शुक्रवार को पटना में होने वाली विपक्ष की बैठक पर पूरे देश की निगाह है. इस बैठक में सामाजिक न्याय से लेकर केंद्र द्वारा जांच एजेंसियों के कथित दुरूपयोग, मणिपुर में हिंसा और यहां तक कि बेरोजगारी से लेकर पहलवानों के विरोध के साथ-साथ दिल्ली अध्यादेश तक की चर्चा होगी. आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि मंच तैयार है और खुद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने आपको जयप्रकाश नारायण जैसी भूमिका में देख रहे हैं. क्योंकि इसी पटना में साल 1974 में जेपी आंदोलन का बिगुल फूंका गया था जिसने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.
ये सिर्फ पहला कदम है, आगे मुश्किलें कई हैं
ये कहना गलत नहीं होगा कि विपक्षी एकजुटता के लिए ये पहला कदम है. आगे बढ़ने से पहले पिछले दो चुनावों पर निगाह भी डाल लेते हैं. साल 2019 में हुए चुनाव में भाजपा की सीटें 303 हो गई थीं जो 2014 में हुए चुनाव से 21 अधिक हैं. जाहिर है यदि उन्हें चुनौती देना है तो बीजेपी या उसके सहयोगी के खिलाफ हर सीट पर एक-एक विपक्षी उम्मीदवार की पहचान करनी होगी जो जाहिर तौर पर काफी मुश्किल होगा. दूसरी तरफ ये पहली बार है कि जिन पार्टियों का जन्म ही कांग्रेस विरोध से हुआ है वे इस बार देश की सबसे पुरानी पार्टी के साथ मंच साझा कर रहे हैं. ऐसे में आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि इस बैठक में किसी सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम का ऐलान नहीं होगा बल्कि संयुक्त बयान जारी होने की संभावना ज्यादा है. कुल मिलाकर विपक्ष के लिए पहला कदम उठाना आसान है लेकिन अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने से पहले उसे कई बाधाओं को दूर करना होगा. फिलहाल तो ये चार सवाल सामने आ रहे हैं जिनका सामना विपक्ष की मुहिम को करना होगा.
क्या पार्टियां रैली करने के लिए एक चेहरे पर जोर देंगी ?
साल 2014 से ही देश में लोकसभा चुनाव पीएम नरेंद्र मोदी के ईद-गिर्द संचालित होता रहा है. 2019 के परिणाम इसकी तस्दीक भी करते हैं...मसलन तब अकेले हिंदी हार्टलैंड में, पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 50% से अधिक वोट शेयर के साथ 141 सीटें जीतीं थीं. बीजेपी ने मोदी को एक निर्णायक नेता के रूप में पेश किया है, जिनकी राष्ट्रीय साख बेहद मजबूत है. मोदी के पास जनकल्याणकारी योजनाओं की पूरी फेहरिस्त है और जाति बंधन को तोड़ देने वाले लाभार्थी मतदाता आधार भी है. ऐसे में मोदी का मुकाबला करने के लिए गैर बीजेपी पार्टियों को चुनावी रैली करने के लिए मजबूत चेहरे की जरूरत होगी. लेकिन विपक्ष के सामने चुनौती ये है कि उसके पास कई नाम हैं जो इसके दावेदार हो सकते हैं. मसलन- राहुल गांधी,मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार और खुद नीतीश कुमार. विपक्ष के लिए इनमें से कोई एक नाम चुनना आसान नहीं होगा.
क्या कोई साझा न्यूनतम कार्यक्रम होगा ?
इसके अलावा बड़ा सवाल ये है कि क्या विपक्ष कोई साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार कर सकेगा. दरअसल विभिन्न विपक्षी दलों के बीच अंतर्विरोधों को दूर करना आसान नहीं है.मसलन- केंद्र द्वारा पारित अध्यादेश दिल्ली सरकार की अधिकांश शक्तियों को छीन रहा है. इस समले पर जहां आप चाहती है कि अन्य विपक्षी दल उसका समर्थन करें, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इस पर सावधानी से चल रहा है. जब आप नेता मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी की बात आई तो कांग्रेस ने जांच एजेंसियों की कथित मनमानी की निंदा करने में देर कर दी. दूसरा मुद्दा वीर सावरकर है. एक तरफ कांग्रेस खासकर राहुल गांधी इसे अक्सर उठाते रहते हैं जो उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को हमेशा असहज करती है. इसके अलावा राम मंदिर जैसे मुद्दे पर भी कई विपक्षी पार्टियों का स्टैंड बाकी पार्टियों से अलग रहा है. जाहिर है 23 जून की बैठक में शामिल होने वाले दलों के लिए ऐसा कार्यक्रम लाना आसान नहीं होगा जो उनके सभी हितों का समान रूप से प्रतिनिधित्व करता हो. विपक्ष के लिए पॉजिटिव बात सिर्फ ये है कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा ऐसा है जो उन्हें एक मंच पर बिठाए रह सकता है.
क्या अधिक प्रासंगिकता चाहने वाले क्षेत्रीय दल समायोजन करेंगे?
तीसरा सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या TMC, कांग्रेस, AAP और SP जैसे दल एक दूसरे से सामंजस्य बिठा सकेंगे क्योंकि इनका इतिहास या तो एक दूसरे के खिलाफ लड़ने का रहा है या गठबंधन का बुरा अनुभव रहा है. हाल के उदाहरण से आप इसे समझ सकते हैं. मसलन पिछले साल, जब ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक संयुक्त उम्मीदवार पर आम सहमति बनाने के लिए विपक्षी दलों की बैठक बुलाई थी, तो उन्हें कांग्रेस से पूरा समर्थन नहीं मिला था. अभी हाल में पश्चिम बंगाल के सागरदिघी विधानसभा सीट पर कांग्रेस नेता बायरन विश्वास ने जीत दर्ज की तो तीन महीने के अंदर ही ममता बनर्जी ने उन्हें टीएमसी में शामिल करा लिया. कांग्रेस के लिए ये बड़ा झटका था. दूसरी तरफ केजरीवाल की पार्टी आप काफी हद तक कांग्रेस के वोटों पर बढ़ी है, और अक्सर कांग्रेस द्वारा इसे भाजपा की बी टीम कहा जाता है. अखिलेश की सपा को भी अतीत में कांग्रेस से गठबंधन का अच्छा अनुभव नहीं रहा है. जाहिर है क्षेत्रीय दलों से तालमेल बिठाना और कांग्रेस को जगह देना आसान नहीं होगा, जिसके वोटों पर वे बढ़ रहे हैं.
क्या सीट शेयरिंग बन जाएगी सबसे बड़ी चुनौती?
टीएमसी और आप के साथ कांग्रेस के संबंधों के इतिहास को देखते हुए दिल्ली और पश्चिम बंगाल में विपक्षी एकता सबसे बड़ी चुनौती है. इसके अलावा झारखंड, केरल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सीटों के बंटवारे की व्यवस्था कैसे होती है, इस पर भी विपक्षी दलों को खूब माथापच्ची करनी होगी. आपको याद दिला दें कि इन राज्यों में लोकसभा की कुल 130 सीटें हैं. इसके अलावा ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में क्या होता है जहां वाईएसआरसीपी और बीजेडी जैसी पार्टियों ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने का फैसला किया है. ये बात दीगर है कि बीजेपी भी यहां अपना पूरा जोर लगा रही हैं.
क्या कांग्रेस दूसरों को जगह देगी?
कांग्रेस का मानना है कि उसे विपक्षी एकता के प्रयासों के केंद्र में होना चाहिए, यह देखते हुए कि वह पार्टियों में सबसे बड़ी है और खुद को भाजपा के लिए एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प मानती है. कर्नाटक में जीत ने पार्टी की आकांक्षाओं को और मजबूत ही किया है. हालांकि दूसरी पार्टियों को मनाने का मुश्किल काम नीतीश कुमार पर छोड़ दिया गया है, इसलिए वे विपक्ष के आधार के रूप में उभर रहे हैं. यहां यह याद रखना अहम है कि साल 2019 में, 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कांग्रेस ने एक भी सीट नहीं जीती है और केवल एक राज्य, केरल में उसे दो अंकों की संख्या हासिल की है. इसके अलावा देश में 224 सीटें ऐसी हैं जहां बीजेपी का वोट शेयर उसकी तुलना में 50 प्रतिशत से अधिक है. जाहिर है पटना में 23 जून को जब विपक्षी दल बैठेंगे तो उनका ये समझना की उन्होंने आधी लड़ाई जीत ली है ये बहुत हद तक सही नहीं होगा.