असली बनाम नकली शिवसेना की लड़ाई, किसका होगा शिवसेना का 'तीर-कमान'?

महाराष्ट्र संकट के मद्देनज़र अब सियासी गलियारों में चर्चा का मुद्दा इस बात पर सिमट चुकी है कि बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना किसकी होगी और किसे मिलेगा पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण. बागी नेता एकनाथ शिंदे और पार्टी के “सुप्रीमो”  उद्धव ठाकरे आमने सामने हैं. जोर-आजमाईश हो रही है औऱ किलाबंदी भी शुरू हो चुकी है.  

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शिवसेना के दोनों गुटों के बीच पार्टी सिंबल के लिए छिड़ी जंग
नई दिल्ली:

महाराष्ट्र संकट के मद्देनज़र अब सियासी गलियारों में चर्चा का मुद्दा इस बात पर सिमट चुकी है कि बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना किसकी होगी और किसे मिलेगा पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण. बागी नेता एकनाथ शिंदे और पार्टी के “सुप्रीमो”  उद्धव ठाकरे आमने सामने हैं. जोर-आजमाईश हो रही है औऱ किलाबंदी भी शुरू हो चुकी है.  

बागी खेमे ने भरत गोगावले की नियुक्त नए मुख्य सचेतक के रूप में किया है. मुख्य सचेतक की नियुक्ति कर शिंदे कैम्प यह बताना चाहता है कि पार्टी के ज्यादातर विधायक उनके साथ हैं और असली शिवसेना उनके पास है. शिंदे खेमे ने 46 विधायकों के समर्थन का दावा किया है, जिसमें शिवसेना के 37 विधायक और नौ निर्दलीय शामिल हैं. 20 जून से गुवाहाटी के एक होटल में मौजूद बागी विधायकों ने 23 जून को शिंदे को आगे की कार्रवाई पर फैसला करने के लिए अधिकृत किया. मतलब कि गुवाहाटी में डेरा डाले हुए बागी विधायकों के वे सर्वसम्मत  नेता चुन लिए गए हैं.  

दूसरी तरफ उद्धव कैम्प भी शांत नहीं बैठा हुआ है. विधानसभा में शिवसेना के सुनील प्रभु ने पत्र जारी कर पार्टी के सभी विधायकों व मंत्रियों को बुधवार की शाम पांच बजे से पहले वर्षा निवास स्थान पर उपस्थित रहने के लिए आदेश दिया था. एकनाथ शिंदे ने एक ट्वीट के जरिए इस आदेश को गैर-कानूनी बताया था. इसके बाद, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे कैम्प ने राज्य विधानसभा के उपाध्यक्ष के समक्ष एक याचिका दायर कर एकनाथ शिंदे सहित 12 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग की है. शिंदे के अलावा शिवसेना ने प्रकाश सुर्वे, तानाजी सावंत, महेश शिंदे, अब्दुल सत्तार, संदीप भुमारे, भरत गोगावाले, संजय शिरसत, यामिनी यादव, अनिल बाबर, बालाजी देवदास और लता चौधरी को अयोग्य ठहराने की मांग की है.

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एक दूसरी रणनीति के तहत, बीते मंगलवार को मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने नया आदेश जारी कर एकनाथ शिंदे को विधायक दल नेता पद से हटाकर अजय चौधरी को नियुक्त किया. इस नियुक्ति को खारिज करते हुए एकनाथ शिंदे ने कहा था कि पार्टी ने नवंबर 2019 में ही (सरकार बनाते समय) उन्हें विधायक दल का नेता घोषित किया था और वो आज भी विधायक दल के नेता है.

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महाराष्ट्र के सियासी संकट पर नज़र रखने वाले जानकारों का कहना है कि ये तमाम सियासी पोस्चरिंग इसलिए हो रही है कि दोनों गुट में से किस के पास पार्टी और पार्टी का चुनाव चिह्न होगा. बहरहाल, जानकार कहते हैं कि इतना तो तय है कि पार्टी में बंटवारा तो होगा ही, लेकिन सवाल है कि किसके पास पार्टी सिंबल होगा औऱ पार्टी भी.    

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अमूमन पार्टी का विभाजन दो तरह से होता है. पहला जब संसद या विधान सभा का सत्र चल रहा हो और कुछ विधायक अपनी पार्टी से अलग हो जाएं तो ऐसी स्थिति में दल-बदल कानून लागू होता है. ऐसी स्थिति में स्पीकर को ये अधिकार है कि वो फैसला ले.

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दूसरी स्थिति तब होती है जब पार्टी के अंदर ये बंटवारा ऐसे समय में होता है जब विधान  सभा या संसद का सत्र नहीं चल रहा होता है. यानि कि इस बंटवारे को विधान सभा या संसद के बाहर का विभाजन माना जाएगा. ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग की भूमिका अहम हो जाती है. बंटवारे के बाद अगर कोई गुट पार्टी के चुनाव चिन्ह पर अपना दावा करता है तो चुनाव आयोग सिंबल आर्डर 1968 के तहत फैसला लेता है. चुनाव आयोग दोनों पक्षो की दलीलों को सुनता है औऱ फिर फैसला लेता है. चुनाव आयोग के पास सिंबल को फ्रीज करने का भी अधिकार है. चुनाव आयोग के फैसले को दोनों पक्षों को मानना होगा.

बहरहाल, आज की तारीख में जिस तरह की राजनीति हो रही है उसके मद्देनज़र ये नहीं कहा जा सकता कि पार्टी सिंबल फलाना गुट को मिल ही जाएगा. क्योंकि कहा जाता है कि चाय की प्याली और होंठ के बीच काफी दूरी होती है. कम से कम आज की राजनीति में तो ये एक हकीकत है. मामला अभी लंबा चलेगा -- कोर्ट कचहरी से लेकर चुनाव आयोग तक में जाने से इनकार नहीं किया जा सकता है.

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