मुहर्रम में गम क्यों मनाया जाता है? जानिए करबला के 72 शहीदों की दास्तां

इस्लामिक स्कॉलर मौलाना डॉ. कल्बे रुशेद रिजवी कहते हैं कि करबला में 72 शहीदों की शहादत से इमाम हुसैन के चाहने वाले सीखें हैं कि कैसे मजलूम के साथ कैसे खड़ा रहना है.

विज्ञापन
Read Time: 20 mins
फटाफट पढ़ें
Summary is AI-generated, newsroom-reviewed
  • मुहर्रम की शुरुआत के साथ, मुसलमान करबला की जंग को याद कर रहे हैं.
  • इस युद्ध में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने यज़ीद की सेना के खिलाफ अपनी जान दी.
  • युद्ध के दौरान इमाम हुसैन का छह महीने का बेटा अली असगर भी शहीद हुआ, जिससे करबला की घटना और भी हृदयविदारक हो गई.
  • करबला की जंग ने अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक स्थापित किया, जो आज भी लोगों को प्रेरित करता है.
क्या हमारी AI समरी आपके लिए उपयोगी रही? हमें बताएं।

मुहर्रम की शुरुआत के साथ, दुनिया भर के मुसलमान करबला की जंग को याद कर रहे हैं, जो 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर 680 ईस्वी) को इराक के करबला मैदान में लड़ी गई थी, इस दिन को आशुरा  कहते हैं..इस जंग में इमाम हुसैन इब्न अली, पैगंबर मुहम्मद के नाती, और उनके 72 वफादार साथियों ने यज़ीद की सेना के खिलाफ सत्य और न्याय के लिए अपनी जान कुर्बान की...तीन दिन तक फरात नदी से पानी रोके जाने के कारण,इमाम हुसैन का कैंप प्यास से तड़प रहा था, फिर भी इन शहीदों ने हिम्मत नहीं हारी.. आइए आपको करबला के 72 शहीदों के बारे में उनकी शहादत किस तरह हुई और कैसे भूखे प्यासे उन 72 शहीदों ने अपनी जान देकर इस्लाम को बचा लिया था.

करबला की जंग और पानी का संकट

करबला की जंग इमाम हुसैन इब्ने हजरत अली और यज़ीद इब्ने माविया के बीच थी.. या ये कहें हक और बातिल की थी या ये कहें मजलूम और ज़ालिम के बीच थी. इमाम हुसैन ने यज़ीद की गैर-इस्लामी नीतियों और अत्याचार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया..इराक के कूफा के लोगों ने इमाम हुसैन को नेतृत्व के लिए बुलाया, लेकिन जब वह अपने परिवार और साथियों के साथ कूफा की ओर बढ़े, यज़ीद की सेना ने उन्हें करबला में रोक लिया. 7 मुहर्रम को, उमर इब्न साद के नेतृत्व में यज़ीद की सेना ने फरात नदी से पानी की आपूर्ति बंद कर दी. तीन दिन तक,इमाम हुसैन, उनके परिवार, और 72 साथियों—जिनमें बच्चे और महिलाएं शामिल थे, उन सभी को एक बूंद पानी नहीं मिला.. इस प्यास ने उनकी शारीरिक शक्ति को कमजोर किया, लेकिन उनकी आस्था(खुदा के लिए अकीदत) अटल रही.. 10 मुहर्रम (आशूरा) को, यज़ीद की सेना ने हमला बोला, और एक-एक कर सभी 72 शहीद हो गए.. जिनमें इमाम हुसैन का 6 महीने का बच्चा अली असगर भी था, जो तीन मुंह के तीर से मार कर शहीद कर दिया जाता है.

कैसे हुई शहादत उन 72 शहीदों की

इमाम हुसैन इब्न अली: इमाम हुसैन, तीसरे शिया इमाम, अपने सभी साथियों और परिवार के शहीद होने के बाद अंत में मैदान में उतरे। तीन दिन की प्यास ने उन्हें कमजोर कर दिया था, फिर भी वह डटकर लड़े। यज़ीद की सेना ने उन पर तीरों, भालों और तलवारों से हमला किया। शिमर इब्न ज़िल-जौशन ने उनकी शहादत को अंजाम दिया, उनके सिर को काटकर यज़ीद के पास दमिश्क भेजा। उनकी कुर्बानी करबला की आत्मा है..यहां तक की जालिमों ने उनके हाथ में पहनी हुई अंगूठी तक निकालने के लिए उंगली काट दी और जिस्म के ऊपर घोड़े को दौड़ाए गए.

Advertisement
  1. अली अकबर इब्न हुसैन: इमाम हुसैन के बड़े बेटे, जो पैगंबर मुहम्मद से अपनी शक्ल और सूरत में मिलते थे.. प्यास से कमजोर, अली अकबर ने युद्ध में पहला हमला किया। दुश्मन की तलवारों और तीरों ने उन्हें घेर लिया, और वह मैदान में शहीद हो गए। उनकी शहादत ने इमाम हुसैन के खेमों में गहरा शोक पैदा किया..उनके सीने में बरछी मार दी गई थी जिसके बाद उनके पिता इमाम हुसैन ने वो बरछी निकालने चाही जिसके बाद वो कलेजा ही बाहर आ गया
  2. अली असगर इब्न हुसैन: इमाम हुसैन का छह महीने का बेटा। प्यास से तड़प रहे अली असगर को इमाम हुसैन ने दुश्मन के सामने हाथों में उठाकर पानी के लिए कहा.. लेकिन हुरमला इब्न काहिल ने क्रूरता से एक त्रिकोणीय तीर उनकी गर्दन में मारा, जिससे उनकी तुरंत मृत्यु हो गई। यह करबला की सबसे हृदयविदारक घटना है, जिस वक्त तीर हजरत अली असगर को लगा तो वो तीर जिस्म से ज्यादा भारी थी, वो तीन मुंह के तीर का एक फल अली असगर के कान पर लगा, दूसरा फल गले में और तीसरा फल इमाम हुसैन के बाजू पर लगा, जिसके बाद अली असगर के गले से खून का फव्वारा निकल गया और उनकी शहादत हो गई
  3. अब्बास इब्न अली: हजरत अली की बीवी उम्मूल बनीं के बेटे हजरत अब्बास थे जो हजरत हुसैन के भाई थे और करबला में इमाम हुसैन के लश्कर के अलमबरदार थे..जो बहुत बहादुर थे उनसे पूरा यजीद की फौज का लश्कर डरता था, वो बिल्कुल अपने पिता हजरत अली की तरह बहादुर थे..इमाम हुसैन ने जंग करने की कई बार इजाजत मांगी लेकिन इजाजत न मिली..जिसके बाद हजरत अब्बास को बच्चों के लिए पानी लाने की इजाजत मिली.. और वो अकेले फरात नदी तक पहुंच गए ..किसी यजीदी फौज की हिम्मत न हो सकी जो उन्हें रोक सके.. हजरत अब्बास को वफ़ा का सरदार कहते हैं क्योंकि ये सोचिए जब हजरत अब्बास नदी तक पहुंच गए थे लेकिन तब भी उन्होंने पानी नहीं पिया.. उन्होंने कहा कि खेमों के अंदर अभी छोटे बच्चे प्यासे हैं जब तक वो पानी न पी लें तब तक मैं कैसे पानी पी सकता हूं.. जैसे ही हजरत अब्बास पानी लेकर घोड़े पर चले तभी दुश्मनों ने साजिश से पेड़ों के पीछे छिपकर उनपर वार कर दिया जिसमें सबसे पहले यजीदी फौज ने उनका सीधा हाथ तलवार से काट दिया जिसके बाद बाया हाथ तीर से काट दिया.. और उसके बाद सिर पर हमला किया और तीरों की बौछार ने उनकी शहादत को पूरा किया. उनकी कुर्बानी “फरात का शेर” के रूप में जानी जाती है.. 
  4. कासिम इब्न हसन: हज़रत हसन इब्न अली के 13 साल का बेटे थे हजरत कासिम..प्यास और जख्मों से कमजोर, हजरत कासिम ने इमाम हुसैन की अनुमति से युद्ध में हिस्सा लिया..तलवारों से घायल होने के बाद, वह घोड़ों के नीचे कुचल गए, जिसने कैंप को हिलाकर रख दिया.. उनके इतने टुकड़े लाश के हुए कि इमाम हुसैन ने उनका लाशा गठरी में बांध कर लाए.
  5. मुस्लिम इब्न अकील:इमाम हुसैन के चचेरे भाई हजरत मुस्लिम थे जिन्हें कूफा भेजा गया था.. कूफा में शुरू में हजारों लोगों ने समर्थन दिया, लेकिन यज़ीद के गवर्नर उबैदुल्लाह इब्न ज़ियाद के दबाव में कूफावासियों ने धोखा दिया.. हजरत मुस्लिम को गिरफ्तार कर गवर्नर के महल की छत से फेंक दिया गया, जिससे उनकी शहादत हुई.. उनकी मृत्यु ने करबला की त्रासदी का मार्ग प्रशस्त किया.. और वो इस तरह करबला के पहले शहीद हुए.
  6. हबीब इब्न मज़ाहिर असदी: इमाम हुसैन के बचपन के दोस्त हजरत हबीब थे..जिन्हें इमाम हुसैन ने खत लिख कर करबला बुलाया.. प्यास से कमजोर, हबीब ने पहला हमला (हमला-ए-उला) में हिस्सा लिया और तलवारों व भालों से शहीद हुए. उनकी वफादारी और नेतृत्व ने कैंप को संगठित किया.
  7. हुर इब्न यज़ीद रियाही: हजरत हुर पहले यजीद की  सेना के कमांडर थे जिन्होंने आशूरा के दिन इमाम हुसैन के साथ आ गए. आने के बाद इमाम हुसैन से उन्होंने माफी मांगी कि उनकी वजह से जो इमाम हुसैन को तकलीफ हुई हो.. जिसके बाद इमाम हुसैन ने उन्हें माफ किया और अपना लिया और उन्हें अपनी मां हजरत फातिमा जहरा सअ का रुमाल दिया..प्यास और पश्चाताप के बीच, जनाबे हुर ने दुश्मन पर हमला बोला और तीरों व तलवारों से शहीद हुए। उनकी कहानी पश्चाताप और वफादारी की मिसाल है..इस में उनके साथ उनके भाई और बेटा भी शहीद हो गए.
  8. ज़ुहैर इब्न क़ैन बजिली: कूफा के एक कुलीन योद्धा थे, जो अपनी पत्नी के कहने पर इमाम हुसैन के साथ शामिल हुए.. प्यास से कमजोर, वह युद्ध के शुरुआती चरण में तीरों और तलवारों से शहीद हुए और नमाज जब इमाम हुसैन पढ़ रहे थे तब उनकी हिफाजत भी कर रहे थे.
  9. बुरैर इब्न खुज़ैर हमदानी: एक पवित्र विद्वान, जिन्होंने कुरान की आयतें पढ़ते हुए युद्ध किया. पहले हमले में तलवारों ने उनकी शहादत को अंजाम दिया.
  10. अन्य साथी: बाकी 62 शहीद, जैसे जौन इब्न हुवई, अमर इब्न जुनादा, और सुवैद इब्न अमर, ने भी प्यास की हालत में तलवारों, तीरों, और भालों का सामना किया। कुछ, जैसे अनस इब्न हारीस और मुस्लिम इब्न औसजा, पहले हमले में शहीद हुए, जबकि अन्य, जैसे सुवैद, हुसैन की शहादत की खबर सुनकर अंतिम बार उठे और शहीद हुए. पानी की कमी ने उनकी ताकत को कम किया, लेकिन उनके हौसले को नहीं तोड़ा.

करबला के 72 शहीदों की सूची

यहां उन 72 शहीदों के नाम हैं, जो करबला में या उससे संबंधित घटनाओं में शहीद हुए:

  • इमाम हुसैन इब्न अली
  • अली अकबर इब्न हुसैन
  • अली असगर इब्न हुसैन
  • अब्बास इब्न अली
  • कासिम इब्न हसन
  • औन इब्न अब्दुल्लाह
  • मुहम्मद इब्न अब्दुल्लाह
  • अब्दुल्लाह इब्न अली
  • जाफर इब्न अली
  • उस्मान इब्न अली
  • मुहम्मद इब्न अली
  • अबू बक्र इब्न अली
  • जाफर इब्न अकील
  • अब्दुर रहमान इब्न अकील
  • अब्दुल्लाह इब्न अकील
  • मुस्लिम इब्न अकील
  • मुहम्मद इब्न मुस्लिम इब्न अकील
  • अहमद इब्न मुहम्मद इब्न जाफर
  • हबीब इब्न मज़ाहिर असदी
  • हुर इब्न यज़ीद रियाही
  • ज़ुहैर इब्न क़ैन बजिली
  • बुरैर इब्न खुज़ैर हमदानी
  • वहब
  • जौन इब्न हुवई
  • अमर इब्न जुनादा बिन काब खज़रजी
  • सुवैद इब्न अमर खसामी
  • नुमान इब्न अमर अज़दी
  • नईम इब्न अजलान अंसारी
  • यज़ीद इब्न मग़फल
  • सअद इब्न हारीस
  • अनस इब्न हारीस असदी
  • मुस्लिम इब्न औसजा असदी
  • क़ैस इब्न मशर असदी
  • अबू सम्माम उमर इब्न अब्दुल्लाह
  • आबिस शाकिर
  • अब्दुल्लाह रहमान वहाबी
  • सैफ इब्न हासिद
  • आमिर इब्न अब्दुल्लाह हमदानी
  • मजमा इब्न अब्दुल्लाह
  • मफ इब्न हिलाल
  • हज्जाज इब्न मस्रूफ
  • उमर इब्न क़रज़ा
  • अब्दुल्लाह रहमान इब्न अब्दिख
  • जुनैद इब्न काब
  • आमिर इब्न जुनैद
  • सलमान इब्न मज़ारिह
  • सईद इब्न उमर
  • अब्दुल्लाह इब्न बशीर
  • यज़ीद इब्न जाइद किंदी
  • हरव इब्न उमर अल-क़ैस
  • ज़ाहिर इब्न आमिर
  • बशीर इब्न आमिर
  • अब्दुल्लाह अरवा गफ्फारी
  • अब्दुल्लाह इब्न आमिर
  • अब्दुल्लाह अला इब्न यज़ीद
  • सलीम इब्न आमिर
  • क़ासिम इब्न हबीब
  • ज़ैद इब्न सलीम
  • यज़ीद इब्न साबित
  • आमिर इब्न मुस्लिम
  • सैफ इब्न मालिक
  • जबिर इब्न हज्जाजी
  • मसऊद इब्न हज्जाजी
  • अब्दुर रहमान इब्न मसऊद
  • बाकिर इब्न हाई
  • अम्मार इब्न हसन
  • जिरगम इब्न मालिक
  • कनाना इब्न अतीक
  • अक़बा इब्न सलह
  • हबाला इब्न अली शिबानी
  • कनाब इब्न उमर
  • अब्दुल्लाह इब्न यक़तार

आज का महत्व

करबला के 72 शहीदों की शहादत सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक है. मुहर्रम और अरबईन में, लाखों लोग इन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं. भारतीय नेता, जैसे महात्मा गांधी और नरेंद्र मोदी समेत राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव आदि ने भी इमाम हुसैन की कुर्बानी को सामाजिक न्याय के लिए प्रेरणा बताया है.

Advertisement

इसी शहादत को आज तक कोई भूल नहीं सका है, पीएम नरेंद्र मोदी, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, रविंद्रनाथ टैगोर, सरोजनी नायडू, आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार, शंकराचार्य आदि ने इमाम हुसैन के बारे में क्या क्या कहा आइए बताते हैं.

Advertisement
  1. प्रधानमंत्री नरेंद मोदी: इमाम हुसैन (स.अ.व.) ने अन्याय को स्वीकार करने के बजाय अपना बलिदान दिया. वह शांति और न्याय की अपनी इच्छा में अटूट थे.उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी सदियों पहले थीं. इमाम हुसैन के पवित्र संदेश को आपने अपने जीवन में उतारा है और दुनिया तक उनका पैगाम पहुंचाया है. इमाम हुसैन अमन और इंसाफ के लिए शहीद हो गए थे. उन्होंने अन्याय, अहंकार के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी. उनकी ये सीख जितनी तब महत्वपूर्ण थी उससे अधिक आज की दुनिया के लिए ये अहम है.
  2. महात्मा गांधी : मैंने हुसैन से सीखा कि मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है. इस्लाम की बढ़ोतरी तलवार पर निर्भर नहीं करती बल्कि हुसैन के बलिदान का एक नतीजा है जो एक महान संत थे.
  3. रवीन्द्र नाथ टैगोर : इन्साफ और सच्चाई को जिंदा रखने के लिए, फौजों या हथियारों की जरुरत नहीं होती है. कुर्बानियां देकर भी फ़तह (जीत) हासिल की जा सकती है, जैसे की इमाम हुसैन ने कर्बला में किया.
  4. पंडित जवाहरलाल नेहरू : इमाम हुसैन की क़ुर्बानी तमाम गिरोहों और सारे समाज के लिए है, और यह क़ुर्बानी इंसानियत की भलाई की एक अनमोल मिसाल है.
  5. इंद्रेश कुमार, आरएसएस - इमाम हुसैन पर मुसीबतें आई और उन्होंने इसको अपनी परीक्षा समझा, मुसीबत में कुछ लोग बिखर जाते हैं तो कुछ लोग निखर जाते हैं. उन्होंने दुनिया को रास्ता दिखाना था जिसकी वजह से वो निखर गये, इमाम हुसैन आतंक के खिलाफ थे, प्यार मोहब्बात भाईचारे के रास्ते पर चलते थे, उनके अंदर एक रुहानियत ताकत थी. 
  6. डॉ राजेंद्र प्रसाद : इमाम हुसैन की कुर्बानी किसी एक मुल्क या कौम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों में भाईचारे का एक असीमित राज्य है.
  7. डॉ राधाकृष्णन : अगरचे इमाम हुसैन ने सदियों पहले अपनी शहादत दी, लेकिन उनकी पाक रूह आज भी लोगों के दिलों पर राज करती है.
  8. स्वामी शंकराचार्य : यह इमाम हुसैन की कुर्बानियों का नतीजा है कि आज इस्लाम का नाम बाकी है, नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पूरी दुनिया में कोई भी नहीं होता.
  9. सरोजिनी नायडू : मैं मुसलमानों को इसलिए मुबारकबाद पेश करना चाहती हूं कि यह उनकी खुशकिस्मती है कि उनके बीच दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती इमाम हुसैन (अ:स) पैदा हुए जिन्होंने संपूर्ण रूप से दुनिया भर के तमाम जातीय समूह के दिलों पर राज किया और करते हैं.
  10. एडवर्ड ब्राउन : कर्बला में खूनी सहरा की याद जहां अल्लाह के रसूल का नवासा प्यास के मारे ज़मीन पर गिरा और जिसके चारों तरफ सगे सम्बन्धियों की लाशें थीं, यह इस बात को समझने के लिए काफी है कि दुश्मनों की दीवानगी अपनी चरम सीमा पर थी, और यह सबसे बड़ा गम है जहां भावनाओं और आत्मा पर इस तरह नियंत्रण था कि इमाम हुसैन को किसी भी प्रकार का दर्द, खतरा और किसी भी प्रिय की मौत ने उनके क़दम को नहीं डगमगाया.
  11. इग्नाज़ गोल्ज़ेहर : बुराइयों और हज़रत अली के खानदान पर हुए ज़ुल्म और प्रकोप पर उनके शहीदों पर रोना और आंसू बहाना इस बात का प्रमाण है कि संसार की कोई भी ताक़त इनके अनुयायियों को रोने या गम मनाने से नहीं रोक सकती है और अक्षर “शिया” अरबी भाषा में कर्बला की निशानी बन गए हैं.
  12. डॉ के शेल्ड्रेक : इस बहादुर और निडर लोगों में सभी औरतें और बच्चे इस बात को अच्छी तरह से जानते और समझते थे कि दुश्मन की फौजों ने इनका घेरा किया हुआ है और दुश्मन सिर्फ लड़ने के लिए नहीं बल्कि इनको कत्ल करने के लिए तैयार हैं. जलती रेत, तपता सूरज और बच्चों की प्यास ने भी एक पल के इनके कदम डगमगाने नहीं दिए. हुसैन अपनी एक छोटी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े, न किसी शान के लिए, न धन के लिए, न ही किसी अधिकार और सत्ता के लिए, बल्कि वे बढ़े एक बहुत बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए जिसमें उन्होंने हर कदम पर सारी मुश्किलों का सामना करते हुए भी अपनी सत्यता का कारनामा दिखा दिया.
  13. चार्ल्स डिकेन्स : अगर हुसैन अपनी संसारिक इच्छाओं के लिए लड़े थे तो मुझे यह समझ नहीं आता कि उन्होंने अपनी बहन, पत्नी और बच्चों को साथ क्यों लिया! इसी कारण मैं यह सोचने और कहने पर विवश हूं कि उन्होंने पूरी तरह से सिर्फ इस्लाम के लिए अपने पूरे परिवार का बलिदान दिया, ताकि इस्लाम बच जाए.
  14. अंटोनी बारा : मानवता के वर्तमान और अतीत के इतिहास में कोई भी युद्ध ऐसा नहीं है जिसने इतनी मात्रा में सहानूभूति और प्रशंसा हासिल की है और सारी मानव जाति को इतना अधिक उपदेश व उदाहरण दिया है जितनी इमाम हुसैन की शहादत ने कर्बला के युद्ध से दी है.
  15. थॉमस कार्लाईल : कर्बला की दुखद घटना से जो हमें सबसे बड़ी सीख मिलती है वह यह है कि इमाम हुसैन और इनके साथियों का भगवान पर अटूट विश्वास था और वो सब मोमिन (भगवान से डरने वाले) थे! इमाम हुसैन ने यह दिखा दिया कि सैन्य विशालता ताकत नहीं बन सकती.
  16. रेनौल्ड निकोल्सन : हुसैन गिरे, तीरों से छिदे हुए, इनके बहादुर सदस्य आखरी हद तक मारे-काटे जा चुके थे, मुहम्मदी परम्परा अपने अंत पर पहुंच जाती, अगर इस असाधारण शहादत और क़ुर्बानी को पेश न किया जाता. इस घटना ने पूरी बनी उमय्या को हुसैन के परिवार का दुश्मन, यज़ीद को हत्यारा और इमाम हुसैन को “शहीद” घोषित कर दिया.
  17. सरदार एसएस आज़ाद - बंग्ला साहब गुरुद्वारा - इमाम हुसैन की शहादत इंसानियत को बचाने के लिए दी गई शहादत थी,ज़ालिम हुकमरान हमेशा ही इंसानियत के खिलाफ रहते हैं, और इंसानियत के चाहने वाले जो होते हैं वो हमेशा ही करबला की तरह अपनी शहादत देकर इंसानयित को ज़िंदा रखते हैं.
  18. फादर विक्टर एडविन - इमाम हुसैन इंसानियत के लिए लड़े और जुल्म के खिलाफ कभी सर नहीं झुकाया और अपनी कुर्बानी दे दी. मैं खुद भी उनकी कब्र(करबला) पर गया हूं मुझे वहां जाकर महसूस हुआ कि जिनते भी लोग वहां आते हैं सबको बहुत सुकुन मिलता है. उनकी ज़िंदगी आज के लिए सबक है. सब शांति अमन के लिए सबके साथ रहकर अपने कदम आगे बढ़ाएं.

इमाम हुसैन को हिंदुस्तान से बहुत प्यार था, और आखिरी वक्त में उन्होंने ये ख्वाहिश भी की थी कि वो हिंदुस्तान जाना चाहते हैं लेकिन यज़ीद फौज ने उन्हें इसकी भी इजाज़त नहीं दी. लेकिन उनकी इसी मोहब्बत को हर हिंदुस्तानी याद करता है. और उनकी याद में हिंदुस्तान के कई धर्म के लोग उन्हें चाहते हैं. कोई ताज़िया निकालता है तो कोई उनका अलम अपने घर पर सजाता है.

Advertisement

मोहर्रम महीने में क्या हुआ था असल में

इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम का महीना होता है जिसे ग़म का महीना कहते हैं. इस मोहर्रम महीने की 10 तारीख को आशूरा का दिन कहते हैं. जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अपने 71 साथियों के साथ 3 दिन के भूखे प्यासे शहीद हुए थे. उन 72 शहीदों में सबसे छोटा शहीद 6 महीने के इमाम हुसैन के बेटे अली असगर थे, इन सभी शहीदों को सिर्फ हक़, इंसानियत और सच के रास्ते पर चलने की वजह से यज़ीद नाम के एक शासक के द्वारा मार दिया गया था.

यज़ीद बेगुनाहों पर ज़ुल्म करना, हक़ को छीनना, गलत रास्ते पर चलना,किसी भी इंसान को कत्ल करा देना समेत सारे तानाशाही कदम उठाता था, जिससे इस्लाम को बदनाम कर सके कि इस्लाम में इस तरह से ही बेजुर्म लोगों को अपना शिकार बनाया जाता है. वहीं जितने भी आस पास राज्य की सरकार होती थी उसमें भी ज़बरदस्ती उसने अपनी हुकुमत कायम करना चाह रहा था. जिससे लोग उससे डर के मारे भी उसके खिलाफ आवाज़ बुलंद नहीं कर पा रहे थे. उस यज़ीद ने इमाम हुसैन को भी खत लिखा था कि वो उसके रास्ते पर चलें लेकिन इमाम हुसैन (अस) ने उससे साफ कह दिया कि ज़िल्लत की ज़िंदगी से बेहतर इज़्ज़त की मौत है. मुझ जैसा तुझ जैसे के रास्ते पर नहीं चल सकता. 

बस तभी इमाम हुसैन मोहर्रम महीने की 2 तारीख होती है और इराक़ के करबला में अपने बीवी बच्चों, साथियों के साथ कूफा शहर जा रहे होते हैं तभी यज़ीद की फौज उन्हें घेर लेती है. और पास में नहर-ए-फुरात पर भी पाबंदी लगा देती है कि जिससे इमाम हुसैन के काफिले तक पानी ना पहुंचाया जा सके. 2 मोहर्रम से लेकर 7 मोहर्रम तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के पास जितना पानी था वो खत्म हो जाता है. और 7 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम (आशूरा) तक इमाम हुसैन का पूरा काफिला भूखा प्यासा रहता है. इस काफिले में छोटे-छोटे बच्चे से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग भी थे जिन्हें एक बूंद पानी तक ना मिल सका और आखिर में यज़ीद की फौज ने जब देखा कि इमाम हुसैन और उनका काफिला भूखा प्यासा रहने के बाद भी अभी तक यज़ीद के साथ होने के लिए तैयार नहीं है तो यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन के काफिले पर हमला कर दिया.

इस तरह दोपहर 4 बजे तक इमाम हुसैन के काफिले में 70 लोगों की शहादत हो चुकी थी, बस आखिर में इमाम हुसैन और उनका 6 महीने का बच्चा बचा था. जिसके बाद इमाम हुसैन उस बच्चे को अपनी गोद में लेकर उन ज़ालिम के पास गए और कहा कि तुमने मेरे हर एक साथी को तो शहीद कर दिया है अब इस बच्चे को तो पानी पिला दो. लेकिन जिन ज़ालिमों ने 70 लोगों को बेहरमी से मार दिया था वो इस छोटे बच्चे पर क्या रहम खाते, उन्हीं फौज में से एक हुरमुला नाम के तीरांदाज ने तीन मुंह का तीर निकाला और उस छोटे से बच्चे के गले पर मार दिया. मासूम के गले पर तीर लगने के बाद उसकी भी शहादत हो जाती है. और बाद में उस ज़ालिम फौज ने इमाम हुसैन पर भी तीर, तलवार, नेज़े की बारिश कर दी और इमाम हुसैन भी शहीद हो जाते हैं. 

वहीं इमाम हुसैन की बीवी बच्चे, बहने और एक बीमार बेटे आदि को यज़ीद की फौज कैदी बना लेती है. जिन्हें करबला(इराक) से सीरिया के दमिश्क तक पैदल ले जाकर कैद कर देती है. बस यहीं वो मंज़र था जिस पर हर एक धर्म का इंसान इमाम हुसैन की शहादत को याद करता है, इमाम हुसैन अगर यज़ीद के रास्ते पर चले जाते तो शायद यज़ीद उन्हें क़त्ल ना करता लेकिन इमाम हुसैन ने 61 हिजरी यानि तकरीबन 1400 साल पहले बता दिया कि इंसानियत और हक़ पर चलने वाला इंसान कभी ज़ालिम के आगे अपना सर नहीं झुका सकता चाहे उसकी जान तक चली जाए. 

इमाम हुसैन ने इंसानियत को ज़िंदा रख दिया, जिसकी वजह से आज 1400 साल के बाद भी लोग उन्हें याद करते हैं. पूरे विश्व में 10 मोहर्रम के दिन उनकी याद में ग़म मनाया जाता है.. वहीं हर साल करोड़ो लोग इमाम हुसैन की कब्र पर जाते हैं, और जो लोग उनके कब्र पर नहीं जा पाते हैं वो अपने शहर, गांव,क्षेत्र में ही मजलिस मातम, पानी, शरबत आदि बांटकर इमाम हुसैन और सभी करबला के 72 शहीदों को याद करते हैं.  

इमाम हुसैन अस अगर आज से 1400 साल पहले अपनी शहादत नहीं देते तो दुनिया इस्लाम को सिर्फ यहीं समझती कि इसमें सिर्फ लोगों पर ज़ुल्म और नाइंसाफी होती है. जिसका आज के दौर में सीधा उदाहरण आईएसआईएस, लश्कर ए तैय्यबा जैसे आतंकी संगठन से देखने को मिल सकता है जिसमें ये आतंकी लोग किसी भी मज़लूम पर रहम नहीं करते और इंसानियत का क़त्ल कर देते हैं. वहीं इमाम हुसैन ने अपनी कुर्बानी देकर इन लोगों के चेहरे से इस्लाम का नकाब हटा दिया कि ये लोग जो इस्लाम का नाम लेकर मासूमों को क़त्ल करते हैं वो इंसान नहीं शैतान हैं. और उनका इस्लाम से कोई नाता नहीं. इस्लाम सिर्फ इंसानियत, भाईचारा, सच का रास्ता दिखाता है जिसमें हर एक मज़लूम की मदद की जाए.
करबला के 72 शहीदों ने पानी की कमी और यज़ीद की सेना की क्रूरता का सामना करते हुए अपनी जान दी. उनकी शहादत की कहानियाँ—अली असगर की मासूमियत से लेकर अब्बास की वीरता तक—हमें सिखाती हैं कि सत्य और न्याय के लिए खड़ा होना कभी व्यर्थ नहीं जाता...वैसे ही करबला की गाथा हमें भविष्य में अत्याचार के खिलाफ एकजुट होने की प्रेरणा देती है..

दुनियाभर में कहीं भी जुल्म हो इमाम हुसैन का चाहने वाला हमें ज़ालिम के खिलाफ रहेगा

इस्लामिक स्कॉलर मौलाना डॉ कल्बे रुशेद रिजवी कहते हैं कि करबला में 72 शहीदों की शहादत से इमाम हुसैन के चाहने वाले सीखें हैं कि कैसे मजलूम के साथ कैसे खड़ा रहना है.. गाजा में बच्चों को जो मारा गया है, हम लोग अली असगर की शहादत को याद करते हैं कि किस तरह ज़ालिम ने अली असगर को मारा और अब भी मजलूम बच्चों को मारा जा रहा है.. इसी वजह से हर इंसानियत का चाहने वाला उन मजलूम लोगों को याद करता है..

हिंदू मुस्लिम करते हैं मातम, रोते हैं इमाम हुसैन के लिए

Ndtv से खास बातचीत में स्वामी सारंग ने बताया कि गंगा जमुना तहजीब भी और मेरी अकीदत भी करबला के 72 शहीदों से हैं.. ये किसी धर्म के नहीं हर किसी के है.. मैं खुद भी मजलिसों में जाता हूं, वहां कोई भी आपको अमीर गरीब नहीं नजर आएगा..सब काले कपड़े पहने हुए गम मनाते हैं और इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं.

राज जैन कहते हैं इंसानियत के देवता इमाम हुसैन है..पहले वो खुद नास्तिक थे लेकिन इमाम हुसैन की शहादत सुनने के बाद अब वो हुसैनी बन गए हैं..उन्होंने अपने घर पर बीबी सकीना का श्राइन अपने घर पर बनवाया है.

कनक जोशी कहती हैं कि इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत रूह से कनेक्ट होती है.. उनका गम भुला नहीं सकते और वो खुद नोहे मरसिए इमाम हुसैन के लिए पढ़ती है जिसके बाद हर इंसान के आंख में आंसू आ जाते हैं.

Featured Video Of The Day
News Reels: कांवड़ियों ने मचाया हुड़दंग | लखनऊ में थूक जिहाद को लेकर विवाद | तेज बहाव में बह गई कार