- माड़वी हिडमा दो दशकों तक बस्तर के जंगलों में माओवादी संगठन का प्रमुख और खतरनाक कमांडर था
- हिडमा ने कई खूनी नक्सली हमलों का नेतृत्व किया और उसे देश के सबसे भयावह गुरिल्ला कमांडर माना जाता था
- सुरक्षा बलों की कई कोशिशों के बावजूद हिडमा जंगल की भूलभुलैया में छुपकर बच निकलता रहा और कई जवान शहीद हुए
करीब दो दशकों तक बस्तर के जंगलों में एक ही नाम दहशत की तरह फुसफुसाया जाता रहा माड़वी हिडमा. सुरक्षा बलों के लिए वह मानो जंगल का भूत था, माओवादी संगठन के भीतर एक जीवित किंवदंती, और भारत के सबसे खूनी नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड. उसकी कहानी क्रूरता, चतुराई और लगभग पौराणिक-सी बच निकलने की क्षमता का संगम थी. मंगलवार सुबह छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे घने मरेडमल्ली जंगलों में जब मुठभेड़ खत्म हुई, तब यह अध्याय भी खत्म हो चुका था. हिडमा, जिसे भारत का सबसे भयावह गुरिल्ला कमांडर माना जाता था, मारा जा चुका था. उसके साथ उसकी पत्नी राजक्का और उसके चार सबसे भरोसेमंद लड़ाके भी ढेर मिले. भारत की आंतरिक सुरक्षा को वर्षों से दहला देने वाले घातक हमलों के दौर का अंत इसी के साथ हो गया.
माड़वी हिड़मा कई नामों से जाना जाता था
सुरक्षा एजेंसियों ने जो दस्तावेज तैयार किये हैं उसके मुताबिक उसका पूरा नाम माड़वी हिडमा था, और संगठन में वह हिडमालू, हिडमनन्ना, संतोष, देवा, विलास और अनिल जैसे नामों से भी जाना जाता था. उम्र लगभग पचास साल और गांव पुरवर्ती, जो सुकमा जिले के जगरगुंडा थाने में स्थित है. पिता माड़वी रेजेवा अब जीवित नहीं हैं, मां पोजई हैं. भाई बहनों में माड़वी मुक्का, माड़मी गुड़ी, माड़वी हड़मा और माड़मी बुदरी शामिल हैं, जिनके परिवार भी इन्हीं नक्सल प्रभावित इलाकों में रहते हैं. हिडमा की पत्नी राजी या राजकक्का भी माओवादी दल में सक्रिय रही और बीरपुर–गोल्लापल्ली क्षेत्र में एएमओओएस (मोबाइल पॉलिटिकल स्कूल) की प्रभारी थी .
इस पल की गंभीरता को समझने के लिए 2010 के ताडमेटला में लौटना होगा, जहां 76 सीआरपीएफ जवान एक ऐसी घात में शहीद हो गए थे कि आज भी वरिष्ठ अधिकारी उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि उस दिन जंगल ने मानो एक पूरी बटालियन निगल ली थी. यही वह हमला था जिसने हिड़मा को देश के नक्शे पर उभारा. दुबला-पतला, लगभग अनजान-सा यह कंपनी कमांडर ऐसी घेराबंदी बनाता था जिसने अनुभवी रणनीतिकारों को भी हैरत में डाल दिया. दस सालों बाद जांच एजेंसियों ने वही लिखा जो जंगल पहले ही जान चुका था कि ताडमेटला सिर्फ़ एक हमला नहीं था, बल्कि नए नक्सली सरगना की ताजपोशी थी. और यह तो बस शुरुआत थी जो बेहद चालाक लेकिन निर्दयी था...
महेंद्र कर्मा सहित दिग्गज कांग्रेसी की हत्या का भी था आरोपी
2013 का झीरम घाटी हमला, जिसे छत्तीसगढ़ के इतिहास की सबसे दर्दनाक राजनीतिक हत्या कहा जाता है, ने हिड़मा के कद को और बढ़ा दिया. खून से सनी उस दोपहर में महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल सहित कांग्रेस के कई शीर्ष नेता एक ऐसी घात में मारे गए जिसे सैन्य सटीकता के साथ अंजाम दिया गया था. कई सूत्रों का मानना है कि इस हमले की रूपरेखा भी हिड़मा के दिमाग से निकली थी. यह हमला उसे दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी से उठाकर सीधे माओवादी केंद्रीय कमेटी तक ले गया, जो किसी गैर-तेलंगाना आदिवासी के लिए बड़ी उपलब्धि थी.
गुरिल्ला युद्ध का था मास्टर
इसके बाद हिड़मा की बटालियन दक्षिण बस्तर की रीढ़ बन गई. उसके दस्ते बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और उससे आगे तक हवा की तरह चलते थे. गुरिल्ला युद्ध की उसकी समझ ने उसके कद को बड़ा बनाया . 2017 के बुरकापाल में 25 सीआरपीएफ जवानों की शहादत हो या मिनपा के टेकुलगुड़ा एरिया में 21 सैनिकों की शहादत, हर घटना ने वही सच दोहराया कि बस्तर में जब भी खून बहता था, हिड़मा की परछाईं ज़्यादा दूर नहीं होती थी.
बेहद रोचक रही हिड़मा की जीवन यात्रा
इस खूंखार चेहरे के पीछे एक ऐसा आदमी था जिसकी ज़िंदगी इन्हीं जंगलों की मिट्टी से जन्मी थी. संगठन में उसकी शुरुआत बहुत छोटी उम्र में हुई. 1991 में बाल संगठन के सदस्य के रूप में हिडमा भर्ती हुआ. 2002 में वह बटालियन क्षेत्र में सक्रिय हुआ, 2004 में कोटा एरिया कमेटी का सचिव नियुक्त किया गया और 2007 में कंपनी नंबर तीन का कमांडर बना. 2009 में वह पीएलजीए बटालियन का उपकमांडर नियुक्त हुआ और 2009 से 2021 तक बटालियन कमांडर रहा. 2011 में उसे दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी में शामिल किया गया और 2023 और 2024 के दौरान वह केंद्रीय कमेटी का सदस्य बना.
हिड़मा के भर्ती करने वाले पूर्व डीवीसीएम बदरन्ना आज भी बताते हैं कि हिडमा तेज़, चालाक और गुरिल्ला प्रशिक्षण को बहुत तेजी से सीख गया . उसने क्रांतिकारी गीत सीखे, पारंपरिक वाद्य बजाना सीखा, प्राथमिक उपचार, जंगल-जड़ी-बूटियों से दवा बनाना और जंगल को मानो धर्मग्रंथ की तरह पढ़ना सीखा. वह शादीशुदा था, और संगठन में आगे बढ़ने के बाद उसकी दूसरी शादी राजक्का से हुई, जो अक्सर उसके साथ अभियानों में रहती थी.
अंग्रेजी नहीं जानता था लेकिन तकनीक उसकी ताकत थी
अफवाहों के विपरीत हिड़मा अंग्रेज़ी नहीं जानता था. गांव के स्कूल से पांचवीं तक पढ़ा था उसकी दुनिया गोंडी, कोया, हल्बी, हिंदी, तेलुगु और गढ़चिरोली के दिनों की थोड़ी मराठी में चलती थी. औपचारिक शिक्षा कम थी, लेकिन तकनीक उसकी ताकत बन गई. पूर्व साथियों के अनुसार वह हमेशा टैबलेट, फोन, कभी कैमरा, कभी लैपटॉप लेकर चलता था. हर घात को वह कैमरे में रिकॉर्ड करता था. हर लड़ाके की पोजिशन, हर गोली, हर गलती वह बारिकी से दर्ज करता और फिर माओवादी कैंप उसी फुटेज पर प्रशिक्षण करता था, जैसे कोई सैन्य अकादमी युद्धाभ्यास का विश्लेषण करती हो. मुठभेड़ों के बाद बरामद वीडियोज़ ने पुष्टि की कि उसके नेतृत्व वाली बैटालियन नंबर एक हर हमले का अध्ययन करती थी.
हिड़मा को पकड़ने में पिछले 25 साल में कई जवान हुए शहीद
सुरक्षा बलों ने कम से कम आधा दर्जन बार उसे घेरने की कोशिश की. इन प्रयासों में 100 से अधिक जवान शहीद हुए. हर बार हिड़मा जंगल की भूलभुलैया में ग़ायब होकर बच निकलता. उसके चार से पांच सुरक्षा घेरे हर पल बदलते रहते, एक चलता-फिरता किला जैसे. पुलिस के पास उसकी सिर्फ एक पुरानी तस्वीर थी, 25 वर्ष से भी अधिक पुरानी, जिसमें वह एक दुबला-पतला, हल्की मूंछ वाला लड़का दिखता था, लेकिन उससे बिल्कुल अलग वो एक हार्डकोर नक्सली बन चुका था.
माओवादी साहित्य में बस्तर का सबसे बड़ा चेहरा था हिड़मा
जंगल के भीतर उसकी हैसियत मिथक जैसी थी. पूर्व कैडरों का कहना है कि वह सुरक्षा बलों के लिए निर्दयी था लेकिन अपने लड़ाकों के लिए अपना. वह उनके साथ हंसता, खाना बनाता, और फिर उन्हीं को सबसे घातक घातों में नेतृत्व देता. दंडकारण्य की वैचारिक संरचना में वह एकमात्र गैर-तेलंगाना आदिवासी था जिसने केंद्रीय कमेटी में जगह बनाई. माओवादी साहित्य उसे बस्तर की बगावत का प्रतीक कहता था.
2005 से लेकर 2025 तक कई हमलों को दिया अंजाम
2005 से लेकर 2024 तक के दो दशकों में उसने जिन हमलों का नेतृत्व किया या जिनकी साजिश रची, वे भारत के सबसे खूनी नक्सली हमलों की सूची में शामिल हैं. 2005 का इर्राबोर आईईडी हमला, 2006 में दरभा, मानकछेरू और कोटाचेरू में हुए धमाके, 2007 में उपारगुड़ा का हमला, एर्राबोर राहत शिविर पर घेराबंदी और टैमारुगुड़ा गोल्लापल्ली क्षेत्र में मुठभेड़ें. 2009 में निमा गिरिला और ओरछा नारायणपुर क्षेत्र में आईईडी विस्फोट, 2010 का ताडमेटला हमला जिसमें 76 सीआरपीएफ जवान शहीद हुए, 2014 का कासनपाड़ क्षेत्र हमला, 2015 का पिडमेटा हमला, 2017 का बुरकापाल हमला जिसमें 25 जवान शहीद हुए, 2021 का टेकुलगुड़ा हमला जिसमें 22 जवान शहीद हुए और 2024 का धरमावरम कैंप हमला. इन धमाकों और हमलों में बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों के जवान शहीद हुए और कई बार स्थानीय ग्रामीणों की भी मौत हुई.
हिडमा संगठन में सिर्फ हमले का मास्टरमाइंड ही नहीं था, बल्कि संचालन, रणनीति, निगरानी और कैडरों के प्रशिक्षण में भी उसकी भूमिका विशेष थी. वह संगठन के वित्तीय फैसलों में शामिल रहता था, हर कैडर की पृष्ठभूमि की विस्तृत जानकारी रखता था, रेडियो संदेशों पर पैनी नजर रखता था.
कई राज्यों में रखे गए थे इनाम
उस पर कई राज्यों ने बड़ा इनाम घोषित कर रखा था. छत्तीसगढ़ ने चालीस लाख, महाराष्ट्र ने पचास लाख, ओडिशा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना ने पच्चीस पच्चीस लाख और मध्यप्रदेश ने पंद्रह लाख का इनाम रखा था. फिर भी इन सारी कथाओं के भीतर हिड़मा एक त्रासदी भी था. वह एक आदिवासी लड़का था जो सामान्य जीवन जी सकता था, लेकिन जैसे नरसंहार का वो आदी बन चुका था . जंगल के एक किशोर से करोड़ों के इनामी नक्सलवादी बनने तक की उसकी यात्रा खून, भय और अस्तित्व की लड़ाई से बुनी गई थी. उसके भर्ती करने वाले बदरन्ना ने भी उसकी मौत पर अफसोस जताया. उन्होंने कहा कि वह अक्षरों का ए भी नहीं जानता था लेकिन युद्ध का पूरा अक्षरज्ञान सीख गया. दुख है, वह आदिवासी लड़का था, पर उसने वही रास्ता चुना जिसका अंत या तो आत्मसमर्पण था या गोली.
नक्सल हिंसा का अंतिम प्रतीक कैसे मारा गया?
मंगलवार सुबह वह रास्ता खत्म हो गया. मरेडमल्ली के भीतर एक संयुक्त दल ने उसकी टोली को घेर लिया. मुठभेड़ कम समय की थी लेकिन निर्णायक. धुआं छंटा तो जमीन पर भारत का सबसे वांछित नक्सली कमांडर पड़ा था. उसके पास उसकी पत्नी और उसके चार साथी भी मृत पड़े थे. इनके साथ एक ऐसे आंदोलन का अंतिम प्रतीक भी खत्म हो गया जो सुरक्षा बलों के लगातार दबाव में पहले ही टूट चुका था.
बस्तर के गांवों में आज जंगल कुछ अलग महसूस हो रहा है. ज्यादा शांत, ज्यादा हल्का, जैसे कोई पुरानी अंधेरी परत उतर गई हो. वर्षों तक उसे ढूंढते रहे अधिकारी इस पल को बस्तर के आधुनिक इतिहास के सबसे खूनी अध्याय का समापन बता रहे हैं. पहले भी उसकी मौत की अफवाहें उड़ती थीं, और वह हर बार किसी नए हमले के साथ लौट आता था. इस बार सबूत जमीन से आए तस्वीरें, बरामदगी, शव और कोई शक नहीं बचा.
हिड़मा का अंत बस्तर के लिए एक नई शुरुआत?
हिड़मा का अंत ताडमेटला के 76 शहीदों का दर्द नहीं मिटाता, न झीरम की राजनीतिक खाली जगह, न बुरकापाल की विधवाओं की रातें, न मिनपा के परिवारों का शोक. लेकिन यह बस्तर के लिए एक नए दौर की शुरुआत ज़रूर करता है.जंगल जहां कभी उसका राज था, अब गोलीबारी की खामोशी में इतिहास एक नया पन्ना पलटता है. डर गायब है. किंवदंती खत्म हो गई है. और बहुत समय बाद बस्तर उसकी छाया के बिना सांस ले रहा है.













