदालतें चुप हैं, सरकारें मौन हैं, पर मेरे सवाल अब भी ज़िंदा हैं. एक विस्फोट ने मेरी ज़िंदगी छीन ली... लेकिन सिस्टम ने मेरी मौत को बेवजह करार दिया. मैं पराग सावंत हूं... अब शायद आप सुनेंगे.